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New Delhi, NCR of Delhi, India
I am an Indian, a Yadav from (Madhepura) Bihar, a social and political activist, a College Professor at University of Delhi and a nationalist.,a fighter,dedicated to the cause of the downtrodden.....

Thursday, August 30, 2018

Splendid speech by Dr Suraj Mandal on B P Mandal 100th Birth Anniversar...



पूरे देश में जगह जगह मंडल जयंती का सफल आयोजन हुआ। लखनऊ के उर्दू अकादमी में सामाजिक न्याय संगठन, सामाजिक न्याय मोर्चा और सोशलिस्ट आँगन के बैनर तले 25 अगस्त, 2018 को रामस्वरूप वर्मा और बीपी मंडल B.P.Mandal की जयंती मनाई गई। इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि पूर्व मंत्री सुखदेव राजभर जी थे साथ में कई जाने माने पत्रकार, प्रोफेसर, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ताओं का मंच पर जमावड़ा भी था। इस कार्यक्रम में सभी वक़्ताओ ने मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को पूरी तरह लागू न किये जाने की चिंता ज़ाहिर की साथ ही पिछडा-दलित-अल्पसंख्यक समाज के खिलाफ आरएसएस-भाजपा के सडयंत्र पर भी बात रखी। आरएसएस-भाजपा की पिछड़ो के प्रति नीति पर ज़्यादातर वक्ताओ ने एक स्वर में कहा कि पिछड़े समाज की सबसे ज्यादा विरोधी पार्टी भाजपा ही है। इस कार्यक्रम में उन सभी क्षेत्रीय दलों की आलोचनाओं हुई जिनकी राजनीति या यूँ कहें कि जिन्होंने मंडल की राजनीति के दम पर ही कई बार सत्ता का सुख भोगने का मौक़ा मिला लेकिन पिछड़े समाज का सम्पूर्ण उत्थान फिर भी सम्भव न हो सका। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रतन लाल Dr Ratan Lal ने कहा कि अखिलेश और मायावती ने एक्सप्रेसवे बनाकर लखनऊ से दिल्ली की दूरी छ: घंटे तो कम कर दी गई लेकिन मुझे इंतज़ार है कि सामाजिक न्याय एक्सप्रेसवे कब बनेगा? जिसपर चलकर दलित-पिछड़े-पासमांदा अपना संवैधानिक हक लेंगे। वही दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर Dr Suraj Yadav Mandal जी (बीपी मंडल के पौत्र) ने मंडल जयंती पर मनुवादियों द्वारा शुद्धिकरण की ओर ध्यान खिंचते हुए कहा कि अखिलेश यादव के सत्ता से बेदख़ल होने के बाद आठ दिनों तक मुख्यमंत्री आवास का शुद्धिकरण होता रहा बस इसलिये क्योंकि अखिलेश शुद्र थे। इससे ज्यादा शर्म की बात क्या होगी की हमारे समाज को इस तरह से मनुवादी लोग लगातार ज़लील करते रहे हैं? सामाजिक न्याय के प्रति बहुजन समाज को लगातार जागरूक कर रहे Manoj Socialist Yadav जी Frank Huzur शुक्रिया जिन्होंने इस कार्यक्रम का सफल आयोजन कराया। और इनके साथी अंकुश यादव Ankush Yadav , Maitreya Gautam Gorakhnath Yadav Sachendra Pratap Yadav जैसे युवाओं का भी शुक्रिया जिन्होंने अपना जिवन सामाजिक न्याय की अवधारणा को साकार करने के लिये समर्पित कर दिया है। जय मंडल, जय अम्बेडकर, जय भारत।

Tuesday, August 14, 2018

लाल क़िला पर राष्ट्रिय ध्वज :

क्या आपने कभी सोचा है कि देश के स्वंत्रता दिवस यानि 15 अगस्त को प्रधान मंत्री दिल्ली लाल क़िला पर ही क्यों राष्ट्रिय ध्वज फहराते हैं ? किसी अन्य ऐतिहासिक ईमारत या कोई बड़ी आधुनिक शासकीय बिल्डिंग या अपने कार्यालय पर ही क्यों नहीं ?
15 अगस्त पर लाल क़िले पर राष्ट्रिय ध्वज फहराए जाने के पीछे जन भावनायें, लाल क़िला का देश की सार्वभौमिकता और सम्प्रभुता का प्रतीक होना, ऐतिहासिक घटनाक्रम और सामाजिक मान्यताएँ हैं। किसी भौगोलिक क्षेत्र या जन समूह पर सत्ता या प्रभुत्व के सम्पूर्ण नियंत्रण पर अनन्य अधिकार को सम्प्रभुता (Sovereignty) कहा जाता है। सार्वभौम सर्वोच्च विधि निर्माता एवं नियंत्रक होता है यानि संप्रभुता राज्य की सर्वोच्च शक्ति है। चुकी अंग्रेज़ों से पहले भारत बादशाह मुग़ल साम्राज्य के शासक लाल क़िला में रहते थे, अतः यह हिंदुस्तान की सत्ता का सर्वोच्च स्थान या केंद्र, सम्प्रभुता का प्रतीक था।
इसे विस्तार से समझने के पहले इतना जान लें की ब्रिटिश साम्राज्य का भारत में मुक़म्मल शुरुआत 1858 में ब्रिटिश सेना द्वारा लाल क़िला पर कब्ज़ा करने के बाद, आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर को गिरफ्तार कर, लगभग सभी शाहजादों का क़त्ल करने के बाद और लाल क़िला पर ब्रिटिश यूनियन जैक (झंडा) के फहराने से शुरू हुई थी। वैसे तो 1757 में ब्रिटेन की व्यापार कम्पनी, ईस्ट इण्डिया कम्पनी, के फ़ौज द्वारा लार्ड क्लाइव के नेतृत्व में बंगाल के नवाब सिराज-उद-दउला को प्लासी के युद्ध में हराने के बाद से ही भारत में ब्रिटिश हुकूमत की नींव डाली जा चुकी थी। धीरे धीरे ईस्ट इण्डिया कम्पनी के ताक़त के आगे बंगाल के नवाब, मराठा, मैसूर के हैदर अली, टीपू सुल्तान, पंजाब के महाराज रंजीत सिंह और सिख शासक घुटने टेक दिए थे। कम्पनी राज से मुक्ति के लिए आखिरी और एक बड़ी संघर्ष 1857 के ग़दर के रूप में हुई। पर अन्ततः ब्रिटिश फिर जीत गए। और भारत का शासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी से सीधे ब्रिटिश राज के हाँथ में चली गई और ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया भारत की साम्राज्ञी घोषित की गयी। 1877, 1903 और 1911 तीन बार भारत में ब्रिटिश दरबार हुए, जब क्वीन विक्टोरिया, सम्राट जॉर्ज पंचम और क्वीन मेरी को भारत के सम्राट या सम्राज्ञी घोषित किये गए। इस बीच 1911 में ही दिल्ली के दरबार में यह घोषणा हुई कि भारत में ब्रिटिश भारत की राजधानी का स्थानांतरण कलकत्ता से दिल्ली की गई। राजधानी को दिल्ली में स्थानांतरित करने का निर्णय शहर के प्रतीकात्मक महत्व से प्रेरित था और इस बात से भी कि लोगों के दिल दिमाग में मुगलों की राजधानी दिल्ली ही भारत की राजधानी समझी जा रही थी।
हालाँकि आखिरी मुग़ल बादशाह के शासन के काल में जब मुग़ल हुकूमत मात्र 'लाल क़िला से पालम तक' थी, फिर भी लाल क़िला में रहने वाले बादशाह को भारत का शासक ही माना और जाना जाता था। इतिहासकारों के अनुसार लाल क़िला "ब्रिटिश शाही प्रभुत्व का सबसे प्रामाणिक प्रतीक" प्रतीत होता है - यह वह स्थान था जहां अंतिम मुगल सम्राट और 1857 के विद्रोह के प्रशंसित नेता की कोशिश की और निर्वासित किया गया था।
1857 के बाद लगभग एक शताब्दी के बाद फिर लाल किला स्वतंत्रता से पहले के वर्षों में क्षितिज पर उभरती है। 1940 के दशक में स्वतंत्रता आंदोलन की परिस्थितियों के साथ प्रतीत होता है कि मुगल सम्राट और उसके परिवार के जीवन में लोगों की रुचि बढ़ रही थी। लाल किले की पसंद भारत के प्रमुख सार्वजनिक कार्यक्रम के लिए साइट के रूप में "सीधे, प्रतीकात्मक रूप से, 1857 के ऐतिहासिक गलतियों को स्थापित करने की इच्छा का नतीजा नहीं था" - बल्कि लाल क़िला "परोक्ष रूप से 1857 की अव्यवस्थित विद्रोह की स्मृति के दमन से स्थापित ब्रिटिश भारत साम्राज्य की राजधानी में प्रमुख गैर औपनिवेश ईमारत और पहचान" के रूप में था।
1940 में सुभाष चंद्र बोस और उनके द्वारा स्थापित आज़ाद हिंद फौज या भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए) ने रंगून में बहादुर शाह जफर के कब्र से ही "दिल्ली चलो" का नारा दिया। नेताजी ने आज़ाद हिन्द फौज को सम्बोधित करते हुए कहा कि "आपका कार्य तब तक खत्म नहीं होगा जब तक कि हमारे सेना नायक पुरानी दिल्ली के लाल क़िले में ब्रिटिश साम्राज्य के कब्रिस्तान पर विजय परेड नहीं करती"।
इधर 1945-1946 के आईएनए ट्रायल (मुक़दमा) ने एक बार फिर लाल किले को स्पॉटलाइट में ले आया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, आईएनए के गिरफ्तार अधिकारियों पर दिसंबर 1945 में लाल किले में सार्वजनिक सैनिक मुक़दमा के लिए पर रखा गया था। तीन अधिकारियों, कर्नल शाह नवाज खान, कर्नल प्रेम कुमार सहगल और कर्नल गुरबक्श सिंह ढिल्लों को, जेल में परिवर्तित कर, वहां रखा गया था। पूरे देश का ध्यान तब लाल क़िले में चल रहे इस मुक़दमा पर था, जहाँ इन देशभक्तों में चल रहे मुक़दमें और उसमें बचाओ के लिए देश की भावनाएँ जुडी हुई थी। स्थिति यह थी कि लोग जबरन लाल क़िला पर धावा बोल सकते थे।
अतः अगस्त 1947 को, भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लाल क़िले के लाहौरी गेट के ऊपर भारतीय राष्ट्रीय ध्वज को फहराया। नेहरू अपने भाषण में नेताजी का विशेष उल्लेख किया, इस अवसर पर उनकी अनुपस्थिति पर अफ़सोस ज़ाहिर की। 15 अगस्त को पहली कैबिनेट की शपथ लेने के एक दिन बाद लाल क़िला पर ब्रिटिश ध्वज की जगह भारत के राष्ट्रीय झंडे को फहराए जाने से यह सुनिश्चित हो गया कि अब भारत का सार्वभौम सत्ता भारतीयों के हाँथ में वापस आ चुका है।
परन्तु आज लाल क़िला को ही रख रखाओ के नाम पर गिरवी पर रख दिया गया है। इससे न सिर्फ जनभावनाओं का अनादर हुआ है बल्कि भारत की सार्वभौमिकता और सम्प्रभुभता का हनन हुआ है।
आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर को गिरफ्तार कर, दिल्ली के खूनी दरवाजा पर उनके बच्चों को फांसी पर लटका कर, 1857 के गदर के सिपाहियों को सजा-ऐ-मौत देकर अंग्रेज़ों ने भारत के सम्प्रभुता का प्रतीक लाल किला पर अपना झंडा यूनियन जैक फहराया था। भारत को आज़ाद करने का सपना लिए सुभाष चंद्र बोस ने आज़ाद हिन्द फौज से यह कहते हुए कि "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा", "दिल्ली चलो" का नारा दिया था, जिसका मक़सद लाल क़िले पर तिरंगा फहराना था। परन्तु आज़ादी के संघर्ष और दी गयी हज़ारों शहीदों के शहादत की परवा किये बगैर, लाल क़िला को रखरखाव के नाम पर 25 करोड़ रुपये पर 5 साल के लिए एक कॉर्पोरेट डालमिया भारत को बेच दिया है।लाल क़िला पर पर्यटकों से होने वाली आमदनी 30 करोड़ रुपये सालाना है।
25 करोड़ में 5 साल के लिए डालमिया भारत कॉर्पोरेट को दे रहा है। उन्हें जो कोई हेरिटेज एक्सपर्ट नहीं हैं। उन्हें जो साधारण शब्दों में मुनाफाखोर हैं।
जैसे दिल्ली में विश्वविद्यालय मेट्रो को हीरो होण्डा मेट्रो के नाम का पट्टा लगा दिया गया है, वैसा ही कुछ देश के सम्प्रभुता का प्रतीक लाल क़िला का होगा।
यह सिर्फ निंदनीय ही नहीं, निश्चित तौर से राजद्रोह है।
क्या हमें देश की आज़ादी की लड़ाई फिर लड़नी है?