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New Delhi, NCR of Delhi, India
I am an Indian, a Yadav from (Madhepura) Bihar, a social and political activist, a College Professor at University of Delhi and a nationalist.,a fighter,dedicated to the cause of the downtrodden.....

Sunday, August 24, 2014

25 अगस्त : सामाजिक न्याय के प्रणेता स्व बी पी मंडल की जयन्ती पर।

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और भारत सरकार के पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष रहे स्व बी पी मंडल की जयन्ती बिहार सरकार के राजकीय समारोह के तौर पर उनके पैतृक गाँव मुरहो (मधेपुरा) और राजधानी पटना में मनाया जाता है।

स्व बिन्ध्येश्वरी प्रसाद मंडल का जन्म 25 अगस्त,1918 को बनारस में हुआ था। वे बिहार के आधुनिक इतिहास में पिछड़े वर्ग के और यादव समाज के संभवतः प्रथम क्रन्तिकारी व्यकित्व, मुरहो एस्टेट के ज़मींदार होते हुए भी स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रीय और कांग्रेस पार्टी में बिहार से स्थापना सदस्यों में एक, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, बिपिन चन्द्र पाल, सच्चिदानंद सिन्हा जैसे प्रमुख नेताओं के साथी, 1907 से 1918 तक बिहार प्रांतीय कांग्रेस कमिटी और ए आई सी सी के बिहार से निर्वाचित सदस्य, 1911 में गोप जातीय महासभा (बाद में यादव महासभा) की संस्थापक स्व रासबिहारी लाल मंडल के सबसे छोटे पुत्र थे। रासबिहारी बाबू यादवों के लिए जनेऊ धारण आन्दोलन और 1917 में मोंटेग-चेल्म्फोर्ड समिति के समक्ष यादवों के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करते हुए, वायसरॉय चेल्म्फोर्ड को परंपरागत 'सलामी'देने की जगह उनसे हाथ मिलते हुए जब यादवों के लिए नए राजनैतिक सुधारों में उचित स्थान और सेना में यादवों के लिए रेजिमेंट की मांग किए थे। 1911 में सम्राट जार्ज पंचम के हिंदुस्तान में ताजपोशी के दरबार में प्रतिष्टित जगह से शामिल हो कर वह उन अँगरेज़ अफसरों को भी दंग कर दिए जिनके विरुद्ध वे वर्षों से कानूनी लड़ाई लड़ रहे थे।1917 में कांग्रेस के कलकत्ता विशेष अधिवेशन में वे सबसे पहले पूर्ण स्वराज्य की मांग की थी। कलकत्ता से छपने वाली हिंदुस्तान का तत्कालीन प्रतिष्टित अंग्रेजी दैनिक अमृता बाज़ार पत्रिका ने रासबिहारी लाल मंडल की अदम्य साहस और अभूतपूर्व निर्भीकता की प्रशंसा की और अनेक लेख और सम्पादकीय लिखी, और दरभंगा महराज ने उन्हें 'मिथिला का शेर' कह कर संबोधित किया था। 27 अप्रैल, 1908 के सम्पादकीय में अमृता बाज़ार पत्रिका ने कलकत्ता उच्च न्यायलय के उस आदेश पर विस्तृत टिप्पणी की थी जिसमें भागलपुर के जिला पदाधिकारी लायल के रासबिहारी बाबू के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित व्यवहार को देखते हुए उनके विरुद्ध सभी मामलों पर संज्ञान लिया और उन मामलों को रासबिहारी बाबू के वकील मिस्टर जैक्सन के निवेदन पर दरभंगा हस्तांतरित कर दिया था।

1918 में बनारस में ५१ वर्ष की आयु में जब रासबिहारी बाबू का निधन हुआ तो वहीँ बी पी मंडल का जन्म हुआ। रासबिहारी लाल मंडल के बड़े पुत्र भुब्नेश्वरी प्रसाद मंडल थे जो १९२४ में बिहार-उड़ीसा विधान परिषद् के सदस्य थे, तथा १९४८ में अपने मृत्यु तक भागलपुर लोकल बोर्ड (जिला परिषद्) के अध्यक्ष थे। दूसरे पुत्र कमलेश्वरी प्रसाद मंडल आज़ादी की लड़ाई में जय प्रकाश बाबू वगैरह के साथ गिरफ्तार हुए थे और हजारीबाग सेन्ट्रल जेल में थे और १९३७ में बिहार विधान परिषद् के सदस्य चुने गए थे।

कहते हैं की एक समय कलकत्ता में रासबिहारी बाबू से राजनैतिक रूप से जुड़े प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के कारण मधेपुरा विधान सभा से 1952 के प्रथम चुनाव में बी पी मंडल काँग्रेस के प्रत्याशी बने और 1952 में बहुत काम उम्र में मधेपुरा विधान सभा से सदस्य चुने गए। 1962 में पुनः चुने गए और 1967 में मधेपुरा से लोक सभा सदस्य चुने गए1965 में मधेपुरा क्षेत्र के पामा गाँव में हरिजनों पर सवर्णों एवं पुलिस द्वारा अत्याचार पर वे विधानसभा में गरजते हुए कांग्रेस को छोड़ सोशिअलिस्ट पार्टी में आ चुके थे। बड़े नाटकीय राजनैतिक उतार-चढ़ाव के बाद १ फ़रवरी,१९६८ में बिहार के पहले यादव मुख्यमंत्री बने। इसके लिए उन्होंने सतीश बाबू को एक दिन के लिए मुख्यमंत्री बनवाए। अतः सतीश बाबू को एक दिन के लिए मुख्यमंत्री बनाने वाले स्व बी पी मंडल ही थे। बी पी मंडल ६ महीने तक सांसद थे, और बिहार सरकार में स्वास्थ्य मंत्री भी थे। वे राम मनोहर लोहिया जी एवं श्रीमती इंदिरा गाँधी की इच्छा के विरुद्ध बिहार में पहले पिछड़े समाजके मुख्यमंत्री बनने जा रहे थे। परन्तु विधानसभा में बहुमत के बावजूद तत्कालीन राज्यपाल अयंगर साहेब रांची जाकर बैठ गए और मंडल जी को शपथ दिलाने से इस आधार पर इंकार कर दिया कि बी पी मंडल बिहार में बिना किसी सदन के सदस्य बने ६ महीने तक मंत्री रह चुके है। परन्तु बी पी मंडल ने राज्यपाल को चुनौती दी और इस परिस्थिति से निकलने के लिए तय किया गया की सतीश बाबू एक दिन के लिए मुख्यमंत्री बन कर इस्तीफा देंगे जिससे बी पी मंडल के मुख्यमंत्री बनने में राज्यपाल द्वारा खड़ा किया गया अरचन दूर किया जा सके। अब इंदिरा गाँधी और लोहिया जी सभी मंडल जी के व्यक्तित्व से डरते थे और नहीं चाहते थे की सतीश बाबू इस्तीफा दें। परन्तु सतीश बाबू ने बी पी मंडल का ही साथ दिया। आगे की कहानी और दिलचस्प है। उन्ही दिनों बरौनी रिफायनरी में तेल का रिसाव गंगा में हो गया और उसमें आग लग गयी। बिहार विधान सभा में पंडित बिनोदानंद झा ने कहा कि शुद्र मुख्यमंत्री बना है तो गंगा में आग ही लगेगी!

साक्ष्य तो इस प्रकरण का बिहार विधानसभा के रिकार्ड में है - बात पहले बिहार विधान सभा की है, जब स्व बी पी मंडल ने आपत्ति की थी कि यादवों के लिए विधान सभा में 'ग्वाला' शब्द का प्रयोग किया गया।सभापति सहित कई सदस्यों ने कहा की यह असंसदीय कैसे हो सकता है क्योंकि यह शब्दकोष (Dictionary) में लिखा हुआ है। स्व मंडल ने कुछ गालियों का उल्लेख करते हुए कहा कि ये भी तो शब्दकोष (Dictionary) में है, फिर इन्हें असंसदीय क्यों माना जाता है. सभापति ने स्व मंडल की बात मानते हुए, यादवों के लिए 'ग्वाला' शब्द के प्रयोग को असंसदीय मान लिया। लेकिन उन दिनों किन जातिवादी हालातों में बाते हो रही थी, इसका अंदाज़ मुश्किल है।

१९६८ में उपचुनाव जीत कर पुनः लोक सभा सदस्य बने।१९७२ में मधेपुरा विधान सभा से सदस्य चुने गए। १९७७ में जनता पार्टी के टिकट पर मधेपुरा लोक सभा से सदस्य बने। १९७७ में जनता पार्टी के बिहार संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष के नाते लालू प्रसाद को कर्पूरी ठाकुर और सत्येन्द्र नारायण सिंह के विरोध के बावजूद छपरा से लोक सभा टिकट मंडल जी ने ही दिया। १९७८ में कर्णाटक के चिकमंगलूर से श्रीमती इंदिरा गाँधी के लोक सभा में आने पर जब उनकी सदस्यता रद्द की जा रही थी, तो मंडल जी ने इसका पुरजोर विरोध किया। १.१.१९७९ को प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई ने बी पी मंडल को पिछड़ा वर्ग आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया, जिस जबाबदेही को मानल जी ने बखूबी निभाया।इनके दिए गए रिपोर्ट को लाख कोशिश के बावजूद सर्वोच्च न्यायलय में ख़ारिज नहीं किया जा सका।खैर, उसके बाद की घटनाएं तो तात्कालिक इतिहास में दर्ज है और जो हममें से बहुतों को अच्छी तरह याद है.

स्व बी पी मंडल जी की मृत्यु १३ अप्रैल.१९८२ को ६३ वर्ष की आयु में हो गयी।

स्व बी पी मंडल के जयंती पर उनकी स्मृति को अनेकों बार नमन.

Thursday, August 21, 2014

टाई और अफसर :UPSC & C-SAT


काँग्रेस मुक्त भारत की बात तब बेईमानी लगती है, जब हम यह देखते हैं कि जहाँ एक ओर जनता ने काँग्रेस को उखाड़ फेंका, वहीँ नई सरकार कभी काँगेस के फैसले को मानने का बहाना देती है तो कभी काँग्रेस द्वारा लाए गए बेईमान अधिकारीयों और सदस्यों को ही पदोन्नति दे देती है।

16 अगस्त को अध्यक्ष डी पी अग्रवाल के कार्यकाल समाप्त होने पर मोदी सरकार को ठेंगा दिखा चुके वर्तमान संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) के कुछ दागियों सहित पंक्ति में से रजनी राज़दान को अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया, हालाँकि अगर सरकार चाहती तो सीधे तौर पर नए अध्यक्ष की नियुक्ति कर सकती थी। लेकिन मंत्री जितेंद्र सिंह जम्मू कश्मीर से हैं और मैडम भी वहीँ से हैं तो मामला तय हो गया हो।

अब इन मोहतरमा का एक वाकया C-SAT आंदोलनकारियों के बीच चर्चा का विषय है।

सिविल सेवा परीक्षा के किसी एक साक्षात्कार (Interview) के दौरान बाढ़मेड़ (राजस्थान) का एक अभ्यार्थी पूरे तैयारी के साथ टाई वैगेरह लगाकर उपस्थित हुआ। मैडम ने सबसे पहले उसे टाई खोलने को कहा। जब वह टाई खोल लिया तो फिर उसे बाँधने को कहा। बेचारा ग्रामीण परिवेश का पढ़ाकू नौजवान किसी से टाई बंधवा कर आया था। संकोच और शर्म से उसका बुरा हाल हो रहा था और तब उसे कहा गया की टाई भी बांधने नहीं आता है और चले अफसर बनने !

इसी घटिया सोच, भेदभावपूर्ण रवैये और बेईमानी के विरुद्ध युवाओं का संघ लोक सेवा आयोग के विरुद्ध मुहीम है जिसका तात्कालिक मुद्दा C-SAT और भारतीय भाषा का पश्न बन गया है। पर अफ़सोस मंत्री जीतेन्द्र सिंह हैं तो मोदी सरकार में मंत्री परन्तु टाई लगाकर काँग्रेसी रंग में ही रँगे, युवाओं के माँग को अफसरी अंदाज़ में घालमेल कर दिया है। सन 2009 में भी सिविल सेवा परीक्षा के परिणाम में भारी गड़बड़ियों के विरूद्ध संसद से सड़क तक के संघर्ष को दबा दिया गया था। 2010 और 2013 में परीक्षा के सिलेबस और विधि में बिना कोई व्यापक सलाह अनैतिक और विद्वेषपूर्ण परिवर्तन पर तमाम विरोध को मनमाने ढंग से ख़ारिज कर दिया गया था।

तमाम साथी 25 अगस्त को UPSC के सामने फिर से प्रदर्शन करेंगे। आंदोलन में सहयोग और समन्वय कर रहे स्वामी श्रद्धानन्द कॉलेज के साथी प्रोफ़ेसर अमरनाथ झा (Amar Nath Jha) ने बताया की अब यह आंदोलन राष्ट्रव्यापी होगा और मा अन्ना हज़ारे का भी सहयोग मिल सकता है।

जो यह समझते हैं की संघ लोक सेवा आयोग के आंदोलन में शामिल होना या समर्थन देना भा ज पा विरोधी है, उन्हें यह बताना चाहूँगा की संघ के वरिष्ठ स्वयंसेवक अधिकारी युवाओं के माँग को माने जाने के पक्ष में हैं।

https://www.google.co.in/url?sa=t&rct=j&q=&esrc=s&source=video&cd=1&cad=rja&uact=8&ved=0CBwQtwIwAA&url=http%3A%2F%2Fwww.youtube.com%2Fwatch%3Fv%3DMOSigv2emvE&ei=PX71U43YHonn8AXl8oCACw&usg=AFQjCNGbovGGUulkQeyOPj5CSfrih-kdVw&sig2=R9Ade2orJdPTqxFQlUP21A&bvm=bv.73231344,d.dGc

Sunday, August 10, 2014

रक्षाबंधन पर सभी देशवासी, भाई-बहन को शुभकामनाएँ :


रक्षाबन्धन एक हिन्दू त्यौहार है जो प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। श्रावण (सावन) में मनाये जाने के कारण इसे श्रावणी (सावनी) या सलूनो भी कहते हैं। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में जन जागरण के लिये भी इस पर्व का सहारा लिया गया। श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंग-भंग का विरोध करते समय रक्षाबन्धन त्यौहार को बंगाल निवासियों के पारस्परिक भाईचारे तथा एकता का प्रतीक बनाकर इस त्यौहार का राजनीतिक उपयोग आरम्भ किया।

राखी का त्योहार कब शुरू हुआ यह कोई नहीं जानता। लेकिन भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव हावी होते नज़र आने लगे। भगवान इन्द्र घबरा कर बृहस्पति के पास गये। वहां बैठी इन्द्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मन्त्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति के हाथ पर बाँध दिया। संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इन्द्र इस लड़ाई में इसी धागे की मन्त्र शक्ति से ही विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बाँधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन,शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह समर्थ माना जाता है।

कहते हैं एक बार बाली रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया।[ङ] भगवान के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय बताया। उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई बनाया और अपने पति भगवान बलि को अपने साथ ले आयीं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी। विष्णु पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है कि श्रावण की पूर्णिमा के दिन भगवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिये फिर से प्राप्त किया था। हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है।

महाभारत में भी इस बात का उल्लेख है कि जब ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूँ तब भगवान कृष्ण ने उनकी तथा उनकी सेना की रक्षा के लिये राखी का त्योहार मनाने की सलाह दी थी। उनका कहना था कि राखी के इस रेशमी धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं। इस समय द्रौपदी द्वारा कृष्ण को तथा कुन्ती द्वारा अभिमन्यु को राखी बाँधने के कई उल्लेख मिलते हैं। महाभारत में ही रक्षाबन्धन से सम्बन्धित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तान्त भी मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया। कहते हैं परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना रक्षाबन्धन के पर्व में यहीं से प्रारम्भ हुई।

एक अन्य प्रसंगानुसार सिकन्दर की पत्नी ने अपने पति के हिन्दू शत्रु पुरूवास को राखी बाँधकर अपना मुँहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकन्दर को न मारने का वचन लिया। पुरूवास ने युद्ध के दौरान हाथ में बँधी राखी और अपनी बहन को दिये हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकन्दर को जीवन-दान दिया।
राजपूत जब लड़ाई पर जाते थे तब महिलाएँ उनको माथे पर कुमकुम तिलक लगाने के साथ साथ हाथ में रेशमी धागा भी बाँधती थी। इस विश्वास के साथ कि यह धागा उन्हे विजयश्री के साथ वापस ले आयेगा। राखी के साथ एक और प्रसिद्ध कहानी जुड़ी हुई है। कहते हैं, मेवाड़ की रानी कर्मावती को बहादुरशाह द्वारा मेवाड़ पर हमला करने की पूर्व सूचना मिली। रानी लड़ऩे में असमर्थ थी अत: उसने मुगल बादशाह हुमायूँ को राखी भेज कर रक्षा की याचना की। हुमायूँ ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुँच कर बहादुरशाह के विरूद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए कर्मावती व उसके राज्य की रक्षा की।

अनेक साहित्यिक ग्रन्थ ऐसे हैं जिनमें रक्षाबन्धन के पर्व का विस्तृत वर्णन मिलता है। इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण है हरिकृष्ण प्रेमी का ऐतिहासिक नाटक रक्षाबन्धन जिसका 1991 में 18वाँ संस्करण प्रकाशित हो चुका है। मराठी में शिन्दे साम्राज्य के विषय में लिखते हुए रामराव सुभानराव बर्गे ने भी एक नाटक की रचना की जिसका शीर्षक है राखी ऊर्फ रक्षाबन्धन। पचास और साठ के दशक में रक्षाबन्धन हिंदी फ़िल्मों का लोकप्रिय विषय बना रहा। ना सिर्फ़ 'राखी' नाम से बल्कि 'रक्षाबन्धन' नाम से भी कई फ़िल्में बनायीं गयीं।

भारत सरकार के डाक-तार विभाग द्वारा इस अवसर पर दस रुपए वाले आकर्षक लिफाफों की बिक्री की जाती हैं। लिफाफे की कीमत 5 रुपए और 5 रुपए डाक का शुल्क। इसमें राखी के त्योहार पर बहनें, भाई को मात्र पाँच रुपये में एक साथ तीन-चार राखियाँ तक भेज सकती हैं। डाक विभाग की ओर से बहनों को दिये इस तोहफे के तहत 50 ग्राम वजन तक राखी का लिफाफा मात्र पाँच रुपये में भेजा जा सकता है जबकि सामान्य 20 ग्राम के लिफाफे में एक ही राखी भेजी जा सकती है। यह सुविधा रक्षाबन्धन तक ही उपलब्ध रहती है। इण्टरनेट के आने के बाद कई सारी ई-कॉमर्स साइट खुल गयी हैं जो ऑनलाइन आर्डर लेकर राखी दिये गये पते पर पहुँचाती है।

Saturday, August 9, 2014

UPSC dares Modi Sarkar : rejects Jitendra Singh’s ‘little’ and misplaced concession to agitating students. Tainted Members rule the roost.



Congress is shedding crocodile tears, and BJP is behaving like UPA III, while the students who had hoped that with the coming of Modi Sarkar, the ‘injustices’ of UPSC will be put to order are feeling cheated.It would have been much more appreciated if instead of Madam Beniwal, Mr Aggarwal of UPSC would have been retired forcefully, ignoring the ‘constitutional’ guard they were carrying in their defense.

UPSC Chairman DP Agarwal, due to retire on 16th August, rejected even the little “piecemeal” solution offered by the NDA government to resolve the CSAT row. The Modi government had proposed on Monday that the controversial English comprehension questions in the CSAT paper need not be factored in while preparing the grades or the merit list. But a day before the government came out with its solution, the full bench of the UPSC met on Sunday and decided against tweaking or scrapping the CSAT or postponing the examination scheduled on August 24.

The meeting attended by all ten members and chaired by UPSC Chairman Prof. D P Agrawal decided that it being an autonomous body, they should not be “submissive.” The only concession was that they agreed to offer the aspirants was another chance, especially for those who had exhausted their six attempts before 2011 when the new CSAT format was introduced.The UPSC had conveyed its decision to the government and was surprised when Dr Jitendra Singh, Minister of State for Personnel, announced in the House that the section dealing with English comprehension will not be counted while calculating the marks.The government’s confusing proposal may become in fructuous unless the UPSC clears it, and as of now the UPSC is not inclined.

But behind the tall claims of ‘autonomy’ lies the controversial appointment of some members of this holy cow, i.e., UPSC, especially those who are tainted and unfit to be in the body which selects what Sardar Vallabh Bhai Patel called the ‘steel-frame’ of India. No wonder the steel-frame is now gathering rust.

At least three present members and to some extent the retiring Chairman may be considered controversial. It is indeed interesting how the Congress rushed through and appointed Prof Hem Chandra Gupta on last day of their Government, the 15th May, 2014, by asking the IIT administration to relieve him on a Gazetted Holiday (14th April, 2014). It may be noted that he was asked to leave the post of Vice-Chancellor within two months of his appointment as he created anarchy in the University.(He was VC of Ch Charan Singh University from July 2011 to September 2011). He was instrumental in ordering cutting of several trees during his tenure as Deputy Director (Administration) and due to such controversies he was not permitted to be join as NSIT as Director in 2009 by the Delhi Government. There was another controversy when he tried to mastermind his selection at NSIT against the AICTE approved process.

Other case of dubious appointments at UPSC is of Mr A P Singh, former Director, CBI. ().

Another controversial tainted Member is Mr Chhattar Singh, former Private Secretary to the Chief Minister of Haryana, who was rewarded for being facilitator to Mr Vadra.
Then, we have Modi Sarkar who forgets that when people voted for change, it was not just the Congress but also their highly corrupt practices and blatant nepotism.

All of them are strong votaries of C-SAT. I salute the students who have continued the struggle even at the cost of Modi Sarkar’s U-turn and the UPSCs expected reactionary approach.