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New Delhi, NCR of Delhi, India
I am an Indian, a Yadav from (Madhepura) Bihar, a social and political activist, a College Professor at University of Delhi and a nationalist.,a fighter,dedicated to the cause of the downtrodden.....

Tuesday, December 2, 2014

आज भी गुलाम हैं हम: ३० वर्ष बाद ३ दिसंबर को भोपाल त्रासदी के पीड़ितों के लिए दो बूँद आंसू।



1984 में हुई दुनिया की सबसे घातक औद्योगिक दुर्घटनाओं में से एक भोपाल की यूनियन कार्बाइड गैस त्रासदी में तीन हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे। 2-3 दिसंबर 1984 की मध्यरात्रि को कीटनाशी बनाने वाले संयंत्र में एक रासायनिक अभिक्रिया के चलते जहरीली गैसों का रिसाव हो गया, जो कि आसपास फैल गई।
मध्य प्रदेश सरकार ने इसके कारण कुल 3,787 मौतों की पुष्टि की थी। गैर सरकारी आकलन का कहना है कि मौतों की संख्या 10 हजार से भी ज्यादा थी। पांच लाख से ज्यादा लोग घायल हो गए थे, बहुतों की मौत फेफड़ों के कैंसर, किडनी फेल हो जाने और लीवर से जुड़ी बीमारी के चलते हुई।
एंडरसन दुर्घटना के चार दिन बाद भोपाल पहुंचे थे परंतु नई दिल्ली से एक फोन आने के बाद तुरंत सरकारी देख-रेख में फरार हो गये। उसके बाद भारत सरकार ने उन्हें भारतीय कानून के दायरे में लाने की नाटक करती रही। भारत सरकार की ओर से एंडरसन के प्रत्यर्पण के लिए कई अनुरोध किए थे और आधिकारिक तौर पर उन्हें भगौड़ा भी घोषित किया था। द टाईम्स ने कहा कि अमेरिकी सरकार के समर्थन के चलते वह प्रत्यर्पण से बच गए।
हादसे को लेकर यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन वॉरेन एंडरसन के खिलाफ हर किसी में जबर्दस्त गुस्सा था। सभी यही मानते थे कि वही हजारों लोगों का कातिल है। हर तरफ से एंडरसन की गिरफ्तारी की मांग जोर पकड़ रही थी। धरना-प्रदर्शनों के बाद 3 दिसंबर की शाम हनुमानगंज थाने में एंडरसन के खिलाफ प्रकरण दर्ज कर लिया गया।
डॉन कर्जमैन की लिखी किताब 'किलिंग विंड' के मुताबिक, एंडरसन अपने अन्य सहयोगियों के साथ 7 दिसंबर को सुबह साढ़े नौ बजे इंडियन एयरलाइंस के विमान से भोपाल पहुंचा, हवाईअड्डे पर तत्कालीन पुलिस अधीक्षक स्वराज पुरी और जिलाधिकारी मोती सिंह मौजूद थे। दोनों एंडरसन को एक सफेद एंबेस्डर कार में कार्बाइड के रेस्ट हाउस ले गए और वहीं उन्हें हिरासत में लिए जाने की जानकारी दी।
कर्जमैन आगे लिखते हैं कि दोपहर साढ़े तीन बजे एंडरसन को पुलिस अधिकारी द्वारा बताया जाता है कि हमने आपको भोपाल से दिल्ली जाने के लिए राज्य सरकार के विशेष विमान की व्यवस्था की है, जहां से आप अमेरिका लौट सकते हैं। कुछ जरूरी कागजात पर दस्तखत करने के बाद एंडरसन दिल्ली के लिए निकल गया। हजारों इंसानों का कातिल फिर कभी भोपाल नहीं आया, वहीं से उसे अमेरिका भेज दिया गया।
इधर भोपाल में उसे दोषी ठहराने की लड़ाई जारी रही। 1 दिसंबर 1987 को केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) ने एंडरसन के खिलाफ मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी की अदालत में आरोपपत्र दाखिल किया। 9 फरवरी 1989 को सीजेएम की अदालत ने एंडरसन के खिलाफ गैरजमानती वारंट जारी किया, मगर वह नहीं आया। आखिरकार 1 फरवरी 1992 को अदालत ने एंडरसन को भगोड़ा घोषित कर दिया।
एंडरसन के भोपाल न आने के बावजूद न्यायिक लड़ाई जारी रही। 27 मार्च 1992 को सीजेएम अदालत ने एंडरसन के खिलाफ गैरजमानती वारंट जारी कर गिरफ्तार कर पेश करने के आदेश दिए। साथ ही एंडरसन के प्रत्यार्पण के लिए केंद्र सरकार को निर्देश जारी किए, मगर जून 2004 में यूएस स्टेट एंड जस्टिस डिपार्टमेंट ने एंडरसन के प्रत्यार्पण की भारत की मांग खारिज कर दी।
नारा लगा था - "तुम हमें एंडरसन दो, हम तुम्हें ओसामा देंगे।"
भोपाल की सीजेएम अदालत ने 7 जून 2010 को सात भारतीय अधिकारियों को दो-दो साल की सजा सुनाई और जमानत पर रिहा कर दिया। एंडरसन के प्रत्यार्पण को लेकर यूएस स्टेट एंड जस्टिस डिपार्टमेंट के निर्णय का मामला अभी भी सीजेएम अदालत में विचाराधीन है। इस बीच खबर आई कि 29 सितंबर, 2014 को 92 वर्षीय यूनियन कार्बाइड के पूर्व प्रमुख वॉरेन एंडरसन का अमेरिका के फ्लोरिडा के एक नर्सिग होम में में निधन हो गया।भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार कहते हैं कि सरकारों की दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव में एंडरसन का प्रत्यपर्ण नहीं हो पाया। भोपाल वासियों के साथ तो तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने विश्वासघात किया था, उसके बाद वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी वही कर रहे हैं। कोई फर्क ही नहीं दिखता।

Thursday, November 27, 2014

महाराजा कामेश्वर सिंह बहादुर, राज दरभंगा के १०७वे जयंति पर श्रद्धांजलि:


महाराजा कामेश्वर सिंह बहादुर, राज दरभंगा के १०७वे जयंति पर श्रद्धांजलि :
महाराजा साहेब का जन्म २८ नवम्बर, १९०७ को हुआ था और वे १९२९ से १९४७ तक दरभंगा का राज (परमानेंट सेटलमेंट के तहत लगभग ६२०० वर्ग किलोमीटर की वृहत जमींदारी) के सरकार थे।

दरअसल राज दरभंगा से हमारे परिवार का वर्षों का सम्बन्ध है। मुरहो एस्टेट राज दरभंगा के अंतर्गत ही छोटी जमींदारी थी।

दरभंगा महाराजा सर लक्ष्मेश्वर सिंह बहादुर निःसंतान थे और उनकी मृत्यु के उपरांत उनके भाई महाराजा रामेश्वर सिंह बहादुर १८९८ से अपनी मृत्यु १९२९ तक राज दरभंगा के शासक थे। वे सिविल सेवा में होने के कारण भागलपुर में पदस्थापित भी थे जो उस समय मधेपुरा का मुख्यालय था। बिहार लैन्डहोल्ड्र्स एशोसिएशन और कांग्रेस में सक्रिय होने और गोपाल कृष्ण गोखले से मिलने जुलने के दौरान मुरहो के जमींदार बाबू रासबिहारी लाल मंडल का उनसे संपर्क हुआ। महाराजा ने अपने दरबार में आमंत्रित किया और दरबारियों ने अनुमान लगाया की रासबिहारी बाबू किसी बड़े रियासत के राजा हैं। खैर राजमाता ने रासबिहारी बाबू को अंग्रेज़ों को चुनौती देने की हिम्मत रखने पर "मिथिला का शेर" कह कर सम्बोधित किया था।

रासबिहारी बाबू के सबसे छोटे पुत्र स्व बी पी मंडल की शिक्षा राज दरभंगा हाईस्कूल के आवासीय व्यवस्था में हुआ था।

महाराजा कामेश्वर सिंह १९४० में ब्रिटेन के प्रधान मंत्री विंस्टन चर्चिल की भतीजी और एक मंजी हुई कलाकार कलेर शेरिडन से महात्मा गांधी की एक बुत बनवाया था। वे बड़े दिलदार व्यक्तित्व थे। उस समय एयर फ़ोर्स को तीन फाइटर प्लेन तौफे में दिया था। उनसे सहायता पाने वालों में महात्मा गांधी, बाबू राजेन्द्र प्रसाद, नेताजी सुभाष चन्द्र बॉस आदि शामिल थे। उन्होंने अपने शासकीय क्षेत्र में अनेक जूट, कॉटन, लोहा और स्टील, अखबार आदि अनेक उद्योग लगवाये। बी एच यू, अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय सहित अनेक विश्वविद्यालय को लाखो रुपये दान दिए।



बिहार और हिंदुस्तान के इस विभूति को उनके १०७ वे जयंति पर हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि।

Wednesday, October 29, 2014

छठ पर्व की शुरुआत ?


भगवान राम सूर्यवंशी थे और इनके कुल देवता सूर्य देव थे। इसलिए भगवान राम और सीता जब लंका से रावण वध करके अयोध्या वापस लौटे तो अपने कुलदेवता का आशीर्वाद पाने के लिए इन्होंने देवी सीता के साथ षष्ठी तिथि का व्रत रखा और सरयू नदी में डूबते सूर्य को फल, मिष्टान एवं अन्य वस्तुओं से अर्घ्य प्रदान किया।

सप्तमी तिथि को भगवान राम ने उगते सूर्य को अर्घ्य देकर सूर्य देव का आशीर्वाद प्राप्त किया। इसके बाद राजकाज संभालना शुरु किया। इसके बाद से आम जन भी सूर्यषष्ठी का पर्व मनाने लगे।

महाभारत का एक प्रमुख पात्र है कर्ण जिसे दुर्योधन ने अपना मित्र बनाकर अंग देश यानी आज का भागलपुर का राजा बना दिया। भागलपुर बिहार में स्थित है।

अंग राज कर्ण के विषय में कथा है कि, यह पाण्डवों की माता कुंती और सूर्य देव की संतान है। कर्ण अपना आराध्य देव सूर्य देव को मानता था। यह नियम पूर्वक कमर तक पानी में जाकर सूर्य देव की आराधना करता था और उस समय जरुरतमंदों को दान भी देता था। माना जाता है कि कार्तिक शुक्ल षष्ठी और सप्तमी के दिन कर्ण सूर्य देव की विशेष पूजा किया करता था।

अपने राजा की सूर्य भक्ति से प्रभावित होकर अंग देश के निवासी सूर्य देव की पूजा करने लगे। धीरे-धीरे सूर्य पूजा का विस्तार पूरे बिहार और पूर्वांचल क्षेत्र तक हो गया।

छठ पर्व को लेकर एक कथा यह भी है कि साधु की हत्या का प्रायश्चित करने के लिए जब महाराज पांडु अपनी पत्नी कुंती और मादरी के साथ वन में दिन गुजार रहे थे।

उन दिनों पुत्र प्राप्ति की इच्छा से महारानी कुंती ने सरस्वती नदी में सूर्य की पूजा की थी। इससे कुंती पुत्रवती हुई। इसलिए संतान प्राप्ति के लिए छठ पर्व का बड़ा महत्व है। कहते हैं इस व्रत से संतान सुख प्राप्त होता है।

कुंती की पुत्रवधू और पांडवों की पत्नी द्रापदी ने उस समय सूर्य देव की पूजा की थी जब पाण्डव अपना सारा राजपाट गंवाकर वन में भटक रहे थे।

उन दिनों द्रौपदी ने अपने पतियों के स्वास्थ्य और राजपाट पुनः पाने के लिए सूर्य देव की पूजा की थी। माना जाता है कि छठ पर्व की परंपरा को शुरु करने में इन सास बहू का भी बड़ा योगदान है।

पुराण की कथा के अनुसार प्रथम मनु प्रियव्रत की कोई संतान नहीं थी। प्रियव्रत ने कश्यप ऋषि से संतान प्राप्ति का उपाय पूछा। महर्षि ने पुत्रेष्ठि यज्ञ करने को कहा। इससे उनकी पत्नी मालिनी ने एक पुत्र को जन्म दिया लेकिन यह पुत्र मृत पैदा हुआ। मृत शिशु को छाती से लगाकर प्रियव्रत और उनकी पत्नी विलाप करने लगी। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी।

एक ज्योतियुक्त विमान पृथ्वी की ओर आता दिखा। नजदीक आने पर सभी ने देखा कि उस विमान में एक दिव्याकृति नारी बैठी है। देवी ने प्रियव्रत से कहा कि मैं ब्रह्मा की मानस पुत्री हूं। संतान प्राप्ति की इच्छा रखने वालों संतान प्रदान करती हूं। देवी ने मृत बालक के शरीर का स्पर्श किया और बालक जीवित हो उठा।

महाराज प्रियव्रत ने अनेक प्रकार से देवी की स्तुति की। देवी ने कहा कि आप ऐसी व्यवस्था करें कि पृथ्वी पर सदा हमारी पूजा हो। राजा ने अपने राज्य में छठ व्रत की शुरुआत की। ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी छठ व्रत का उल्लेख किया गया है।


छठ पर्व की शुरुआत नहाय खाय के साथ हो चुकी है। चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व का आज दूसरा दिन है। इस दिन व्रती चावल और गुड़ का खीर बनाकर छठी मैया को प्रसाद अर्पित करते हैं।

व्रती इसी प्रसाद को खाते हैं और यही प्रसाद लोगों में बांटा भी जाता है। इस प्रसाद को खाने के बाद अगले दो दिनों तक व्रती कुछ भी नहीं खाएंगे। इसलिए सूर्य षष्ठी व्रत को बड़ा ही कठिन और सभी व्रतों में सबसे उत्तम माना गया है।

इस व्रत में चावल और गुड़ का खीर बनाने की परंपरा के पीछे धार्मिक और वैज्ञानिक कारण दोनों ही शामिल है। धार्मिक कारण यह है कि शास्त्रों में बताया गया है कि सूर्य की कृपा से ही फसल उत्पन्न होते हैं, इसलिए सूर्य को सबसे पहले नए फसलों का प्रसाद अर्पण करना चाहिए।

छठ पर्व के समय चावल और गन्ना तैयार होकर घर आता है इसलिए गन्ने से तैयार गुड़ और नए धान के चावल का प्रसाद सूर्य देव को भेंट किया जाता है।

गुड़ को चीनी से शुद्घ माना गया है। यही कारण है कि छठ पर्व में चीनी की बजाय गुड़ की खीर बनाई जाती है।

जबकि वैज्ञानिक कारण यह है कि गुड़ की तासीर गर्म होती है और यह सुपाच्य होता है। इसलिए गुड़ का उपयोग औषधि बनाने में भी किया जाता है। गुड़ के सेवन से व्रती को अंदर से उर्जा और उष्मा प्राप्त होती है जिससे दो दिनों के व्रत को पूरा करने का बल मिलता है।

Saturday, September 20, 2014

हम दो हमारे दो :


इस सदी के अंत में दुनिया की जनसंख्या 9.6 से 12.3 अरब के बीच पहुंच जाएगी। सबसे ज्यादा आबादी अफ्रीका में बढ़ेगी। एशिया की जनसंख्या में 2050 के बाद गिरावट आने लगेगी।
जहां तक भारत की जनसंख्या का सवाल है, यह 2028 में यह चीन के बराबर हो जाएगी।

दुनिया की जनसंख्या में बढ़ोतरी मुख्यत: अफ्रीकी देशों के अलावा इंडोनेशिया, पाकिस्तान, फिलीपींस और अमेरिका से होगी।
अमेरिका की जनसंख्या में दूसरे देशों से आकर बसने वाले इजाफा करेंगे। अमेरिका में अगले चार दशकों में 10 लाख लोग सालाना जाएंगे।
पूर्व अमरीकी उपराष्टपति अल गोरे का कहना है की जनसंख्या की बेतहाशा वृद्धि पृथ्वी के संसाधनों पर भारी दबाव है, और इसे स्थिर करने में सबसे महत्वपूर्ण कारक लड़कियों को शिक्षित करना ही बन सकती है।

मैं समझता हूँ की भारत की अनेक समस्याओं का इलाज़ इस जनसख्या विस्फोट पर लगाम लगाना ही है।1975 में आपातकाल (Emergency) लगाये जाने के समय उस समय के असंवैधानिक सत्ता के स्वामी, इंदिरा गाँधी के छोटे पुत्र संजय गाँधी ने जनसँख्या नियंत्रण के लिए नसबंदी सहित कई उपाय किये जो बाद में इस दौरान की गयी ज्यादतियों में तब्दील हो गयी थी। इसमें मुसलमानों पर भी जनसख्या नियत्रण के लिए दबाब दिया गयाथा। कहते हैं की 1977 में कांग्रेस की चौंकाने वाला हार की वजह इमेर्जेंसी में हुई ज्यादतियाँ को माना गया।
अब वर्षों बाद पहली बार है कि काँग्रेस पार्टी ने संजय गांधी के बारे में अपनी राय स्पष्ट की है। कांग्रेस ने अपने वजूद के 125 साल पूरे होने पर अपना इतिहास जारी किया है जिसमें इमरजेंसी का जिक्र किया गया है। 'द कांग्रेस एंड द मेकिंग ऑफ द नेशन' नाम की इस किताब में इमरजेंसी के दौरान जबरन नसबंदी और झुग्गियां हटाने के लिए संजय गांधी को जिम्मेदार ठहराया गया है।

जबकि इस नीति की कितनी आवश्यकता है यह आज समझा सकता है।

इधर इसी विषय पर समाजवादी नेता आज़म खान ने राजीव गांधी और संजय गांधी की मौत को अल्लाह द्वारा दी गई सजा करार दिया।
आजम ने कहा कि राजीव गांधी ने बाबरी मस्जिद के प्रवेश द्वारों को खोलने के आदेश दिए थे जबकि संजय गांधी ने आपातकाल के दौरान बल प्रयोग कर नसबंदी कार्यक्रम चलवाया और इसलिए दोनों को अल्लाह ने सजा दी।



इनसे परे मेरा तो आज भी इसी नारा पर विश्वास है कि बच्चे दो ही अच्छे।

Sunday, September 14, 2014

हिंदी दिवस पर शुभकामनाएँ : On 14th September.


हिन्दी संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा और भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। चीनी के बाद यह विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा भी है।
हिन्दी और इसकी बोलियाँ उत्तर एवं मध्य भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं। भारत और अन्य देशों में ६० करोड़ से अधिक लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। फ़िजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम की अधिकतर और नेपाल की कुछ जनता हिन्दी बोलती है।

हिन्दी शब्द का सम्बन्ध संस्कृत शब्द सिन्धु से माना जाता है। 'सिन्धु' सिन्ध नदी को कहते थे ओर उसी आधार पर उसके आस-पास की भूमि को सिन्धु कहने लगे। यह सिन्धु शब्द ईरानी में जाकर ‘हिन्दू’, हिन्दी और फिर ‘हिन्द’ हो गया। बाद में ईरानी धीरे-धीरे भारत के अधिक भागों से परिचित होते गए और इस शब्द के अर्थ में विस्तार होता गया तथा हिन्द शब्द पूरे भारत का वाचक हो गया। इसी में ईरानी का ईक प्रत्यय लगने से (हिन्द ईक) ‘हिन्दीक’ बना जिसका अर्थ है ‘हिन्द का’। यूनानी शब्द ‘इन्दिका’ या अंग्रेजी शब्द ‘इण्डिया’ आदि इस ‘हिन्दीक’ के ही विकसित रूप हैं। हिन्दी भाषा के लिए इस शब्द का प्राचीनतम प्रयोग शरफुद्दीन यज्+दी’ के ‘जफरनामा’(१४२४) में मिलता है।

भाषाविद हिन्दी एवं उर्दू को एक ही भाषा समझते हैं। हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है और शब्दावली के स्तर पर अधिकांशत: संस्कृत के शब्दों का प्रयोग करती है। उर्दू, फ़ारसी लिपि में लिखी जाती है और शब्दावली के स्तर पर उस पर फ़ारसी और अरबी भाषाओं का प्रभाव अधिक है।

हिन्दी हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार परिवार के अन्दर आती है। ये हिन्द ईरानी शाखा की हिन्द आर्य उपशाखा के अन्तर्गत वर्गीकृत है। हिन्द-आर्य भाषाएँ वो भाषाएँ हैं जो संस्कृत से उत्पन्न हुई हैं। उर्दू, कश्मीरी, बंगाली, उड़िया, पंजाबी, रोमानी, मराठी नेपाली जैसी भाषाएँ भी हिन्द-आर्य भाषाएँ हैं।

हिन्‍दी भाषा का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष पुराना माना गया है। हिन्‍दी भाषा व साहित्‍य के जानकार अपभ्रंश की अंतिम अवस्‍था अवहट्ठ से हिन्‍दी का उद्भव स्‍वीकार करते हैं।





अपभ्रंश की समाप्ति और आधुनिक भारतीय भाषाओं के जन्मकाल के समय को संक्रांतिकाल कहा जा सकता है। हिन्दी का स्वरूप शौरसेनी और अर्धमागधी अपभ्रंशों से विकसित हुआ है। १००० ई. के आसपास इसकी स्वतंत्र सत्ता का परिचय मिलने लगा था, जब अपभ्रंश भाषाएँ साहित्यिक संदर्भों में प्रयोग में आ रही थीं। यही भाषाएँ बाद में विकसित होकर आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के रूप में अभिहित हुईं। अपभ्रंश का जो भी कथ्य रुप था - वही आधुनिक बोलियों में विकसित हुआ।

इतिहास को ठीक जानें : काका कालेलकर कमीशन के रिपोर्ट.


प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग या काका कालेलकर कमीशन के रिपोर्ट को 1955 में क्यों नहीं मानी गई, इसके जवाब में अलग अलग धारणाएँ हैं।

परन्तु इसके लिए प्रमुख रूप से स्वयं काका कालेलकर जिम्मेदार थे। अपनी ही रिपोर्ट के राष्ट्रपति महोदय को लिखे गए अनुशंसा भूमिका पत्र में काका कालेलकर ने रिपोर्ट से असहमति जताते हुए उसे निरस्त करने की मांग कर दी थी।

केंद्र सरकार को उपरोक्त रिपोर्ट अग्रेसारित करते हुए कालेलकर ने उसके बुनियादी निष्कर्ष के साथ अपने मजबूत से असहमति रिकॉर्डिंग करवाई थी। उन्होंने लिखा की रिपोर्ट की अनुशंसा और दिए गए सुझाव उन बुराईयाँ जिनसे वे मुकाबला करने की मांग कर रही थी, वे उन बुराइयों से भी बदतर थे। उन्होंने लिखा कि आयोग द्वारा अपनाई जांच की लाइन गलत था क्योंकि "लोकतंत्र में यह इकाई है जो व्यक्ति, न परिवार या जाति है, और यह विश्लेषण लोकतंत्र की भावना के विरुद्ध है।"

................................................ In 1953, six years after India got its independence from the British Raj, the central government established a Backwards Classes Commission under Kalelkar's chairmanship with the charter to recommend reforms for removing inequities for underprivileged people. The Commission issued its report in 1955, recommending, among other things, that the government grant special privileges to untouchables and other underprivileged people.



While forwarding the above report to the central government, Kalelkar attached a letter, recording his strong disagreement with the Commission's fundamental conclusions. He wrote that the suggested remedies were worse than the evils they sought to combat. He wrote that the whole line of investigation pursued by the Commission was “repugnant to the spirit of democracy since in democracy it is the individual, not the family or the caste, which is the unit." He recommended that the state regard as backward and entitled to special educational and economic aid all persons whose total annual family income was less than 800 rupees [at that time] regardless of their caste or community. He stated his disagreement with the Commission's recommendation of reserving posts in government services for the backward classes.

ब्लू जींस : (Blue Jeans -Hindi)



जर्मनी के बेवेरिया में जन्मे लेवी स्ट्रॉस 18 साल की उम्र में अपने परिवार के साथ 1847 में अमेरिका गए थे। स्ट्रॉस के दो भाइयों का न्यूयॉर्क में कपड़े का बिजनेस था। लेवी ने एक साल इनसे काम सीखा। फिर रिश्तेदारों के पास केन्टुकी गए। यहां उन्होंने तीन साल तक फेरी लगाकर कपड़े बेचे। इसी दौरान उन्होंने अपना स्टोर खोलने का मन बनाया। सेन फ्रांसिसको आकर बहनोई डेविड स्टर्न के साथ मिलकर स्टोर खोला, जिसे लेवी स्ट्रॉस एंड कंपनी नाम दिया।

लेवी जर्मनी से साथ लाए मोटा कपड़ा खदान मजदूरों को बेचने लगे। रफ एंड टफ होने के कारण मजदूर इसका पैंट सिलवाते थे। मांग ज्यादा होने के कारण जल्द ही कपड़े का स्टॉक खत्म हो गया। लेवी ने इसका विकल्प ढूंढ़ लिया। वे फ्रांस के शहर नाइम्स से मोटा डेनिम फेब्रिक मंगवाने लगे, जिसे नीला करने के लिए नील से डाई करवाते थे। मजदूरों ने इसे भी हाथों हाथ लिया। अगले 13 वर्षों में लेवी का बिजनेस तीन गुना बढ़ गया।

1872 में लेवी को नेवादा के टेलर जैकब डेविस का पत्र मिला, जिसने लेवी को ऑफर दिया कि अगर वे उसकी नई तकनीक के पेटेंट की फीस भर दें तो वह इससे होने वाली कमाई का आधा हिस्सा उन्हें देगा। कभी लेवी की दुकान से कपड़े खरीदने वाले जैकब ने पैंट में धातु के हुक (रिबिट) लगाने का तरीका ढूंढ़ा था। लेवी और उसके बहनोई को ऑफर अच्छा लगा। इस स्टाइल का पेटेंट कराकर 20 मई 1873 को लेवी ने अपने घर में ही कारखाना खोला और पहली ब्लू जींस बनाई। हालांकि तब मजदूर इसे ‘ओवरऑल' कहते थे। इस साल मंदी होने के बावजूद उनका नया बिजनेस प्रभावित नहीं हुआ। काम बढ़ा तो उन्होंने अपनी फैक्ट्री भी स्थापित कर दी। इसी दौरान जनवरी 1874 में स्टर्न की मौत हो गई।

1886 में लेवी ने पहली बार जींस की वेस्ट पर लेदर टैग लगाया। इस पर जींस को विपरीत दिशा में खींचते दो घोड़ों की फोटो के साथ 501 नंबर प्रिंट था। उम्र बढ़ने पर लेवी ने बिजनेस अपने भतीजों जेकब और लुईस स्टर्न को सौंप दिया और सामाजिक कार्यों से जुड़ गए। 1902 में लेवी के निधन के चार साल बाद भूकंप व आग से बैट्री स्ट्रीट पर कंपनी का मुख्यालय और फैक्ट्री पूरी तरह नष्ट हो गए। कंपनी दोबारा खड़ी की गई। इस मुसीबत के बाद मंदी ने उनके बिजनेस को और नुकसान पहुंचाया। इससे निपटने के लिए 1912 में कंपनी ने अपना पहला इनोवेटिव प्रोडक्ट बच्चों का प्लेसूट बाजार में उतारा। इसकी सेल से कंपनी कुछ संभली।



1950 के दशक में मजदूरों की देखा देखी हिप्पीज़ और युवाओं ने भी डेनिम पहनना चालू किया। रिंकल फ्री और फिक्स साइज इनके बीच ज्यादा पॉपुलर हुए। 1960 में इसे जींस नाम मिला। 1964 तक दो प्लांट वाली लेवी स्ट्रॉस के 80 के दशक में 50 प्लांट हो गए थे। 35 से ज्यादा देशों में उसके ऑफिस काम करने लगे थे। 1991 में अमेरिका के कोलंबस ओहियो में पहला स्टेार खोला। इसके बाद जॉर्ज पी सिंपकिंस के नेतृत्व में कंपनी ने अमेरिका के बाहर 23 प्लांट खोले। साथ ही डॉकर्स, डेनिजिन, सिगनेचर और लेवाइस जैसे कई ब्रांड बाजार में उतारे। जींस मार्केट में दुनिया के टॉप बैंड लेवाइस के भारत सहित 110 देशों में स्टोर हैं। हाल में लेवाइस ने खादी ब्रैंड पेश किया है। जिन लेवी स्ट्रॉस ने दुनिया को जींस दी, उन्होंने खुद इसे कभी नहीं पहना।

Sunday, August 24, 2014

25 अगस्त : सामाजिक न्याय के प्रणेता स्व बी पी मंडल की जयन्ती पर।

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और भारत सरकार के पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष रहे स्व बी पी मंडल की जयन्ती बिहार सरकार के राजकीय समारोह के तौर पर उनके पैतृक गाँव मुरहो (मधेपुरा) और राजधानी पटना में मनाया जाता है।

स्व बिन्ध्येश्वरी प्रसाद मंडल का जन्म 25 अगस्त,1918 को बनारस में हुआ था। वे बिहार के आधुनिक इतिहास में पिछड़े वर्ग के और यादव समाज के संभवतः प्रथम क्रन्तिकारी व्यकित्व, मुरहो एस्टेट के ज़मींदार होते हुए भी स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रीय और कांग्रेस पार्टी में बिहार से स्थापना सदस्यों में एक, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, बिपिन चन्द्र पाल, सच्चिदानंद सिन्हा जैसे प्रमुख नेताओं के साथी, 1907 से 1918 तक बिहार प्रांतीय कांग्रेस कमिटी और ए आई सी सी के बिहार से निर्वाचित सदस्य, 1911 में गोप जातीय महासभा (बाद में यादव महासभा) की संस्थापक स्व रासबिहारी लाल मंडल के सबसे छोटे पुत्र थे। रासबिहारी बाबू यादवों के लिए जनेऊ धारण आन्दोलन और 1917 में मोंटेग-चेल्म्फोर्ड समिति के समक्ष यादवों के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करते हुए, वायसरॉय चेल्म्फोर्ड को परंपरागत 'सलामी'देने की जगह उनसे हाथ मिलते हुए जब यादवों के लिए नए राजनैतिक सुधारों में उचित स्थान और सेना में यादवों के लिए रेजिमेंट की मांग किए थे। 1911 में सम्राट जार्ज पंचम के हिंदुस्तान में ताजपोशी के दरबार में प्रतिष्टित जगह से शामिल हो कर वह उन अँगरेज़ अफसरों को भी दंग कर दिए जिनके विरुद्ध वे वर्षों से कानूनी लड़ाई लड़ रहे थे।1917 में कांग्रेस के कलकत्ता विशेष अधिवेशन में वे सबसे पहले पूर्ण स्वराज्य की मांग की थी। कलकत्ता से छपने वाली हिंदुस्तान का तत्कालीन प्रतिष्टित अंग्रेजी दैनिक अमृता बाज़ार पत्रिका ने रासबिहारी लाल मंडल की अदम्य साहस और अभूतपूर्व निर्भीकता की प्रशंसा की और अनेक लेख और सम्पादकीय लिखी, और दरभंगा महराज ने उन्हें 'मिथिला का शेर' कह कर संबोधित किया था। 27 अप्रैल, 1908 के सम्पादकीय में अमृता बाज़ार पत्रिका ने कलकत्ता उच्च न्यायलय के उस आदेश पर विस्तृत टिप्पणी की थी जिसमें भागलपुर के जिला पदाधिकारी लायल के रासबिहारी बाबू के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित व्यवहार को देखते हुए उनके विरुद्ध सभी मामलों पर संज्ञान लिया और उन मामलों को रासबिहारी बाबू के वकील मिस्टर जैक्सन के निवेदन पर दरभंगा हस्तांतरित कर दिया था।

1918 में बनारस में ५१ वर्ष की आयु में जब रासबिहारी बाबू का निधन हुआ तो वहीँ बी पी मंडल का जन्म हुआ। रासबिहारी लाल मंडल के बड़े पुत्र भुब्नेश्वरी प्रसाद मंडल थे जो १९२४ में बिहार-उड़ीसा विधान परिषद् के सदस्य थे, तथा १९४८ में अपने मृत्यु तक भागलपुर लोकल बोर्ड (जिला परिषद्) के अध्यक्ष थे। दूसरे पुत्र कमलेश्वरी प्रसाद मंडल आज़ादी की लड़ाई में जय प्रकाश बाबू वगैरह के साथ गिरफ्तार हुए थे और हजारीबाग सेन्ट्रल जेल में थे और १९३७ में बिहार विधान परिषद् के सदस्य चुने गए थे।

कहते हैं की एक समय कलकत्ता में रासबिहारी बाबू से राजनैतिक रूप से जुड़े प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के कारण मधेपुरा विधान सभा से 1952 के प्रथम चुनाव में बी पी मंडल काँग्रेस के प्रत्याशी बने और 1952 में बहुत काम उम्र में मधेपुरा विधान सभा से सदस्य चुने गए। 1962 में पुनः चुने गए और 1967 में मधेपुरा से लोक सभा सदस्य चुने गए1965 में मधेपुरा क्षेत्र के पामा गाँव में हरिजनों पर सवर्णों एवं पुलिस द्वारा अत्याचार पर वे विधानसभा में गरजते हुए कांग्रेस को छोड़ सोशिअलिस्ट पार्टी में आ चुके थे। बड़े नाटकीय राजनैतिक उतार-चढ़ाव के बाद १ फ़रवरी,१९६८ में बिहार के पहले यादव मुख्यमंत्री बने। इसके लिए उन्होंने सतीश बाबू को एक दिन के लिए मुख्यमंत्री बनवाए। अतः सतीश बाबू को एक दिन के लिए मुख्यमंत्री बनाने वाले स्व बी पी मंडल ही थे। बी पी मंडल ६ महीने तक सांसद थे, और बिहार सरकार में स्वास्थ्य मंत्री भी थे। वे राम मनोहर लोहिया जी एवं श्रीमती इंदिरा गाँधी की इच्छा के विरुद्ध बिहार में पहले पिछड़े समाजके मुख्यमंत्री बनने जा रहे थे। परन्तु विधानसभा में बहुमत के बावजूद तत्कालीन राज्यपाल अयंगर साहेब रांची जाकर बैठ गए और मंडल जी को शपथ दिलाने से इस आधार पर इंकार कर दिया कि बी पी मंडल बिहार में बिना किसी सदन के सदस्य बने ६ महीने तक मंत्री रह चुके है। परन्तु बी पी मंडल ने राज्यपाल को चुनौती दी और इस परिस्थिति से निकलने के लिए तय किया गया की सतीश बाबू एक दिन के लिए मुख्यमंत्री बन कर इस्तीफा देंगे जिससे बी पी मंडल के मुख्यमंत्री बनने में राज्यपाल द्वारा खड़ा किया गया अरचन दूर किया जा सके। अब इंदिरा गाँधी और लोहिया जी सभी मंडल जी के व्यक्तित्व से डरते थे और नहीं चाहते थे की सतीश बाबू इस्तीफा दें। परन्तु सतीश बाबू ने बी पी मंडल का ही साथ दिया। आगे की कहानी और दिलचस्प है। उन्ही दिनों बरौनी रिफायनरी में तेल का रिसाव गंगा में हो गया और उसमें आग लग गयी। बिहार विधान सभा में पंडित बिनोदानंद झा ने कहा कि शुद्र मुख्यमंत्री बना है तो गंगा में आग ही लगेगी!

साक्ष्य तो इस प्रकरण का बिहार विधानसभा के रिकार्ड में है - बात पहले बिहार विधान सभा की है, जब स्व बी पी मंडल ने आपत्ति की थी कि यादवों के लिए विधान सभा में 'ग्वाला' शब्द का प्रयोग किया गया।सभापति सहित कई सदस्यों ने कहा की यह असंसदीय कैसे हो सकता है क्योंकि यह शब्दकोष (Dictionary) में लिखा हुआ है। स्व मंडल ने कुछ गालियों का उल्लेख करते हुए कहा कि ये भी तो शब्दकोष (Dictionary) में है, फिर इन्हें असंसदीय क्यों माना जाता है. सभापति ने स्व मंडल की बात मानते हुए, यादवों के लिए 'ग्वाला' शब्द के प्रयोग को असंसदीय मान लिया। लेकिन उन दिनों किन जातिवादी हालातों में बाते हो रही थी, इसका अंदाज़ मुश्किल है।

१९६८ में उपचुनाव जीत कर पुनः लोक सभा सदस्य बने।१९७२ में मधेपुरा विधान सभा से सदस्य चुने गए। १९७७ में जनता पार्टी के टिकट पर मधेपुरा लोक सभा से सदस्य बने। १९७७ में जनता पार्टी के बिहार संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष के नाते लालू प्रसाद को कर्पूरी ठाकुर और सत्येन्द्र नारायण सिंह के विरोध के बावजूद छपरा से लोक सभा टिकट मंडल जी ने ही दिया। १९७८ में कर्णाटक के चिकमंगलूर से श्रीमती इंदिरा गाँधी के लोक सभा में आने पर जब उनकी सदस्यता रद्द की जा रही थी, तो मंडल जी ने इसका पुरजोर विरोध किया। १.१.१९७९ को प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई ने बी पी मंडल को पिछड़ा वर्ग आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया, जिस जबाबदेही को मानल जी ने बखूबी निभाया।इनके दिए गए रिपोर्ट को लाख कोशिश के बावजूद सर्वोच्च न्यायलय में ख़ारिज नहीं किया जा सका।खैर, उसके बाद की घटनाएं तो तात्कालिक इतिहास में दर्ज है और जो हममें से बहुतों को अच्छी तरह याद है.

स्व बी पी मंडल जी की मृत्यु १३ अप्रैल.१९८२ को ६३ वर्ष की आयु में हो गयी।

स्व बी पी मंडल के जयंती पर उनकी स्मृति को अनेकों बार नमन.

Thursday, August 21, 2014

टाई और अफसर :UPSC & C-SAT


काँग्रेस मुक्त भारत की बात तब बेईमानी लगती है, जब हम यह देखते हैं कि जहाँ एक ओर जनता ने काँग्रेस को उखाड़ फेंका, वहीँ नई सरकार कभी काँगेस के फैसले को मानने का बहाना देती है तो कभी काँग्रेस द्वारा लाए गए बेईमान अधिकारीयों और सदस्यों को ही पदोन्नति दे देती है।

16 अगस्त को अध्यक्ष डी पी अग्रवाल के कार्यकाल समाप्त होने पर मोदी सरकार को ठेंगा दिखा चुके वर्तमान संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) के कुछ दागियों सहित पंक्ति में से रजनी राज़दान को अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया, हालाँकि अगर सरकार चाहती तो सीधे तौर पर नए अध्यक्ष की नियुक्ति कर सकती थी। लेकिन मंत्री जितेंद्र सिंह जम्मू कश्मीर से हैं और मैडम भी वहीँ से हैं तो मामला तय हो गया हो।

अब इन मोहतरमा का एक वाकया C-SAT आंदोलनकारियों के बीच चर्चा का विषय है।

सिविल सेवा परीक्षा के किसी एक साक्षात्कार (Interview) के दौरान बाढ़मेड़ (राजस्थान) का एक अभ्यार्थी पूरे तैयारी के साथ टाई वैगेरह लगाकर उपस्थित हुआ। मैडम ने सबसे पहले उसे टाई खोलने को कहा। जब वह टाई खोल लिया तो फिर उसे बाँधने को कहा। बेचारा ग्रामीण परिवेश का पढ़ाकू नौजवान किसी से टाई बंधवा कर आया था। संकोच और शर्म से उसका बुरा हाल हो रहा था और तब उसे कहा गया की टाई भी बांधने नहीं आता है और चले अफसर बनने !

इसी घटिया सोच, भेदभावपूर्ण रवैये और बेईमानी के विरुद्ध युवाओं का संघ लोक सेवा आयोग के विरुद्ध मुहीम है जिसका तात्कालिक मुद्दा C-SAT और भारतीय भाषा का पश्न बन गया है। पर अफ़सोस मंत्री जीतेन्द्र सिंह हैं तो मोदी सरकार में मंत्री परन्तु टाई लगाकर काँग्रेसी रंग में ही रँगे, युवाओं के माँग को अफसरी अंदाज़ में घालमेल कर दिया है। सन 2009 में भी सिविल सेवा परीक्षा के परिणाम में भारी गड़बड़ियों के विरूद्ध संसद से सड़क तक के संघर्ष को दबा दिया गया था। 2010 और 2013 में परीक्षा के सिलेबस और विधि में बिना कोई व्यापक सलाह अनैतिक और विद्वेषपूर्ण परिवर्तन पर तमाम विरोध को मनमाने ढंग से ख़ारिज कर दिया गया था।

तमाम साथी 25 अगस्त को UPSC के सामने फिर से प्रदर्शन करेंगे। आंदोलन में सहयोग और समन्वय कर रहे स्वामी श्रद्धानन्द कॉलेज के साथी प्रोफ़ेसर अमरनाथ झा (Amar Nath Jha) ने बताया की अब यह आंदोलन राष्ट्रव्यापी होगा और मा अन्ना हज़ारे का भी सहयोग मिल सकता है।

जो यह समझते हैं की संघ लोक सेवा आयोग के आंदोलन में शामिल होना या समर्थन देना भा ज पा विरोधी है, उन्हें यह बताना चाहूँगा की संघ के वरिष्ठ स्वयंसेवक अधिकारी युवाओं के माँग को माने जाने के पक्ष में हैं।

https://www.google.co.in/url?sa=t&rct=j&q=&esrc=s&source=video&cd=1&cad=rja&uact=8&ved=0CBwQtwIwAA&url=http%3A%2F%2Fwww.youtube.com%2Fwatch%3Fv%3DMOSigv2emvE&ei=PX71U43YHonn8AXl8oCACw&usg=AFQjCNGbovGGUulkQeyOPj5CSfrih-kdVw&sig2=R9Ade2orJdPTqxFQlUP21A&bvm=bv.73231344,d.dGc

Sunday, August 10, 2014

रक्षाबंधन पर सभी देशवासी, भाई-बहन को शुभकामनाएँ :


रक्षाबन्धन एक हिन्दू त्यौहार है जो प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। श्रावण (सावन) में मनाये जाने के कारण इसे श्रावणी (सावनी) या सलूनो भी कहते हैं। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में जन जागरण के लिये भी इस पर्व का सहारा लिया गया। श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंग-भंग का विरोध करते समय रक्षाबन्धन त्यौहार को बंगाल निवासियों के पारस्परिक भाईचारे तथा एकता का प्रतीक बनाकर इस त्यौहार का राजनीतिक उपयोग आरम्भ किया।

राखी का त्योहार कब शुरू हुआ यह कोई नहीं जानता। लेकिन भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव हावी होते नज़र आने लगे। भगवान इन्द्र घबरा कर बृहस्पति के पास गये। वहां बैठी इन्द्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मन्त्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति के हाथ पर बाँध दिया। संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इन्द्र इस लड़ाई में इसी धागे की मन्त्र शक्ति से ही विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बाँधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन,शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह समर्थ माना जाता है।

कहते हैं एक बार बाली रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया।[ङ] भगवान के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय बताया। उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई बनाया और अपने पति भगवान बलि को अपने साथ ले आयीं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी। विष्णु पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है कि श्रावण की पूर्णिमा के दिन भगवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिये फिर से प्राप्त किया था। हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है।

महाभारत में भी इस बात का उल्लेख है कि जब ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूँ तब भगवान कृष्ण ने उनकी तथा उनकी सेना की रक्षा के लिये राखी का त्योहार मनाने की सलाह दी थी। उनका कहना था कि राखी के इस रेशमी धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं। इस समय द्रौपदी द्वारा कृष्ण को तथा कुन्ती द्वारा अभिमन्यु को राखी बाँधने के कई उल्लेख मिलते हैं। महाभारत में ही रक्षाबन्धन से सम्बन्धित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तान्त भी मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया। कहते हैं परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना रक्षाबन्धन के पर्व में यहीं से प्रारम्भ हुई।

एक अन्य प्रसंगानुसार सिकन्दर की पत्नी ने अपने पति के हिन्दू शत्रु पुरूवास को राखी बाँधकर अपना मुँहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकन्दर को न मारने का वचन लिया। पुरूवास ने युद्ध के दौरान हाथ में बँधी राखी और अपनी बहन को दिये हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकन्दर को जीवन-दान दिया।
राजपूत जब लड़ाई पर जाते थे तब महिलाएँ उनको माथे पर कुमकुम तिलक लगाने के साथ साथ हाथ में रेशमी धागा भी बाँधती थी। इस विश्वास के साथ कि यह धागा उन्हे विजयश्री के साथ वापस ले आयेगा। राखी के साथ एक और प्रसिद्ध कहानी जुड़ी हुई है। कहते हैं, मेवाड़ की रानी कर्मावती को बहादुरशाह द्वारा मेवाड़ पर हमला करने की पूर्व सूचना मिली। रानी लड़ऩे में असमर्थ थी अत: उसने मुगल बादशाह हुमायूँ को राखी भेज कर रक्षा की याचना की। हुमायूँ ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुँच कर बहादुरशाह के विरूद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए कर्मावती व उसके राज्य की रक्षा की।

अनेक साहित्यिक ग्रन्थ ऐसे हैं जिनमें रक्षाबन्धन के पर्व का विस्तृत वर्णन मिलता है। इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण है हरिकृष्ण प्रेमी का ऐतिहासिक नाटक रक्षाबन्धन जिसका 1991 में 18वाँ संस्करण प्रकाशित हो चुका है। मराठी में शिन्दे साम्राज्य के विषय में लिखते हुए रामराव सुभानराव बर्गे ने भी एक नाटक की रचना की जिसका शीर्षक है राखी ऊर्फ रक्षाबन्धन। पचास और साठ के दशक में रक्षाबन्धन हिंदी फ़िल्मों का लोकप्रिय विषय बना रहा। ना सिर्फ़ 'राखी' नाम से बल्कि 'रक्षाबन्धन' नाम से भी कई फ़िल्में बनायीं गयीं।

भारत सरकार के डाक-तार विभाग द्वारा इस अवसर पर दस रुपए वाले आकर्षक लिफाफों की बिक्री की जाती हैं। लिफाफे की कीमत 5 रुपए और 5 रुपए डाक का शुल्क। इसमें राखी के त्योहार पर बहनें, भाई को मात्र पाँच रुपये में एक साथ तीन-चार राखियाँ तक भेज सकती हैं। डाक विभाग की ओर से बहनों को दिये इस तोहफे के तहत 50 ग्राम वजन तक राखी का लिफाफा मात्र पाँच रुपये में भेजा जा सकता है जबकि सामान्य 20 ग्राम के लिफाफे में एक ही राखी भेजी जा सकती है। यह सुविधा रक्षाबन्धन तक ही उपलब्ध रहती है। इण्टरनेट के आने के बाद कई सारी ई-कॉमर्स साइट खुल गयी हैं जो ऑनलाइन आर्डर लेकर राखी दिये गये पते पर पहुँचाती है।

Saturday, August 9, 2014

UPSC dares Modi Sarkar : rejects Jitendra Singh’s ‘little’ and misplaced concession to agitating students. Tainted Members rule the roost.



Congress is shedding crocodile tears, and BJP is behaving like UPA III, while the students who had hoped that with the coming of Modi Sarkar, the ‘injustices’ of UPSC will be put to order are feeling cheated.It would have been much more appreciated if instead of Madam Beniwal, Mr Aggarwal of UPSC would have been retired forcefully, ignoring the ‘constitutional’ guard they were carrying in their defense.

UPSC Chairman DP Agarwal, due to retire on 16th August, rejected even the little “piecemeal” solution offered by the NDA government to resolve the CSAT row. The Modi government had proposed on Monday that the controversial English comprehension questions in the CSAT paper need not be factored in while preparing the grades or the merit list. But a day before the government came out with its solution, the full bench of the UPSC met on Sunday and decided against tweaking or scrapping the CSAT or postponing the examination scheduled on August 24.

The meeting attended by all ten members and chaired by UPSC Chairman Prof. D P Agrawal decided that it being an autonomous body, they should not be “submissive.” The only concession was that they agreed to offer the aspirants was another chance, especially for those who had exhausted their six attempts before 2011 when the new CSAT format was introduced.The UPSC had conveyed its decision to the government and was surprised when Dr Jitendra Singh, Minister of State for Personnel, announced in the House that the section dealing with English comprehension will not be counted while calculating the marks.The government’s confusing proposal may become in fructuous unless the UPSC clears it, and as of now the UPSC is not inclined.

But behind the tall claims of ‘autonomy’ lies the controversial appointment of some members of this holy cow, i.e., UPSC, especially those who are tainted and unfit to be in the body which selects what Sardar Vallabh Bhai Patel called the ‘steel-frame’ of India. No wonder the steel-frame is now gathering rust.

At least three present members and to some extent the retiring Chairman may be considered controversial. It is indeed interesting how the Congress rushed through and appointed Prof Hem Chandra Gupta on last day of their Government, the 15th May, 2014, by asking the IIT administration to relieve him on a Gazetted Holiday (14th April, 2014). It may be noted that he was asked to leave the post of Vice-Chancellor within two months of his appointment as he created anarchy in the University.(He was VC of Ch Charan Singh University from July 2011 to September 2011). He was instrumental in ordering cutting of several trees during his tenure as Deputy Director (Administration) and due to such controversies he was not permitted to be join as NSIT as Director in 2009 by the Delhi Government. There was another controversy when he tried to mastermind his selection at NSIT against the AICTE approved process.

Other case of dubious appointments at UPSC is of Mr A P Singh, former Director, CBI. ().

Another controversial tainted Member is Mr Chhattar Singh, former Private Secretary to the Chief Minister of Haryana, who was rewarded for being facilitator to Mr Vadra.
Then, we have Modi Sarkar who forgets that when people voted for change, it was not just the Congress but also their highly corrupt practices and blatant nepotism.

All of them are strong votaries of C-SAT. I salute the students who have continued the struggle even at the cost of Modi Sarkar’s U-turn and the UPSCs expected reactionary approach.

Wednesday, June 25, 2014

देश में आपातकाल (Emergency) 26 जून 1975 से 22 मार्च,1977.


देश में आपातकाल (Emergency) 26 जून 1975 से 22 मार्च,1977.

आज के नौजवान साथियों को वह दौर समझने में थोड़ी मुश्किल ज़रूर हो सकती है। पूरे इमरजेंसी का निचोड़ जॉर्ज फर्नांडिस की यह तस्वीर है, जो उनका 1977 के आम चुनाव में उनका पोस्टर था। जेल से चुनाव लड़े और उत्तर भारत में जनता पार्टी के अन्य प्रत्याशियों की तरह चुनाव स्वीप कर लिए।

मामला 1971 में हुए लोकसभा चुनाव का था, और सोशलिस्ट पार्टी के नेता हमेशा की तरह इंदिरा गांधी के विरुद्ध राय बरेली से चुनाव लड़ते थे। इस चुनाव में इंदिरा अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी राज नारायण को पराजित किया था। लेकिन चुनाव परिणाम आने के चार साल बाद राज नारायण ने हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी। उनकी दलील थी कि इंदिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग किया, तय सीमा से अधिक खर्च किए और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए ग़लत तरीकों का इस्तेमाल किय। अदालत ने इन आरोपों को सही ठहराया। इंदिरा गांधी पर इस्तीफे का दवाब था। परन्तु उन्होंने इसे फ़ासिस्ट ताक़तों का षड़यंत्र (जे पी,जॉर्ज आदि नेतओं को फासिस्ट कहती थी) मानते हुए इस्तीफा देने से इंकार कर दिया और एक बड़े जन आंदोलन की सम्भावना को देखते हुए देश के संविधान में सशस्त्र विद्रोह से निपटने के प्रावधान -इमरजेंसी को लागू कर दिया। इस तरह इंदिरा गांधी ने इस फ़ैसले को मानने से इनकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की घोषणा की और 26 जून को आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी गई।आकाशवाणी पर प्रसारित अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा, "जब से मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील क़दम उठाए हैं, तभी से मेरे ख़िलाफ़ गहरी साजिश रची जा रही थी।" और तब शुरू हुआ इंदिरा -संजय गांधी के नेतृत्व में देश में तानाशाही का खौफनाक और शर्मनाक दौर।
आपातकाल लागू होते ही आंतरिक सुरक्षा क़ानून (मीसा) के तहत हज़ारों की तायदाद में राजनीतिक विरोधियों की गिरफ़्तारी की गई, इनमें जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चौ चरण सिंह, जॉर्ज फ़र्नांडिस और अटल बिहारी वाजपेयी भी शामिल थे।

आपातकाल लागू करने के लगभग दो साल बाद विरोध की लहर तेज़ होती देख प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर चुनाव कराने की सिफारिश कर दी। चुनाव में आपातकाल लागू करने का फ़ैसला कांग्रेस के लिए घातक साबित हुआ. ख़ुद इंदिरा गांधी अपने गढ़ रायबरेली से चुनाव हार गईं।

1977 में 16 से 20 मार्च के बीच लोक सभा चुनाव हुए।1977 के चुनाव में 32 करोड़ मतदाताओं से 60% ने वोट किया। 23 मार्च को घोषित परिणाम में कह गया की 43.2% लोकप्रिय वोट और 271 सीटें हासिल करके जनता पार्टी ने एक व्यापक और अभूतपूर्व विजय हासिल की थी। अकाली दल और कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी के समर्थन के साथ, यह एक दो तिहाई, या 345 सीटों की पूर्ण बहुमत बन चुक था। कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी ने 28 सीटें जीती और जगजीवन राम एक राष्ट्रीय दलित नेता के रूप में जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों को दलित वोट का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मिलने के लिये काफी बड़ा प्रभाव डाला था।जनता पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने।



संसद में कांग्रेस के सदस्यों की संख्या 350 से घट कर 153 पर सिमट गई और 30 वर्षों के बाद केंद्र में किसी ग़ैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ। कांग्रेस को उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में एक भी सीट नहीं मिली। नई सरकार ने आपातकाल के दौरान लिए गए फ़ैसलों की जाँच के लिए शाह आयोग गठित की गई। हालाँकि नई सरकार दो साल ही टिक पाई और अंदरूनी अंतर्विरोधों के कारण १९७९ में सरकार गिर गई. उप प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने कुछ मंत्रियों की दोहरी सदस्यता का सवाल उठाया जो जनसंघ के भी सदस्य थे। इसी मुद्दे पर चरण सिंह ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया और कांग्रेस के समर्थन से उन्होंने सरकार बनाई लेकिन चली सिर्फ़ पाँच महीने. उनके नाम कभी संसद नहीं जाने वाले प्रधानमंत्री का रिकॉर्ड दर्ज हो गया।

1977 में बिहार से सांसद चुने जाने वालों में अन्य प्रमुख नेतओं में पूर्व मुख्यमंत्री स्व बी पी मंडल -मधेपुरा,कर्पूरी ठाकुर -समस्तीपुर, सत्येन्द्र नारायण सिंह - औरंगाबाद, जॉर्ज फर्नांडिस - मुजफ्फरपुर, लालू प्रसाद -छपरा, राम विलास पासवान - हाजीपुर। इत्यादि।

Saturday, May 10, 2014

क्या नरेन्द्र मोदी 1977 को दोहराएंगे ?


1977 में पहली बार केंद्र में गैर-काँग्रेसी सरकार बनी, जब जनता पार्टी ने सरकार बनायीं थी। जनता पार्टी इंदिरा गांधी के प्रधान मंत्रित्व काल में 1974 में लागू की गयी आपातकाल की ज्यादतियों के विरुद्ध कई पार्टियों के साथ आने पर बनी थी। चौ चरण सिंह के नेतृत्व की भारतीय लोक दल जिसमें भारतीय क्रांति दल(चौ चरण सिंह), स्वतन्त्र पार्टी (गायत्री देवी, मीनू मसानी, पीलू मोदी आदि), सोशलिस्ट पार्टी ( जे पी , जॉर्ज फर्नांडिस आदि), उत्कल काँग्रेस (बीजू पटनायक), भारतीय जन संघ (अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी), काँग्रेस(ओ) (मोरारजी देसाई, नीलम संजीव रेड्डी, सत्येन्द्र नारायण सिन्हा आदि), काँग्रेस फॉर डेमोक्रसी (जगजीवन राम, हेमवती नंदन बहुगुणा आदि) तथा काँग्रेस पार्टी से विद्रोह करने वाले चन्द्रशेखर, कृष्णकांत, मोहन धारिया, रामधन, चंद्रजीत यादव आदि शामिल हुए। बाद में काँग्रेस(अर्स) के देवराज अर्स भी शमिल हो गये।

1977 में 16 से 20 मार्च के बीच लोक सभा चुनाव हुए।1977 के चुनाव में 32 करोड़ मतदाताओं से 60% ने वोट किया। 23 मार्च को घोषित परिणाम में कह गया की 43.2% लोकप्रिय वोट और 271 सीटें हासिल करके जनता पार्टी ने एक व्यापक और अभूतपूर्व विजय हासिल की थी। अकाली दल और कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी के समर्थन के साथ, यह एक दो तिहाई, या 345 सीटों की पूर्ण बहुमत बन चुक था। कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी ने 28 सीटें जीती और जगजीवन राम एक राष्ट्रीय दलित नेता के रूप में जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों को दलित वोट का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मिलने के लिये काफी बड़ा प्रभाव डाला था।

इसके विपरीत दक्षिण भारत में जहाँ इमरजेंसी का क़ोई खास प्रभाव नहीं था, वहाँ मुख्य रूप से कांग्रेस पार्टी ने 153 सीटों को जीता। जनता पार्टी भारत के दक्षिणी राज्यों से केवल छह सीटें जीती। हालांकि, जनता पार्टी के उम्मीदवारों ने उत्तरी "हिंदी बेल्ट",विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार में कांग्रेस के उम्मीदवारों को हरा दिया। चुनाव का सबसे चौंकाने वाला परिणामों में से एक रायबरेली क था जहाँ कॉँग्रेस की अध्यक्षा और प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी अपने 1971 चुनाव से प्रतिद्वंदी रज नारायण से 55,200 मतों के अंतर से हार गयी। कांग्रेस उत्तर प्रदेश में कोई सीट जीत नहीं था और जनता उम्मीदवारों द्वारा 10 राज्यों और क्षेत्रों से उसका नामो- निशान मिटा दिया गया था।

इस तरह 1989 के लोक सभा चुनाव में विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुवाई में जनता पार्टी ने 17.79 % के वोटों के साथ 143 जीता। इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 11.36 % वोट एवं 85 सीटें प्राप्त हुई। वाम दलों में सी पी आई को 2.57 % वोट और 12 सीट तथा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को 6.33 % वोट एवं 33 सीट मिली। इस तरह 39.33 % वोट और 197 सीटों के साथ सबसे बड़ा दल होने के बावजूद भा ज पा और वाम दलों के सहयोग से वी पी सिंह के नेतृत्व में केन्द्र में जनता दल कि गैर काँग्रेसी सरकर बनी।

1999 के लोक सभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी को 23.7% वोट और 182 सीटें मिली। सहयोगी दलों के साथ NDA को 40.8% वोट और 299 सीटें मिली।




अब 16 मई का इंतज़ार है और देखना है की नरेन्द्र मोदी के लहर से भा ज पा और NDA को कितने प्रतिशत वोट और सीटेँ मिलती है।

Sunday, March 23, 2014

शहीद दिवस - 23 मार्च : भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को श्रद्धांजलि।


सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है ।
देख सकता है तो देख ले तू भी ऐ आसमान ,
हौसला ये देख कर क़ातिल बड़ी मुश्किल में है।।

23 मार्च, 1931 के तड़के सुबह भगत सिंह , सुखदेव थापड़ और शिवराम राजगुरु को लाहौर सेंट्रल जेल में फाँसी दे दी गई थी।

सरदार भगतसिंह का नाम अमर शहीदों में सबसे प्रमुख रूप से लिया जाता है। भगतसिंह का जन्म 28 सितंबर, 1907 को पंजाब के जिला लायलपुर में बंगा गांव (जो अभी पाकिस्तान में है) के एक देशभक्त सिख परिवार में हुआ था,जिसका अनुकूल प्रभाव उन पर पड़ा था। उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था।
भगत सिंह भारत के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी थे। भगतसिंह ने देश की आज़ादी के लिए जिस साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुक़ाबला किया, वह आज के युवकों के लिए एक बहुत बड़ा आदर्श है। इन्होंने केन्द्रीय संसद (सेण्ट्रल असेम्बली) में बम फेंककर भी भागने से मना कर दिया। जिसके फलस्वरूप इन्हें २३ मार्च, १९३१ को इनके दो अन्य साथियों, राजगुरु तथा सुखदेव के साथ फाँसी पर लटका दिया गया। सारे देश ने उनके बलिदान को बड़ी सिद्दत से याद करते हैं। काकोरी काण्ड में ४ क्रान्तिकारियों को फाँसी व १६ अन्य को कारावास की सजाओं से भगत सिंह इतने अधिक उद्विग्न हुए कि उन्होंने १९२८ में अपनी पार्टी नौजवान भारत सभा का हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन में विलय कर दिया और उसे एक नया नाम दिया हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन। पहले लाहौर में साण्डर्स-वध और उसके बाद दिल्ली की केन्द्रीय असेम्बली में चन्द्रशेखर आजाद व पार्टी के अन्य सदस्यों के साथ बम-विस्फोट करके ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध खुले विद्रोह को बुलन्दी प्रदान की।
सुखदेव थापर का जन्म पंजाब के शहर लायलपुर में श्रीयुत् रामलाल थापर व श्रीमती रल्ली देवी के घर विक्रमी सम्वत १९६४ के फाल्गुन मास में शुक्ल पक्ष सप्तमी तदनुसार १५ मई १९०७ को अपरान्ह पौने ग्यारह बजे हुआ था । जन्म से तीन माह पूर्व ही पिता का स्वर्गवास हो जाने के कारण इनके ताऊ अचिन्तराम ने इनका पालन पोषण करने में इनकी माता को पूर्ण सहयोग किया। सुखदेव की तायी जी ने भी इन्हें अपने पुत्र की तरह पाला। इन्होंने भगत सिंह, कॉमरेड रामचन्द्र एवम् भगवती चरण बोहरा के साथ लाहौर में नौजवान भारत सभा का गठन किया था ।
लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिये जब योजना बनी तो साण्डर्स का वध करने में इन्होंने भगत सिंह तथा राजगुरु का पूरा साथ दिया था। यही नहीं, सन् १९२९ में जेल में कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार किये जाने के विरोध में राजनीतिक बन्दियों द्वारा की गयी व्यापक हड़ताल में बढ-चढकर भाग भी लिया था । गान्धी-इर्विन समझौते के सन्दर्भ में इन्होंने एक खुला खत गान्धी के नाम अंग्रेजी में लिखा था जिसमें इन्होंने महात्मा जी से कुछ गम्भीर प्रश्न किये थे। उनका उत्तर यह मिला कि निर्धारित तिथि और समय से पूर्व जेल मैनुअल के नियमों को दरकिनार रखते हुए २३ मार्च १९३१ को सायंकाल ७ बजे सुखदेव, राजगुरु और भगत सिंह तीनों को लाहौर सेण्ट्रल जेल में फाँसी पर लटका कर मार डाला गया। इस प्रकार भगत सिंह तथा राजगुरु के साथ सुखदेव भी मात्र २३वर्ष की आयु में शहीद हो गये ।
हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी की पहली बैठक में सुखदेव शामिल नहीं थे। बैठक में भगत सिंह ने कहा कि सेंट्रल असेंबली में बम वह फेंकेंगे। लेकिन नेतृत्व संभाल रहे चंद्रशेखर ‌‌‌आज़ाद ने उन्हें इजाजत नहीं दी और कहा कि पार्टी को उनकी बहुत जरूरत है। दूसरी बैठक में सुखदेव पहुंचे। ‌‌‌उन्होंने बम न फेंकने पर भगत सिंह को ताना दिया। उन्होंने कहा कि तुम्हारे अंदर जिंदगी जीने की ललक जाग उठी है इसलिए तुम बम नहीं फेंकना चाहते। इस पर भगत सिंह ने कहा कि बम वह ही फेंकेंगे और अपनी गिरफ्तारी भी देंगे। बैठक के बाद अगले दिन जब सब मिले तो सुखदेव की आंखों पर सूजन थी। वे भगत को ‌‌‌ ताना देकर रातभर सो नहीं पाए। उन्हें अहसास हो गया कि गिरफ्तारी का मतलब फांसी है। सुखदेव ने भगत से माफी मांगी। सुखदेव ने सांडर्स हत्याकांड में भगत सिंह और राजगुरु का साथ दिया। उन्हें भी भगत और राजगुरु के साथ फांसी की सजा सुनाई गई थी।
शिवराम हरि राजगुरु (मराठी: शिवराम हरी राजगुरू, जन्म:१९०८-मृत्यु:१९३१) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख क्रान्तिकारी थे । इन्हें भगत सिंह और सुखदेव के साथ २३ मार्च १९३१ को फाँसी पर लटका दिया गया था । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में राजगुरु की शहादत एक महत्वपूर्ण घटना थी ।
शिवराम हरि राजगुरु का जन्म भाद्रपद के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी सम्वत् १९६५ (विक्रमी) तदनुसार सन् १९०८ में पुणे जिला के खेडा गाँव में हुआ था । ६ वर्ष की आयु में पिता का निधन हो जाने से बहुत छोटी उम्र में ही ये वाराणसी विद्याध्ययन करने एवं संस्कृत सीखने आ गये थे । इन्होंने हिन्दू धर्म-ग्रंन्थों तथा वेदो का अध्ययन तो किया ही लघु सिद्धान्त कौमुदी जैसा क्लिष्ट ग्रन्थ बहुत कम आयु में कण्ठस्थ कर लिया था। इन्हें कसरत (व्यायाम) का बेहद शौक था और छत्रपति शिवाजी की छापामार युद्ध-शैली के बडे प्रशंसक थे ।
वाराणसी में विद्याध्ययन करते हुए राजगुरु का सम्पर्क अनेक क्रान्तिकारियों से हुआ । चन्द्रशेखर आजाद से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उनकी पार्टी हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से तत्काल जुड़ गये। आजाद की पार्टी के अन्दर इन्हें रघुनाथ के छद्म-नाम से जाना जाता था; राजगुरु के नाम से नहीं। पण्डित चन्द्रशेखर आज़ाद, सरदार भगत सिंह और यतीन्द्रनाथ दास आदि क्रान्तिकारी इनके अभिन्न मित्र थे। राजगुरु एक अच्छे निशानेबाज भी थे। साण्डर्स का वध करने में इन्होंने भगत सिंह तथा सुखदेव का पूरा साथ दिया था जबकि चन्द्रशेखर आज़ाद ने छाया की भाँति इन तीनों को सामरिक सुरक्षा प्रदान की थी।
२३ मार्च १९३१ को इन्होंने भगत सिंह तथा सुखदेव के साथ लाहौर सेण्ट्रल जेल में फाँसी के तख्ते पर झूल कर अपने नाम को हिन्दुस्तान के अमर शहीदों की सूची में अहमियत के साथ दर्ज करा दिया ।

Tuesday, January 14, 2014

मकर संक्रान्ति की शुभकामनायें- क्या अब सक्रांति १५ जनवरी को होगा?


मकर संक्रान्ति की शुभकामनायें-
क्या अब सक्रांति १५ जनवरी को होगा?


मकर संक्रान्ति हिन्दुओं का प्रमुख पर्व है। मकर संक्रान्ति पूरे भारत और नेपाल में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। पौष मास में जब सूर्य मकर राशि पर आता है तभी इस पर्व को मनाया जाता है। यह त्योहार जनवरी माह के चौदहवें या पन्द्रहवें दिन ही पड़ता है क्योंकि इसी दिन सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है। मकर संक्रान्ति के दिन से ही सूर्य की उत्तरायण गति भी प्रारम्भ होती है। इसलिये इस पर्व को कहीं-कहीं उत्तरायणी भी कहते हैं। तमिलनाडु में इसे पोंगल नामक उत्सव के रूप में मनाते हैं जबकि कर्नाटक, केरल तथा आंध्र प्रदेश में इसे केवल संक्रांति ही कहते हैं। मकर संक्रांति ऐसा दिन है, जबकि धरती पर अच्छे दिन की शुरुआत होती है। ऐसा इसलिए कि सूर्य दक्षिण के बजाय अब उत्तर को गमन करने लग जाता है।

जब तक सूर्य पूर्व से दक्षिण की ओर गमन करता है तब तक उसकी किरणों का असर खराब माना गया है, लेकिन जब वह पूर्व से उत्तर की ओर गमन करते लगता है तब उसकी किरणें सेहत और शांति को बढ़ाती हैं।

भगवान श्रीकृष्ण ने भी उत्तरायण का महत्व बताते हुए गीता में कहा है कि उत्तरायण के छह मास के शुभ काल में, जब सूर्य देव उत्तरायण होते हैं और पृथ्वी प्रकाशमय रहती है तो इस प्रकाश में शरीर का परित्याग करने से व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं होता, ऐसे लोग ब्रह्म को प्राप्त हैं। इसके विपरीत सूर्य के दक्षिणायण होने पर पृथ्वी अंधकारमय होती है और इस अंधकार में शरीर त्याग करने पर पुनः जन्म लेना पड़ता है।



कुछ ज्योतिषियों का मनना जै कि मकर संक्राति का पर्व 15 जनवरी माघ कृष्ण पक्ष सप्तमी को मनाया जाएगा। ज्योतिषाचार्य डॉ. उद्धव श्याम केसरी ने बताया कि भारत के प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्यो व पंचागों के आधार पर पृथ्वी में कपंन आने से मकर संक्राति की तारीख में अंतर पड़ रहा है।

हर चौथे वर्ष सूर्य एवं पृथ्वी के बीच 20 व 22 मिनट के अंतर आने से यह बढ़ते हुए 60 से 70 वर्षों में एक दिन के बराबर हो जाता है। आने वाले सालों में यह पर्व 15 जनवरी को पड़ेगा।

मकर संक्राति पर सू्‌र्य देव के मकर राशि में प्रवेश करने के बाद ही पुण्यकारी फल मिलता है। इस दिन पवित्र नदियों में स्नान, तिल से बनी हुई वस्तुओं का दान एवं सेवन, जप,तप, पूजा पाठ विशेष फलदायी व पुण्यकारी होता है।

वहीं इस पर्व को पंजाब में लोहड़ी, दक्षिण भारत में पोंगल, यूपी व बिहार में खिचड़ी के नाम से जाना जाता है।

Sunday, January 12, 2014

स्वामी विवेकानन्द की 151 वे जयन्ती पर उनका नमन - Swami Vivekanand Remembered.


जब सन्‌ १८९३ में शिकागो (अमरीका) में विश्व धर्म परिषद् में स्वामी विवेकानन्द भारत के प्रतिनिधि के रूप में अपने भाषण की शुरुआत "मेरे अमरीकी भाइयो एवं बहनों" के साथ कि तो उनके संबोधन के इस प्रथम वाक्य ने सबका दिल जीत लिया था। तीन वर्ष वे अमरीका में रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान की। उनकी वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहाँ के मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया।

स्वामी विवेकानन्द का जन्म १२ जनवरी सन् १८६३ (विद्वानों के अनुसार मकर संक्रान्ति संवत् १९२०) कोकलकत्ता में हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। 1879 में वे प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिए, 1880 में जनरल असेम्बली इंस्टीट्यूशन में प्रवेश लिए, नवंबर 1881 में उनकी रामकृष्ण परमहंस से प्रथम भेंट हुई, 1882-86 रामकृष्ण परमहंस से सम्बद्ध रहे,1884 स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की और उसी वर्ष उनके पिता का स्वर्गवास हुआ। २५ वर्ष की अवस्था में नरेन्द्र ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिए थे। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे।

विवेकानंद ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्व भर में है। जीवन के अन्तिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा-"एक और विवेकानन्द चाहिये, यह समझने के लिये कि इस विवेकानन्द ने अब तक क्या किया है।" उनके शिष्यों के अनुसार जीवन के अन्तिम दिन ४ जुलाई १९०२ को भी उन्होंने अपनी ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रात: दो तीन घण्टे ध्यान किया और ध्यानावस्था में ही अपने ब्रह्मरन्ध्र को भेदकर महासमाधि ले ली। बेलूर में गंगा तट पर चन्दन की चिता पर उनकीअंत्येष्टि की गयी। इसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का सोलह वर्ष पूर्व अन्तिम संस्कार हुआ था।

उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मन्दिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानन्द तथा उनके गुरु रामकृष्ण के सन्देशों के प्रचार के लिये १३० से अधिक केन्द्रों की स्थापना की।

Swami Vivekananda (12 January 1863 – 4 July 1902), born Narendranath Dutta, was the chief disciple of the 19th century saint Ramakrishna Paramahansa and the founder of the Ramakrishna Math and the Ramakrishna Mission. He is considered a key figure in the introduction of Indian philosophies of Vedanta and Yoga to the "Western" World, mainly in America and Europe and is also credited with raising interfaith awareness, bringing Hinduism to the status of a major world religion during the end of the 19th century C.E. Vivekananda is considered to be a major force in the revival of Hinduism in modern India. He is perhaps best known for his inspiring speech which began: "Sisters and Brothers of America," through which he introduced Hinduism at the Parliament of the World's Religions at Chicago in 1893.