महाराजा साहेब का जन्म २८ नवम्बर, १९०७ को हुआ था और वे १९२९ से १९४७ तक दरभंगा का राज (परमानेंट सेटलमेंट के तहत लगभग ६२०० वर्ग किलोमीटर की वृहत जमींदारी) के सरकार थे।
दरअसल राज दरभंगा से हमारे परिवार का वर्षों का सम्बन्ध है। मुरहो एस्टेट राज दरभंगा के अंतर्गत ही छोटी जमींदारी थी।
दरभंगा महाराजा सर लक्ष्मेश्वर सिंह बहादुर निःसंतान थे और उनकी मृत्यु के उपरांत उनके भाई महाराजा रामेश्वर सिंह बहादुर १८९८ से अपनी मृत्यु १९२९ तक राज दरभंगा के शासक थे। वे सिविल सेवा में होने के कारण भागलपुर में पदस्थापित भी थे जो उस समय मधेपुरा का मुख्यालय था। बिहार लैन्डहोल्ड्र्स एशोसिएशन और कांग्रेस में सक्रिय होने और गोपाल कृष्ण गोखले से मिलने जुलने के दौरान मुरहो के जमींदार बाबू रासबिहारी लाल मंडल का उनसे संपर्क हुआ। महाराजा ने अपने दरबार में आमंत्रित किया और दरबारियों ने अनुमान लगाया की रासबिहारी बाबू किसी बड़े रियासत के राजा हैं। खैर राजमाता ने रासबिहारी बाबू को अंग्रेज़ों को चुनौती देने की हिम्मत रखने पर "मिथिला का शेर" कह कर सम्बोधित किया था।
रासबिहारी बाबू के सबसे छोटे पुत्र स्व बी पी मंडल की शिक्षा राज दरभंगा हाईस्कूल के आवासीय व्यवस्था में हुआ था।
महाराजा कामेश्वर सिंह १९४० में ब्रिटेन के प्रधान मंत्री विंस्टन चर्चिल की भतीजी और एक मंजी हुई कलाकार कलेर शेरिडन से महात्मा गांधी की एक बुत बनवाया था। वे बड़े दिलदार व्यक्तित्व थे। उस समय एयर फ़ोर्स को तीन फाइटर प्लेन तौफे में दिया था। उनसे सहायता पाने वालों में महात्मा गांधी, बाबू राजेन्द्र प्रसाद, नेताजी सुभाष चन्द्र बॉस आदि शामिल थे। उन्होंने अपने शासकीय क्षेत्र में अनेक जूट, कॉटन, लोहा और स्टील, अखबार आदि अनेक उद्योग लगवाये। बी एच यू, अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय सहित अनेक विश्वविद्यालय को लाखो रुपये दान दिए।
बिहार और हिंदुस्तान के इस विभूति को उनके १०७ वे जयंति पर हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि।