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New Delhi, NCR of Delhi, India
I am an Indian, a Yadav from (Madhepura) Bihar, a social and political activist, a College Professor at University of Delhi and a nationalist.,a fighter,dedicated to the cause of the downtrodden.....

Wednesday, September 19, 2018

#DUSU चुनावों में #ईवीएम: भारत के चुनाव आयोग का इस सम्बन्धी 13.9.2018 का बयान क्यों भ्रामक है?


चुनाव आयोग ने दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव में प्रयोग #ईवीएम से किसी तरह से लेने देने से इंकार किया है, जबकि पिछले ही वर्ष चुनाव आयोग की सहमति से दिल्ली विश्वविद्यालय को ईवीएम फिर से मुहैया किया गया। इसके पहले भी चुनाव आयोग के आदेश पर ही पहली बार सरकारी कंपनी ईसीआईएल ने दिल्ली विश्वविद्यालय को सन 2006 में ईवीएम सप्लाई किया था। कोई भी व्यक्ति या संस्था बिना चुनाव आयोग के आदेश के ईवीएम प्राप्त नहीं कर सकता।
कुछ तथ्य:
शैक्षणिक वर्ष 2005-2006 में स्वामी श्रद्धानन्द कॉलेज छात्र संघ के चुनाव अधिकारी के रूप में, मैंने ईवीएम मशीनों के द्वारा कॉलेज छात्र संघ चुनाव आयोजित करने के लिए ईवीएम मशीनों को उधार देने के लिए भारत के निर्वाचन आयोग से संपर्क किया था। वह पहली बार #ईवीएम का छात्र संघ चुनाव में प्रयोग होता।
चूंकि तब चुनाव बहुत नजदीक था,(2 सितंबर, 2005), अतः भारत का निर्वाचन आयोग, अपने दिनांक 25 अगस्त, 2005 के पत्र संख्या 51/8/4/2005-पीएलएन -4 से प्रिंसिपल, स्वामी श्रद्धानन्द कॉलेज को सूचित किया गया कि "आयोग आपके द्वारा अनुरोध किए गए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों को उधार देने की स्थिति में नहीं है।" (उस समय का, बतौर चुनाव अधिकारी, मेरे द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति की प्रति, संलग्न है।)
हालांकि, अगले वर्ष, 2006 में, दिल्ली विश्वविद्यालय ने घोषणा की कि आने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ (डीयूएसयू) चुनाव एक से अधिक तरीकों से ऐतिहासिक होंगे। हाई-टेक जाकर, वे पार्टियों को एसएमएस और ई-मेल जैसे दिन के संचार उपकरण का उपयोग पर ध्यान देने की इच्छा रखते हैं। परन्तु विशेष बात यह थी कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (#ईवीएम) का इस्तेमाल देश के विश्वविद्यालय चुनावों में पहली बार किया जाना था।(यह समाचार 'द हिंदू' समेत कई समाचार पत्रों में यह रिपोर्ट छपा था। 24 अगस्त, 2006 'द हिन्दू' अखबार का स्क्रीनशॉट संलग्न है। लिंक है: Electronic voting machines for DUSU elections now https://www.thehindu.com/…/electronic-vo…/article3095105.ece....। (परसों से द हिन्दू ने इस लिंक से समाचार हटा लिया है। )
चुनाव आयोग ने विश्वविद्यालय की जरूरतों के अनुरूप विशेष रूप से डिजाइन की गई मशीनों का आदेश दिया था।
दिल्ली विश्वविद्यालय के तत्कालीन प्रोक्टर प्रोफेसर गुरमीत सिंह, जो वर्तमान में पांडिचेरी विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में कार्यरत हैं, ने उस समय कहा था कि, "विश्वविद्यालय को केवल 18 अगस्त को ही ईवीएम मशीनों के लिए औपचारिक अनुमति मिली।... इस ईवीएम में हमारे लिए अलग आवश्यक सुविधाएं देनी हैं। अलग अलग पोस्ट के लिए कई छात्र चुनाव लड़ेंगे। मशीन का इस्तेमाल कॉलेज यूनियन चुनावों के लिए भी किया जाएगा, इसलिए हम उन आम मशीनों का इस्तेमाल नहीं कर सकते थे जिनका इस्तेमाल आम चुनावों के लिए किया जाता था।''
ऐसा कहा जाता था कि ईसीआईएल ने ईसीआई के निर्देशों पर ईवीएम को दिल्ली विश्वविद्यालय को आपूर्ति की थी। यह वास्तव में दिलचस्प है कि भारत के निर्वाचन आयोग ने दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ चुनावों में इस्तेमाल ईवीएम से किसी भी तरह से कोई लेने देने से इंकार कर दिया है। (चुनाव आयोग की 13.9.18 दिनांकित पत्र की प्रतिलिपि संलग्न है।)
उस समय दिल्ली विश्वविद्यालय ने मशीनों की लागत प्रत्येक मशीन के लिए अनुमानित राशि लगभग 10,000 रु प्रति मशीन माना था। प्रोफेसर गुरमीत सिंह ने कहा, "हम यह राशि अग्रिम एडवांस दे सकते हैं और फिर व्यय का एक हिस्सा कॉलेजों को स्थानांतरित कर सकते हैं। '
तदनुसार इसलिए सभी कालेजों को प्रत्येक चुनाव में #ईवीएम के इस्तेमाल के लिए कुछ राशि विश्वविद्यालय को देना पड़ता हैं। उदहारण के लिए पिछले वर्ष स्वामी श्रद्धानन्द कॉलेज छात्र संघ चुनाव के चुनाव अधिकारी के रूप में मैंने किंस्वे कैंप स्थित विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव कण्ट्रोल रूम में ईवीएम वापस सौंपते समय 34,000/ - रुपये का डिमांड ड्राफ्ट सौंप कर, रसीद प्राप्त की।
पिछले साल, ईवीएम की समस्या फिर से हुई थी। चूंकि केवल कुछ ही ईवीएम दिए जाते हैं, जिससे मतदान के दौरान छात्रों की लंबी कतार हो जाती है, अतः हम, स्वामी श्रद्धानन्द कॉलेज की ओर से विश्वविद्यालय से अधिक ईवीएम मांगे थे। इस बीच, हमें पता चला कि विश्वविद्यालय भी ईवीएम की कमी के कारण समस्याओं का सामना कर रहा था और ईसीआई से अनुरोध किया था कि वह या तो ईवीएम किराए पर दे या विश्वविद्यालय को खरीदने की अनुमति दें, जैसा कि पहले किया गया था। प्रारंभ में, आयोग ने इनकार कर दिया, क्योंकि उन्होंने कुछ अन्य विश्वविद्यालयों से इनकार कर दिया था, लेकिन फिर आयोग की बैठक के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय को #ईवीएम प्राप्त करने के बाद अनुमति दी गई थी। इस मामले की जानकारी संबंधित कार्यालयों के साथ उपलब्ध है।
अब ईवीएम के कार्यप्रणाली पर: हर साल, ईवीएम कंपनी के तकनीकी विशेषज्ञ, आवश्यकता के अनुसार ईवीएम को प्रोग्राम करने के लिए विश्वविद्यालय आते हैं। यह प्रग्रामिंग प्रति पद पर चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों के अनुरूप लिया जाता है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि अलग-अलग पदों के लिए अलग-अलग पोलिंग पैनल (मतदान बोर्ड की इकाइयां) होती हैं, जबकि वोट यानि सूचनाओं को संग्रहित करने के लिए एक ही नियंत्रण इकाई (कण्ट्रोल पैनल) होता है। इसमें परेशानियाँ हो सकती है। कुछ इसी तरह कि शिकायत 2018 में माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा निपटाए गए याचिका (संजय बनाम दिल्ली विश्वविद्यालय और अन्य) में उल्लिखित शिकायतें हो सकती हैं। इस पेटिशन में बताया गया कि एक ही कॉलेज में मतदान करने वाले एक ही संख्या के छात्रों के मतगणना में अलग अलग वोट पाए हए। विभिन्न पदों के लिए मतदान किए गए विभिन्न मतों से संबंधित पेटीशन के प्रासंगिक हिस्सों की प्रतिलिपि संलग्न है।
इस साल भी यह जानना महत्वपूर्ण है कि कौन से कॉलेज ईवीएम दोषपूर्ण थे?
(डॉ सूरज यादव)

#EVM in #DUSU Elections : why is ECI letter of 13 Sept, 2018 misleading?


Only last year ECI permitted Delhi University to procure more EVMs, just as in 2006, #EVMs in DUSU Elections were introduced with permission and consent of ECI from ECIL.
Some Facts:
As Election Officer for Swami Shraddhanand College Students Union in the Academic Year 2005-2006, I had approached the Election Commission of India for lending EVM Machines to conduct the College Students Union Elections with EVMs, which would have been for the first time.
The Election Commission of India, since the time for the elections (2nd September, 2005) was very short had vide letter No. 51/8/4/2005-PLN-IV, dated 25th August, 2005 informed the Principal, Swami Shraddhanand College that the "Commission is not in a position to lend Electronic Voting Machines as requested by you." (Copy of the Press Release issued by me then, as the Election Officer is attached.)
However, next year, that is in 2006, Delhi University announced that the upcoming Delhi University Students' Union (DUSU) elections will be historic in more ways than one. Going hi-tech, they will see parties vying for attention using the communication tools of the day like SMS and e-mails, while electronic voting machines (EVM) will perhaps be used for the first time in university elections in the country. (Reported in Newspapers, including The Hindu,August 24, 2006 : Screenshot attached, Link : Electronic voting machines for DUSU elections now https://www.thehindu.com/…/electronic-vo…/article3095105.ece..). (The news was removed by The Hindu from yesterday. However, screen shot and the matter is attached.)
The Election Commission had ordered specially designed machines to suit the needs of the University.
Prof Gurmeet Singh, the then Proctor, Delhi University, currently serving as the Vice Chancellor, Pondicherry University said, ""The University got formal permission for the machines only on August 18. The requirements we have are different. There is one post, which many students will be standing for. The machine will also be used for the college union elections, so we couldn't have used the same machines that were used for the general elections.''
It was said that ECIL, on instructions from ECI had supplied the EVMs to University of Delhi. It is indeed intriguing that why did Election Commission of India, hurriedly issued a letter (Dated 13.9.18, Copy attached), denying anything to do with the EVM in question at Delhi University Students Union Elections.
Further, Delhi University was working out the cost of the machines, is was stated that the rough estimate for each machine is about Rs. 10,000. The University was then trying to work out how to share the costs of the machines. Prof Gurmeet Singh added,"We might give an advance and then transfer a part of the expenditure to the college.'
Accordingly, every College using the EVM supplied by University of Delhi for the Students Union Election pay in Demand Draft, while handing back the EVMs at the Central Control Room. The amount varies as per use of the machines. Therefore, last year, ie in 2017, I, as Election Officer of Swami Shraddhanand College, personally handed over a Demand Draft, while I went along with Delhi Police escort to the Control Room at the Police Lines, Kingsway Camp, Delhi, an amount of Rs 34,000/-, as far as I remember, and obtained a receipt.
Last year, there was again a problem of EVMs. Since only few EVMs are given, leading to long queue of students during polling, we (Swami Shraddhanand College),had asked for more EVMs from the University . Meanwhile, we came to know that the University too was facing problems due to shortage of EVMs and had requested the ECI to either give EVMs on rent or allow the University to procure, as done earlier. Initially, the Commission refused, because they had also refused to some other Universities, but later permission was granted after a meeting of the Commission and University obtained EVMs. The information of the matter is available with concerned offices.
Now coming to the functioning of the EVMs : Every year, technical experts, from the Company come to the University to program the EVMs as per the requirement, that is the candidates and posts. It is important to note that while there are different balloting units for different posts, there is one and the same control unit for storing the information, ie the votes, number for different candidates contesting for different posts. There may be complaints, as reflected in a Petition (Sanjay Vs University of Delhi & ors) disposed by Hon'ble Delhi High Court in 2018, pertaining to different number of votes polled for different posts. (Copy of the relevant portions of the Petition attached.) Even this year it is important to know which College(s) EVMs were faulty?

Thursday, August 30, 2018

Splendid speech by Dr Suraj Mandal on B P Mandal 100th Birth Anniversar...



पूरे देश में जगह जगह मंडल जयंती का सफल आयोजन हुआ। लखनऊ के उर्दू अकादमी में सामाजिक न्याय संगठन, सामाजिक न्याय मोर्चा और सोशलिस्ट आँगन के बैनर तले 25 अगस्त, 2018 को रामस्वरूप वर्मा और बीपी मंडल B.P.Mandal की जयंती मनाई गई। इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि पूर्व मंत्री सुखदेव राजभर जी थे साथ में कई जाने माने पत्रकार, प्रोफेसर, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ताओं का मंच पर जमावड़ा भी था। इस कार्यक्रम में सभी वक़्ताओ ने मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को पूरी तरह लागू न किये जाने की चिंता ज़ाहिर की साथ ही पिछडा-दलित-अल्पसंख्यक समाज के खिलाफ आरएसएस-भाजपा के सडयंत्र पर भी बात रखी। आरएसएस-भाजपा की पिछड़ो के प्रति नीति पर ज़्यादातर वक्ताओ ने एक स्वर में कहा कि पिछड़े समाज की सबसे ज्यादा विरोधी पार्टी भाजपा ही है। इस कार्यक्रम में उन सभी क्षेत्रीय दलों की आलोचनाओं हुई जिनकी राजनीति या यूँ कहें कि जिन्होंने मंडल की राजनीति के दम पर ही कई बार सत्ता का सुख भोगने का मौक़ा मिला लेकिन पिछड़े समाज का सम्पूर्ण उत्थान फिर भी सम्भव न हो सका। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रतन लाल Dr Ratan Lal ने कहा कि अखिलेश और मायावती ने एक्सप्रेसवे बनाकर लखनऊ से दिल्ली की दूरी छ: घंटे तो कम कर दी गई लेकिन मुझे इंतज़ार है कि सामाजिक न्याय एक्सप्रेसवे कब बनेगा? जिसपर चलकर दलित-पिछड़े-पासमांदा अपना संवैधानिक हक लेंगे। वही दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर Dr Suraj Yadav Mandal जी (बीपी मंडल के पौत्र) ने मंडल जयंती पर मनुवादियों द्वारा शुद्धिकरण की ओर ध्यान खिंचते हुए कहा कि अखिलेश यादव के सत्ता से बेदख़ल होने के बाद आठ दिनों तक मुख्यमंत्री आवास का शुद्धिकरण होता रहा बस इसलिये क्योंकि अखिलेश शुद्र थे। इससे ज्यादा शर्म की बात क्या होगी की हमारे समाज को इस तरह से मनुवादी लोग लगातार ज़लील करते रहे हैं? सामाजिक न्याय के प्रति बहुजन समाज को लगातार जागरूक कर रहे Manoj Socialist Yadav जी Frank Huzur शुक्रिया जिन्होंने इस कार्यक्रम का सफल आयोजन कराया। और इनके साथी अंकुश यादव Ankush Yadav , Maitreya Gautam Gorakhnath Yadav Sachendra Pratap Yadav जैसे युवाओं का भी शुक्रिया जिन्होंने अपना जिवन सामाजिक न्याय की अवधारणा को साकार करने के लिये समर्पित कर दिया है। जय मंडल, जय अम्बेडकर, जय भारत।

Tuesday, August 14, 2018

लाल क़िला पर राष्ट्रिय ध्वज :

क्या आपने कभी सोचा है कि देश के स्वंत्रता दिवस यानि 15 अगस्त को प्रधान मंत्री दिल्ली लाल क़िला पर ही क्यों राष्ट्रिय ध्वज फहराते हैं ? किसी अन्य ऐतिहासिक ईमारत या कोई बड़ी आधुनिक शासकीय बिल्डिंग या अपने कार्यालय पर ही क्यों नहीं ?
15 अगस्त पर लाल क़िले पर राष्ट्रिय ध्वज फहराए जाने के पीछे जन भावनायें, लाल क़िला का देश की सार्वभौमिकता और सम्प्रभुता का प्रतीक होना, ऐतिहासिक घटनाक्रम और सामाजिक मान्यताएँ हैं। किसी भौगोलिक क्षेत्र या जन समूह पर सत्ता या प्रभुत्व के सम्पूर्ण नियंत्रण पर अनन्य अधिकार को सम्प्रभुता (Sovereignty) कहा जाता है। सार्वभौम सर्वोच्च विधि निर्माता एवं नियंत्रक होता है यानि संप्रभुता राज्य की सर्वोच्च शक्ति है। चुकी अंग्रेज़ों से पहले भारत बादशाह मुग़ल साम्राज्य के शासक लाल क़िला में रहते थे, अतः यह हिंदुस्तान की सत्ता का सर्वोच्च स्थान या केंद्र, सम्प्रभुता का प्रतीक था।
इसे विस्तार से समझने के पहले इतना जान लें की ब्रिटिश साम्राज्य का भारत में मुक़म्मल शुरुआत 1858 में ब्रिटिश सेना द्वारा लाल क़िला पर कब्ज़ा करने के बाद, आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर को गिरफ्तार कर, लगभग सभी शाहजादों का क़त्ल करने के बाद और लाल क़िला पर ब्रिटिश यूनियन जैक (झंडा) के फहराने से शुरू हुई थी। वैसे तो 1757 में ब्रिटेन की व्यापार कम्पनी, ईस्ट इण्डिया कम्पनी, के फ़ौज द्वारा लार्ड क्लाइव के नेतृत्व में बंगाल के नवाब सिराज-उद-दउला को प्लासी के युद्ध में हराने के बाद से ही भारत में ब्रिटिश हुकूमत की नींव डाली जा चुकी थी। धीरे धीरे ईस्ट इण्डिया कम्पनी के ताक़त के आगे बंगाल के नवाब, मराठा, मैसूर के हैदर अली, टीपू सुल्तान, पंजाब के महाराज रंजीत सिंह और सिख शासक घुटने टेक दिए थे। कम्पनी राज से मुक्ति के लिए आखिरी और एक बड़ी संघर्ष 1857 के ग़दर के रूप में हुई। पर अन्ततः ब्रिटिश फिर जीत गए। और भारत का शासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी से सीधे ब्रिटिश राज के हाँथ में चली गई और ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया भारत की साम्राज्ञी घोषित की गयी। 1877, 1903 और 1911 तीन बार भारत में ब्रिटिश दरबार हुए, जब क्वीन विक्टोरिया, सम्राट जॉर्ज पंचम और क्वीन मेरी को भारत के सम्राट या सम्राज्ञी घोषित किये गए। इस बीच 1911 में ही दिल्ली के दरबार में यह घोषणा हुई कि भारत में ब्रिटिश भारत की राजधानी का स्थानांतरण कलकत्ता से दिल्ली की गई। राजधानी को दिल्ली में स्थानांतरित करने का निर्णय शहर के प्रतीकात्मक महत्व से प्रेरित था और इस बात से भी कि लोगों के दिल दिमाग में मुगलों की राजधानी दिल्ली ही भारत की राजधानी समझी जा रही थी।
हालाँकि आखिरी मुग़ल बादशाह के शासन के काल में जब मुग़ल हुकूमत मात्र 'लाल क़िला से पालम तक' थी, फिर भी लाल क़िला में रहने वाले बादशाह को भारत का शासक ही माना और जाना जाता था। इतिहासकारों के अनुसार लाल क़िला "ब्रिटिश शाही प्रभुत्व का सबसे प्रामाणिक प्रतीक" प्रतीत होता है - यह वह स्थान था जहां अंतिम मुगल सम्राट और 1857 के विद्रोह के प्रशंसित नेता की कोशिश की और निर्वासित किया गया था।
1857 के बाद लगभग एक शताब्दी के बाद फिर लाल किला स्वतंत्रता से पहले के वर्षों में क्षितिज पर उभरती है। 1940 के दशक में स्वतंत्रता आंदोलन की परिस्थितियों के साथ प्रतीत होता है कि मुगल सम्राट और उसके परिवार के जीवन में लोगों की रुचि बढ़ रही थी। लाल किले की पसंद भारत के प्रमुख सार्वजनिक कार्यक्रम के लिए साइट के रूप में "सीधे, प्रतीकात्मक रूप से, 1857 के ऐतिहासिक गलतियों को स्थापित करने की इच्छा का नतीजा नहीं था" - बल्कि लाल क़िला "परोक्ष रूप से 1857 की अव्यवस्थित विद्रोह की स्मृति के दमन से स्थापित ब्रिटिश भारत साम्राज्य की राजधानी में प्रमुख गैर औपनिवेश ईमारत और पहचान" के रूप में था।
1940 में सुभाष चंद्र बोस और उनके द्वारा स्थापित आज़ाद हिंद फौज या भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए) ने रंगून में बहादुर शाह जफर के कब्र से ही "दिल्ली चलो" का नारा दिया। नेताजी ने आज़ाद हिन्द फौज को सम्बोधित करते हुए कहा कि "आपका कार्य तब तक खत्म नहीं होगा जब तक कि हमारे सेना नायक पुरानी दिल्ली के लाल क़िले में ब्रिटिश साम्राज्य के कब्रिस्तान पर विजय परेड नहीं करती"।
इधर 1945-1946 के आईएनए ट्रायल (मुक़दमा) ने एक बार फिर लाल किले को स्पॉटलाइट में ले आया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, आईएनए के गिरफ्तार अधिकारियों पर दिसंबर 1945 में लाल किले में सार्वजनिक सैनिक मुक़दमा के लिए पर रखा गया था। तीन अधिकारियों, कर्नल शाह नवाज खान, कर्नल प्रेम कुमार सहगल और कर्नल गुरबक्श सिंह ढिल्लों को, जेल में परिवर्तित कर, वहां रखा गया था। पूरे देश का ध्यान तब लाल क़िले में चल रहे इस मुक़दमा पर था, जहाँ इन देशभक्तों में चल रहे मुक़दमें और उसमें बचाओ के लिए देश की भावनाएँ जुडी हुई थी। स्थिति यह थी कि लोग जबरन लाल क़िला पर धावा बोल सकते थे।
अतः अगस्त 1947 को, भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लाल क़िले के लाहौरी गेट के ऊपर भारतीय राष्ट्रीय ध्वज को फहराया। नेहरू अपने भाषण में नेताजी का विशेष उल्लेख किया, इस अवसर पर उनकी अनुपस्थिति पर अफ़सोस ज़ाहिर की। 15 अगस्त को पहली कैबिनेट की शपथ लेने के एक दिन बाद लाल क़िला पर ब्रिटिश ध्वज की जगह भारत के राष्ट्रीय झंडे को फहराए जाने से यह सुनिश्चित हो गया कि अब भारत का सार्वभौम सत्ता भारतीयों के हाँथ में वापस आ चुका है।
परन्तु आज लाल क़िला को ही रख रखाओ के नाम पर गिरवी पर रख दिया गया है। इससे न सिर्फ जनभावनाओं का अनादर हुआ है बल्कि भारत की सार्वभौमिकता और सम्प्रभुभता का हनन हुआ है।
आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर को गिरफ्तार कर, दिल्ली के खूनी दरवाजा पर उनके बच्चों को फांसी पर लटका कर, 1857 के गदर के सिपाहियों को सजा-ऐ-मौत देकर अंग्रेज़ों ने भारत के सम्प्रभुता का प्रतीक लाल किला पर अपना झंडा यूनियन जैक फहराया था। भारत को आज़ाद करने का सपना लिए सुभाष चंद्र बोस ने आज़ाद हिन्द फौज से यह कहते हुए कि "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा", "दिल्ली चलो" का नारा दिया था, जिसका मक़सद लाल क़िले पर तिरंगा फहराना था। परन्तु आज़ादी के संघर्ष और दी गयी हज़ारों शहीदों के शहादत की परवा किये बगैर, लाल क़िला को रखरखाव के नाम पर 25 करोड़ रुपये पर 5 साल के लिए एक कॉर्पोरेट डालमिया भारत को बेच दिया है।लाल क़िला पर पर्यटकों से होने वाली आमदनी 30 करोड़ रुपये सालाना है।
25 करोड़ में 5 साल के लिए डालमिया भारत कॉर्पोरेट को दे रहा है। उन्हें जो कोई हेरिटेज एक्सपर्ट नहीं हैं। उन्हें जो साधारण शब्दों में मुनाफाखोर हैं।
जैसे दिल्ली में विश्वविद्यालय मेट्रो को हीरो होण्डा मेट्रो के नाम का पट्टा लगा दिया गया है, वैसा ही कुछ देश के सम्प्रभुता का प्रतीक लाल क़िला का होगा।
यह सिर्फ निंदनीय ही नहीं, निश्चित तौर से राजद्रोह है।
क्या हमें देश की आज़ादी की लड़ाई फिर लड़नी है?

Saturday, June 30, 2018

बढ़ती बेरोज़गारी और सत्ताधारियों की बेशर्मी : इन्द्रजीत

बढ़ती बेरोज़गारी और सत्ताधारियों की बेशर्मी:
ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के अनुसार बेरोज़गारी की बढ़ती दर के मामले में भारत 8.0 प्रतिशत की दर के साथ एशिया में पहले स्थान पर पहुँच गया है। उप-राष्ट्रपति के पद को शोभायमान कर रहे वंकैया नायडू ने हालिया दिनों में बयान दिया था कि सभी को सरकारी नौकरी नहीं दी जा सकती व स्वरोज़गार भी काम ही है तथा साथ ही कह दिया कि चुनाव में हर पार्टी रोज़गार देने जैसे वायदे कर ही दिया करती है, तो कहने का मतलब भाजपा ने भी तो इसी गौरवशाली परम्परा को ही आगे बढ़ाया है! ‘न्यूज़ रूम’ से लेकर राज्यसभा और वहाँ से लेकर नेताओं-मन्त्रियों और सरकारी भोंपुओं के दरबारों तक हर जगह पकौड़े का ख़ूब महात्म्य गाया जा रहा है। आप बेशक मशहूर शायर दुष्यन्त कुमार के विचारों से इत्तेफ़ाक न रखते हों, पर उनका एक शेर हुक्मरानों की अच्छी कलई खोलता है। शेर है – ‘कहाँ तो तय था चरागाँ हर घर के लिए / कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए’। हालिया अख़बारी ख़बरों के हवाले से यह बात सामने आयी है कि केन्द्र में बैठी भाजपा नीत राजग सरकार पाँच साल से ख़ाली पड़े पदों को समाप्त करने की ठान चुकी है। केन्द्र सरकार के द्वारा कुल 36 लाख 33 हज़ार 935 पदों में से 4 लाख 12 हज़ार 752 पड़ ख़ाली पड़े हैं तथा इनमें से क़रीब आधे पद ख़ाली हैं। कहाँ तो चुनाव से पहले करोड़ों रोज़गार देने के ढोल बजाय जा रहे थे कहाँ अब ख़ाली पदों पर काबिल युवाओं को नियुक्त करने की बजाय पदों को ही समाप्त करने के लिए कमर कस ली गयी है। देश के प्रधानमन्त्री से लेकर सरकार के आला मन्त्रीगण बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि ‘शाम तक 200 रुपये के पकौड़े बेचना भी काफ़ी बेहतर रोज़गार है’ और इसके लिए भी सरकार बहादुर अपनी पीठ थपथपा रही है! अब ‘मरता क्या न करता’ अपना और अपने बच्चों का पेट भरने के लिए फ़ाके करके और किसी-न-किसी तरह छोटे-मोटे काम काम-धन्धे करके जैसे-तैसे लोग गुज़र-बसर कर रहे हैं, किन्तु आम जन की हालत का मज़ाक़ उड़ाते हुए बेशर्म सत्ताधारियों द्वारा कहा जा रहा है कि ‘स्वरोज़गार भी तो नौकरी ही है। नौकरी के लिए सरकार का मुँह ताकने की क्या ज़रूरत है?’ लेकिन बजट बनाते समय करों का बोझ जब जनता की कमर पर लादना हो तब सरकार को क़तई अहसास नहीं होता कि यह जो जनता की जेब से एक-एक दमड़ी निचोड़ी जा रही है, इसके बदले में जनता को वापस कुछ देने का भी फ़र्ज़ बनता है! आम मेहनतकश लोग व्यवस्था का बोझ भी उठायें और कुछ माँग भी न करें! यह कहाँ का न्याय है? आज देश एक अभूतपूर्व दौर से गुज़र रहा है। शिक्षा-स्वास्थ्य-रोज़गार के हालात भयंकर बुरे हैं, किन्तु दूसरी और साम्प्रदायिक और जातीय दंगों को बढ़ावा दिया जा रहा है। ख़ुद सरकार में बैठे नेतागणों में से भी बहुत सारे दंगों की आँच में अपनी रोटियाँ सेंकते नज़र आ रहे हैं। हाल ही में हुए गुजरात चुनाव प्रचार में सबके सामने आ गया है कि “विकास” व “गुजरात मॉडल” के नाम पर झूठ बोलकर लोगों को अब नहीं ठगा जा सकता, इसलिए वोट की राजनीति फिर से मन्दिर-मस्जिद पर केन्द्रित हो चुकी है। इसलिए अब यह समझना भी मुश्किल नहीं है कि 2019 में चुनावी प्रचार का ऊँट किस करवट बैठने वाला है। यानी इसकी काफ़ी सम्भावना है कि जाति-धर्म के दंगों में होने वाली ख़ून की बारिश में ही मतदान की फ़सल लहलहायेगी!

देश में लम्बे समय से बेरोज़गारी का संकट बढ़ता ही चला जा रहा है। तमाम सरकारें आयीं और चली गयीं, किन्तु आबादी के अनुपात में रोज़गार बढ़ना तो दूर उल्टा घटते चले गये। सरकारी नौकरियाँ नाममात्र के लिए निकल रही हैं, सार्वजनिक क्षेत्रों की बर्बादी जारी है। केन्द्र और राज्यों के स्तर पर लाखों-लाख पद ख़ाली पड़े हैं। भर्तियों को लटकाकर रखा जाता है, सरकारें भर्तियों की परीक्षाएँ करने के बाद भी उत्तीर्ण उम्मीदवारों को नियुक्तियाँ नहीं देतीं! परीक्षाएँ और इण्टरव्यू देने में युवाओं के समय, स्वास्थ्य दोनों का नुक़सान होता है तथा आर्थिक रूप से परिवार की कमर ही टूट जाती है। नये रोज़गार सृजित करने का वायदा निभाने की बात तो दूर की है, सरकारें पहले से मौजूद लाखों पदों पर रिक्तियों को ही नहीं भर रही हैं। सरकारी ख़ज़ाने से नेताओं, मन्त्रियों, नौकरशाहों की सुरक्षा और ऐयाशी पर ख़र्च होने वाले अरबों रुपये अप्रत्यक्ष करों के रूप में हमारी जेबों से ही वसूले जाते हैं, तो क्या बदले में हमें शिक्षा-रोज़गार की बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं मिलनी चाहिए? उल्टे आज महँगाई लोगों की कमर तोड़ रही है, व्यापक जनता के लिए रोज़गार ‘आकाश कुसुम’ हो गये हैं, कॉर्पोरेट घरानों के सामने सरकारें दण्डवत हैं तथा सत्ता के ताबेदारों ने बड़ी ही बेहयाई के साथ बेरोज़गारी के घाव को कुरेद-कुरेदकर नासूर बना दिया है।

बेरोज़गारी की भयंकरता की कहानी, कुछ आँकड़ों की ज़ुबानी!

रोज़गारहीनता के मामले में आम जनता कम-से-कम स्वयं को तो कोसना बन्द ही कर दे! बहुत समय नहीं हुआ जब राज्यसभा में कैबिनेट राज्यमन्त्री जितेन्द्र प्रसाद ने माना था कि कुल 4,20,547 पद तो अकेले केन्द्र में ख़ाली पड़े हैं। देश-भर में प्राइमरी-अपर-प्राइमरी अध्यापकों के क़रीब 10 लाख पद, पुलिस विभाग में 5 लाख 49 हज़ार 25 पद, 47 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में 6 हज़ार पद, 363 राज्य विश्वविद्यालयों में 63 हज़ार पद रिक्त हैं, विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार चलने पर तो देश भर में 5 लाख डॉक्टरों की तुरन्त ज़रूरत है, इन मानकों को पूरा करना तो दूर की कौड़ी है, यदि 36 हज़ार सरकारी अस्पतालों के 2 लाख से ज़्यादा ख़ाली पड़े डॉक्टरों के पदों पर न्युक्तियाँ कर दी जायें तो गनीमत हो। यही नहीं 11,500 मनोचिकित्सकों के पद भी ख़ाली पड़े हैं। केन्द्र और राज्यों के स्तर पर क़रीब बीसियों लाख पद ख़ाली हैं। एक ओर पाखण्डी गोबर-गणेशों को भारत “विश्वगुरू” बनता दिख रहा है, दूसरी ओर यहाँ शिक्षण संस्थानों और अस्पतालों में आधे से अधिक पद तो ख़ाली ही पड़े हैं! भाजपा के दिग्गजों ने कभी एक करोड़ तो कभी दो करोड़ रोज़गार देने के चुनावी जुमले उछाले थे, किन्तु साढ़े तीन साल बीत जाने के बाद आधिकारिक श्रम ब्यूरो के आँकड़ों के मुताबिक़ सिर्फ़ 5 लाख नयी नौकरियों को जोड़ा गया है। वर्ष 2012 में भारत की बेरोज़गारी दर 3.8 प्रतिशत थी जो 2015-16 में 5 प्रतिशत पहुँच गयी। श्रम ब्यूरो सर्वेक्षण 2013-14 और 2015-16 के बीच 37.4 लाख नौकरियों की कमी दर्शाता है। र्इपीडब्ल्यू के एक लेख के मुताबिक़ रोज़गार में कमी 53 लाख तक पहुँच गयी है। केन्द्रीय श्रम मन्त्रालय के आँकड़ों के मुताबिक़ वर्ष 2015 और 2016 में क्रमश: 1.55 लाख और 2.31 लाख (पिछले आठ सालों में सबसे कम) नयी नौकरियाँ सृजित हुईं। 1991 में लागू की गयी उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों ने रोज़गार पर ग्रहण लगाना शुरू कर दिया था, मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में वर्ष 2009 में 10 लाख नयी नौकरियाँ सृजित हुई थीं, जोकि ‘ऊँट के मुँह में जीरा’ थीं किन्तु इसके बाद तो हालत बद से बदतर होती चली गयी। सर्वे बताते हैं कि मोदी राज में संगठित-असंगठित क्षेत्र में 2 करोड़ रोज़गार छीने गये हैं। सांख्यिकी मन्त्रालय के आँकड़ों की मानें तो भारत में 15 से 29 बरस के बीच की आयु के 33,33,65,000 युवा हैं। ‘ओईसीडी’ की रिपोर्ट कहती है कि कुल युवाओं की उक्त संख्या में से 30 प्रतिशत न तो पढ़ाई करते हैं और न ही कोई नौकरी। साल 2013 के श्रम और रोज़गार मन्त्रालय के ही एक आँकड़े के अनुसार ग्रामीण और शहरी स्नातक (ग्रेजुएट) युवाओं में क्रमशः 36.4 प्रतिशत और 26.5 प्रतिशत बेरोज़गारी दर अनुमानित है। सरकारी आँकड़ों की सीमा को समझते हुए प्रच्छन्न और अर्ध-बेरोज़गारों को जोड़ दें तो बेरोज़गारों का असल आँकड़ा 25 करोड़ से भी ज़्यादा बैठेगा।

ज़रा एक नज़र उन भर्तियों पर डाल लें, जिन्हें अधर में लटकाकर रखा गया है या फिर पूरा तो कर दिया गया, किन्तु नियुक्ति का कहीं कुछ अता-पता नहीं है। 2016 में क़रीब 15 लाख़ अभ्यार्थियों ने एसएससी-सीजीएल की परीक्षा दी थी। 10,661 का नौकरी के लिए चुनाव हुआ, 5 अगस्त 2017 को नतीजा भी आ गया किन्तु अब तक नियुक्ति नहीं हो रही है। हरियाणा कर्मचारी चयन सेवा आयोग की 2015 में नौकरियाँ निकली थीं, परीक्षा होकर नतीजा आने में दो वर्ष लग गये पर नियुक्ति यहाँ भी नदारद है। हरियाणा में ही 2015 में पीजीटी स्कूल अध्यापक की भर्ती निकली जिसकी परीक्षा तो किसी तरह से हो गयी किन्तु अभी तक साक्षात्कार नहीं हो सका है। इसी प्रकार 2015 में रेलवे में ग़ैर-तकनीकी पदों हेतु 18 हज़ार की भर्ती का विज्ञापन आया था, परीक्षा प्रक्रिया के बीच में ही 4 हज़ार पदों को कम कर दिया गया। इस भर्ती को भी दो साल गुज़र गये किन्तु मेडिकल होना अभी बाक़ी ही है। आरआरबी मुम्बई भर्ती की अगस्त 2015 में परीक्षा हुई और 30 नवम्बर 2017 को परिणाम भी आ गया किन्तु नियुक्ति के लिए अभ्यार्थी अभी तक पलक-पाँवड़े बिछाये हुए हैं। एसएससी सीपीओ का जनवरी 2016 में विज्ञापन आया पर पेपर लीक होने के कारण परीक्षा टाल दी गयी, फिर दोबारा परीक्षा हुई तथा पूरी प्रक्रिया होने के बाद सितम्बर 2017 में परिणाम निकला किन्तु अभी तक नियुक्ति नहीं हुई है। इसी तरह से एसएससी सीएचएसएल की 2015 में प्री की परीक्षा हुई, मुख्य परीक्षा व टाइपिंग टेस्ट में 2 साल गुज़र गये और अन्तिम परिणाम अक्टूबर 2017 को आया, किन्तु नियुक्ति के नाम पर वही ‘ढाक के तीन पात’। इसी प्रकार यूपी लोक सेवा आयोग ने 2013 में राज्य स्तर पर इंजीनियरिंग की परीक्षा के लिए फ़ॉर्म निकाले थे, जैसे-तैसे परीक्षा 2015 में हो गयी किन्तु सरकार बदल गयी पर परीक्षा परिणाम के इन्तज़ार में अभ्यार्थियों की उम्र पाँच बरस बढ़ चुकी है। उत्तराखण्ड में अप्रैल 2015 में सहायक अभियन्ता की परीक्षा हुई किन्तु परीक्षा परिणाम का यहाँ भी कुछ अता-पता नहीं है। दिल्ली सेलेक्शन बोर्ड की 2015 में फार्मास्यूटिकल की भर्ती निकली, जिसकी 2015 में परीक्षा हुई जिसका परिणाम तो आ गया किन्तु नियुक्ति के मामले में परिणाम शून्य। इसी तरह बिहार में बीपीएससी 56-59 का 17 महीने से परीक्षा परिणाम नहीं आया है किन्तु अगली भर्ती यानी बीपीएससी 60-62 की परीक्षा की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है तथा बीपीएससी 63 के फ़ॉर्म भरे जा चुके हैं। झारखण्ड लोकसेवा आयोग के ढंग तो और भी निराले हैं। यहाँ 17 साल में कुल पाँच बार परीक्षा हुई है जिसमें से भी दो बार की परीक्षा रद्द हो गयी! छठी परीक्षा का फ़ॉर्म 2015 में निकला जिसकी तारीख़ तीन बार बढ़ायी गयी; मर-पड़ कर 18 दिसम्बर 2016 को प्री की परीक्षा हुई फिर मेंस की परीक्षा की तारीख़ भी दो बार बढ़ायी गयी किन्तु फिर भी परीक्षा अभी तक नहीं हुई है! 2015 की भर्ती 2018 तक भी पूरी हो जाये तो गनीमत हो। दोस्तो! अटकी पड़ी भर्तियों के ये तो कुछ प्रातिनिधिक उदाहरण ही सामने हैं!

दिल्ली में 2013 में 9.13 लाख बेरोज़गार थे जोकि 2014 में बढ़कर 10.97 लाख हो गये। यही नहीं 2015 में इनकी संख्या 12.22 लाख हो गयी। नोटबन्दी और जीएसटी के बाद के हालात तो सामने ही हैं, जब दिल्ली में ही लाखों लोगों के मुँह से निवाला छीन लिया गया। आम आदमी पार्टी ने 55,000 ख़ाली पदों को तुरन्त भरने और ठेका प्रथा ख़त्म करने की बात की थी, किन्तु रोज़गार से जुड़े तमाम मामलों में यहाँ भी वही ‘ढाक के तीन पात’ हैं। हरियाणा में रोज़गार के हालात की बात करें तो 1966 में यहाँ रोज़गार दफ़्तर में कुल 36,522 लोगों के नाम दर्ज थे जोकि 2009 में बढ़कर 9,60,145 हो गये। यह तो 2017 की ही बात है जब मदवि, रोहतक में चपरासी के मात्र 92 पदों के लिए 22 हज़ार अभ्यार्थियों ने आवेदन किया था। एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार स्कूल अध्यापकों के कुल 1 लाख 28 हज़ार 791 पदों में से 52 हज़ार 675 पद रिक्त पड़े हैं। लाखों युवा डिग्रियों का गट्ठर लेकर घूम रहे हैं पर हरियाणा के मुख्यमन्त्री खट्टर के कानों पर जूँ तक नहीं रेंग रही। हरियाणा में लाखों युवाओं को रोज़गार के अवसर मुहैया कराने का वायदा करने वाली भाजपा सरकार अब कभी तो जातिवाद और आरक्षण का धुआँ उड़ा देती है; कभी गाय की पूँछ पकड़ लेती है; कभी शतुरमुर्ग की तरह “सरस्वती नदी” में अपनी गर्दन घुसा लेती है तो कभी गीता के नाम पर पाखण्ड रचने लगती है!

देश की जनता के साथ भारतीय राज्य का छल

भारतीय राज्य और सरकारें देश के संविधान को लेकर ख़ूब लम्बी-चौड़ी बातें करते हैं। संविधान का अनुच्छेद 14 कहता है कि ‘सभी को समान नागरिक अधिकार’ मिलने चाहिए और अनुच्छेद 21 के अनुसार ‘मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार’ सभी को है। किन्तु ये अधिकार देश की बहुत बड़ी आबादी के असल जीवन से कोसों दूर हैं। क्योंकि न तो देश स्तर पर एक समान शिक्षा-व्यवस्था लागू है तथा न ही देश में करोड़ों लोगों के लिए पक्के रोज़गार की कोई गारण्टी है। हर काम करने योग्य स्त्री-पुरूष को रोज़गार का अधिकार मिलना ही सही मायने में उसका ‘जीने का अधिकार’ है। मनरेगा में सरकार ने पहली बार माना था कि रोज़गार की गारण्टी देना उसकी ज़िम्मेदारी है किन्तु यह योजना भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गयी। न केवल ग्रामीण और न केवल 100 दिन बल्कि हरेक के लिए उचित जीवनयापन योग्य पक्के रोज़गार के प्रबन्ध की ज़िम्मेदारी सरकारों की बनती है, यह हमारा जायज़ हक़ है। जिसका सीधा सा कारण यह है कि सरकारी ख़ज़ाने का बहुत बड़ा हिस्सा जनता से आने वाले अप्रत्यक्ष करों से भरता है। यदि सरकारें जनता को शिक्षा-रोज़गार-चिकित्सा जैसी बुनियादी सुविधाएँ तक नहीं दे पाती तो फिर ये हैं ही किसलिए? पूँजीपतियों को तो करोड़ों-अरबों रुपये और सुविधाएँ खैरात में मिल जाते हैं, बैंकों का अरबों-खरबों रुपये धन्नासेठों के द्वारा बिना डकार तक लिये निगल लिया जाता है। दूसरी तरफ़ आम ग़रीब लोगों को व्यवस्था का शिकार बनाकर तबाही-बर्बादी में धकेल दिया जाता है!

क्या किया जाये?

ज़रा दिमाग़ पर ज़ोर डालकर सोचने पर हम समझ सकते हैं कि सभी को रोज़गार देने के लिए तीन चीज़ें चाहिए (1) काम करने योग्य हाथ (2) विकास की सम्भावनाएँ (3) प्राकृतिक संसाधन। क्या हमारे यहाँ इन तीनों चीज़ों की कमी है? अब सवाल सरकारों की नीयत पर उठता है। पूँजीपरस्त और जनविरोधी नीतियों को लागू करने में कांग्रेस-भाजपा से लेकर तमाम रंगों-झण्डों वाले चुनावी दल एकमत हैं, विरोध की नौटंकी केवल विपक्ष में बैठकर ही की जाती है! धर्म, जातिवाद और क्षेत्रवाद की राजनीति करने वाली चुनावी पार्टियाँ केवल अपनी गोटियाँ लाल करने के लिए हमें आपस में बाँटती हैं। ये किसी की सगी नहीं, अन्यथा ये ख़ाली पदों को भरतीं और शिक्षा-रोज़गार-स्वास्थ्य के लिए नीतियाँ बनातीं। असल बात यह है कि मौजूदा तमाम चुनावी पार्टियों का मक़सद ही आम जनता को ठगना है। और आज लुटरों के सभी दलों में से भाजपा ही पूँजीपतियों को अधिक रास आ रही है। यह अनायास ही नहीं है कि अकेली भाजपा को ही कुल कॉर्पोरेट का 2012-13 में 89 प्रतिशत और 2015-16 में 87 प्रतिशत चन्दा प्राप्त हुआ है। अब आप ही सोचिए कि इन्हें आपकी फ़िक्र होगी या फिर अपने आकाओं की? रास भी क्यों न आये क्योंकि भाजपा संघ परिवार का हिस्सा है जोकि अपने ऐतिहासिक पुरखों की तरह फ़ासीवादी राजनीति के तहत आम जन को आपस में बाँटने का काम बड़ी ही शिद्दत से कर रहा है! लेकिन हर अँधेरे दौर की तरह मौजूदा दौर भी बीत जाना निश्चित है, यह आम जन की नियति नहीं है। किन्तु यह भी उतना ही सच है कि यह दौर भी अपने आप नहीं बीतेगा बल्कि जन आन्दोलनों का दबाव ही सत्ताधारियों के घुटने टिका सकता है। इस या उस चुनावी मदारी की पूँछ पकड़ने की बजाय जन आन्दोलनों के द्वारा ही आम जन अपने हक़-अधिकार हासिल कर सकते हैं। सरकारी अन्याय और अन्धेरगर्दी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी होगी। धर्म-जाति-आरक्षण के नाम पर किये जा रहे बँटवारे की राजनीति को समझना होगा। केवल और केवल अपनी एकजुटता के बल पर शिक्षा-स्वास्थ्य-रोज़गार से जुड़े अपने हक़-अधिकार हासिल किये जा सकते हैं। छात्रों-युवाओं और मेहनतकशों को इस बात को गहराई से समझना होगा। ग़ैरज़रूरी मुद्दों पर झगड़ों-दंगों से कोई फ़ायदा नहीं होगा। इन बातों को जितना जल्दी समझ लिया जाये उतना बेहतर होगा वरना आने वाली पीढ़ियों के सामने जवाब देने के लिए हमारे पास शब्द नहीं होंगे!

मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2018

Tuesday, May 29, 2018

Who leads Opposition front immaterial, says Sharad Yadav on political landscape after Karnataka : @Hindustan Times 28.5.18

Who leads Opposition front immaterial, says Sharad Yadav on political landscape after Karnataka :

Veteran politician Sharad Yadav has been an 11-term Member of Parliament, Union minister, and convener of the National Democratic Alliance (NDA). Now an active player in forging Opposition unity against the Bharatiya Janata Party (BJP), Yadav spoke to Prashant Jha and Kumar Uttam about the national political landscape after the assembly elections in Karnataka. Edited excerpts:

You were in Bengaluru along with other Opposition leaders. What was its significance?
In Karnataka, the BJP won 104 seats; the Congress-Janata Dal (Secular) alliance won 117 seats. In Goa, Manipur and Meghalaya, despite the Congress being the largest party, it did not get an opportunity to take oath. With a common Constitution, double standards were applied and the single-largest party was invited in Karnataka rather than the coalition with the majority. There was anger across the country on this and we in the Opposition were also disturbed. This was an oath-taking ceremony; even parties with differences amongst themselves were there. But there is no doubt that the anger of the country was reflected. We are working towards unity.

You were in Bengaluru along with other Opposition leaders. What was its significance?

In Karnataka, the BJP won 104 seats; the Congress-Janata Dal (Secular) alliance won 117 seats. In Goa, Manipur and Meghalaya, despite the Congress being the largest party, it did not get an opportunity to take oath. With a common Constitution, double standards were applied and the single-largest party was invited in Karnataka rather than the coalition with the majority. There was anger across the country on this and we in the Opposition were also disturbed. This was an oath-taking ceremony; even parties with differences amongst themselves were there. But there is no doubt that the anger of the country was reflected. We are working towards unity.

What is the role of the Congress in this proposed Opposition front? Rahul Gandhi recently said if it emerges as the single largest party, he is willing to be prime minister. Is that acceptable to regional parties?

If there is one party in the Opposition with a pan-India presence, it is the Congress. The Congress has strived for Opposition unity. Sonia Gandhi has called meetings thrice. The most important priority is battling the undeclared emergency in the country. This country got partitioned; but we maintained a composite culture in this country, despite religious, regional and caste divisions. The need of the hour is unity of all forces. All parties have an important role. But the Congress, because it is an all-India party, has a special role.

Rahul Gandhi said this in response to some question. But I am in touch with them, and I can tell you the Congress’s worry is also in getting all forces together.

Everyone can come together and resolve the question on leadership – either in advance or later. Let me give you an example. Who had projected Morarji Desai after Emergency? He became PM later, in two-three days. VP Singh became PM in 1989; he was not projected. Devi Lal was elected, and he proposed VP Singh’s name. In 1996, too, there was no projection. When (HD) Deve Gowda was proposed as in 1996, many people got to know his name for the first time.

The Opposition’s aim is to oust the BJP. That is the common aim. It has not fulfilled its promises, and instead raised non-issues — Taj Mahal, Tipu Sultan, Jinnah, cow. We need to protect the Constitution first.

In 2014, we saw an almost presidential-type election. Narendra Modi will remain the BJP’s face. Can the Opposition, without a face, take him on?

You named one person. Was there a man bigger than Jawaharlal (Nehru)? Was there a bigger mass leader than Indira Gandhi? If anyone got the maximum seats in Parliament, it was Rajiv Gandhi. This country and its people will not accept this presidential kind of system.

But the question is, how will you challenge Modi without a leader?

We did that in 1977. We did that in 1989. We did that in 1996. What is the need for a face? What is needed is a programme. The programme is the leader. The principle will be the leader. And that principle is sustaining and protecting the Constitution. Leadership can be decided in three-four hours. The country need not worry about this.

You were active in all three experiments — of 1977, 1989, and 1996 — but they did not last and collapsed in a few years.

This is a mischievous logic. There was Emergency in the country. But we protected India’s Constitution. Wasn’t that aim achieved? Now you cannot declare Emergency. Didn’t the Morarji government ensure that? How long the government survived is an important question. But the more important issue is that people came together to respond to the Emergency, and we ensured a constitutional amendment to ensure this cannot happen again. Protecting the Constitution is the first priority. Stability comes next. Yes, I admit that the governments on all three occasions could not remain stable. We have to ensure stability too.

But how will you assure the people that this Opposition front can provide stability now?

Our past experience will show us the light. We have to learn lessons and give a government for five years.

The BJP has built a broad social coalition. From being seen as a Brahmin-Bania party, it has both substantial OBC (other backward class) and Dalit support. How do you see this shift?

Our Janata Dal was a party of farmers and peasants. Chaudhary Charan Singh left us with the second-largest party. It got fragmented in 11-12 parts – Chimanbhai Patel, Devi Lal, Ajit Singh, Mulayam Singh, Ram Vilas Paswan, Nitish Kumar, Lalu Prasad, Navin Patnaik, HD Deve Gowda slowly left. The UPA (United Progressive Alliance)-2 was tainted with scams, it could not respond effectively. We all campaigned against it, and the Congress slipped to its worst. So in 2014, there was a vacuum. The BJP benefited from this vacuum.

When Mulayam and Mayawati came together in UP, see what happened. When the Mahagatbandhan was formed in Bihar, see what happened. The class you are referring to came back as soon as it saw that the old Janata Dal is one, with Congress on its side. Our fragmentation led to our supporters moving away. But they have now understood very clearly that the BJP is not their party. I can guarantee you that they will return as soon as fragmentation diminishes.

See, despite our fragmentation, non-BJP parties got 69% votes last time. Assume that 15% of that vote is minority vote, including Muslims, Christians and others. That still leaves the Opposition with 54% Hindu votes; it includes caste Hindus, backward classes, Dalits, and Adivasis. Assume all 31% of the BJP votes are Hindu votes. So the Opposition still got 23% more Hindu votes than the BJP. It is a misconception that Hindus are with them. There is no one Hindu. It is a social order. They will fail in their attempts to unite it.

To unite Hindus?

Yes. They will be completely unsuccessful. I have already given you the data. 54% Hindus are with us. If there is possible unity, not even complete unity, they will consolidate. The BJP will be cleaned up from the Ganga (Gangetic) belt. The Samajwadi Party and the Bahujan Samaj Party are together in UP; we will see them (in Bihar); Mamata (Banerjee) will take care of them in Bengal.

Count the number of seats here. They came from the Ganga and they will disappear from the Ganga.

But this Ganga belt has also seen serious Hindu-Muslim conflicts, from the Jat-Muslim tensions to Dalit-Muslim violence. How will you manage that?

Their (the BJP’s) election speeches are geared towards religious tensions. Their aim is to trigger caste conflict. All that they do is act against the Constitution and composite culture. There are so many religions, castes, subcastes. There are so many contradictions here.

Even if one was to agree that the BJP benefits from a Hindu-Muslim rift, isn’t it the case that you benefit from intra-caste tensions within Hindus?

This is a big lie. Caste is an institution that goes back thousands of years. It is a reality, a reality recognised by the Constitution. To blame us for it is deeply unjust. The constitution has provisions for the disadvantaged. What the BJP and RSS (Rashtriya Swayamsevak Sangh) go around doing is inter-dining. But the institution of marriage keeps the caste system alive. The caste system is in this country’s soil. Resolving it is a long-term issue.

How will you cement the religious divide?

It is healed. See what happened in (bypolls in) Ajmer, Alwar, Gorakhpur, Phulpur, Araria. In Opposition unity, people from different communities can see their faces.

You split from Nitish Kumar on the question of understanding with the BJP. How do you assess his politics now?

He caused great damage to the nation, betrayed the faith of the millions who voted for the Mahagathbandhan. I had told him, I will never accept this. He did not listen to someone like me who made this party. He had promised to fight for Sangh-mukt Bharat. By going back on your commitment, you weaken democracy. He will be consigned to the dustbin of history.

There are some indications he has differences with the BJP. Is your door open, the Opposition’s door open, for him?

This is a hypothetical question. What he has committed is a big crime. He was giving me all kinds of greed. He collaborated with the BJP to take away my party and symbol. They have been vindictive. They have gone to court. They want me evicted. He has shown what depths a person can plunge to. What is the point of him return.

Friday, May 18, 2018

नए संघर्ष का आगाज़ : 18 मई, 2018 को लोकतान्त्रिक जनता दल की नई दिल्ली तालकटोरा स्टेडियम में स्थापना। शरद यादव संरक्षक की भूमिका में।


सामाजिक न्याय, लोकतान्त्रिक व्यवस्था, संविधान और साझी विरासत के लिए संघर्षरत क्रांति कार्यकर्ता एक मंच पर नज़र आएंगे। मंच पर जहाँ एक ओर अम्बेडकर मंडल पक्ष के अधिकांश पढ़े लिखे नौजवान समर्थक होंगे जिनका ध्येय आरएसएस और भाजपा के कुशासन और षड्यंत्र से सामाजिक न्याय और संविधान को बचाना है वहीं दूसरी ओर लोहिया-जेपी के आदर्श पथों पर बढने के लिये कृत-संकल्पित सुलझे हुए अनुभवी नए राजनैतिक सोच के साथ देश को एक साथ पिरो कर नरेंद्र मोदी अमित शाह ब्रांड कॉर्पोरेट गुलामी और लोकतांत्रिक मूल्यों के ह्रास का मुक़ाबला करने वाले संघर्षशील नेतागण भी होंगे !
एक लम्बी राजनैतिक पारी खेलने वाले शरद यादव, आज इस मुहीम को आगे ले जाने के खिवैये के रूप में संरक्षक की भूमिका में होंगे। लोकतान्त्रिक जनता दल की स्थापना पर राजस्थान सरकार के पूर्व मंत्री फतेह सिंह अध्यक्ष, महाराष्ट्र की प्रो सुशीला मोराले, राष्ट्रिय महामंत्री एवं गाज़ियाबाद (यूपी) के डा लाल रत्नाकर, कोषाध्यक्ष होंगे।
दरअसल, 17 मई 1934 को में राजनैतिक पथ-प्रदर्शक लोकनायक जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव एवं लोहिया जी के नेतृत्व में समाजवादी कांग्रेस पार्टी की नींव ये सोच कर रखी गई थी कि देश जब आजाद होगा तब हम तमाम तरह की गैरबराबरी को दूर करेंगे, हर हाथ को रोजगार एवं शोषितों-वंचितों को न्याय दिलवायेंगे। प्रारंभ में यह मुहीम सफल भी हुई, परन्तु लोहिया जी के असमय निधन से एक प्रखर मार्गदर्शक छीन गया, जिसका असर इस क्रांति पर भी पड़ा।
आज देश की परिस्थिति विकट है। रोजगार ख़त्म, आरक्षण समाप्त, उच्च शिक्षा बेचा जा रहा है , रेलवे बेचा जा रहा है, दलितों पर हमला, अल्पसंखयकों पर हमला, मौत का तांडव है। दिल्ली विश्वविद्यालय और सभी विश्वविद्यालयों में, रोहित वेमुला से अब तक लोग घुटन महसूस कर रहें हैं। प्रतिदिन लोकतंत्र और संविधान की धज्जियां उड़ाई जा रही है। वर्तमान सरकार जनता से किये करार को पूरा करने के बजाय संवैधानिक संस्थाओं की अस्मिता और अक्षुण्णता को तार-तार करने में तल्लीन है। ऐसी तानाशाही सरकार जो हमारे लोकतंत्र के लिये खतरनाक साबित हो रही है। हम देश की वर्तमान परिस्थितियों से घोर चिंता में हैं।
माहौल अन्याय से भिड़ने का है। रण का है।
अनायास ही शरद यादव जी के यहाँ भीड़ जुट रही है। जेएनयू, दिल्ली विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्र, प्रोफेसर, जो खास तौर से सामाजिक न्याय के पक्ष के हैं - दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक आदि सब शरद यादव जी से इस अन्याय के विरूद्ध राजनैतिक मुक़ाबला करने के लिए नेतृत्व का निवेदन किये।
मोदी और अमित शाह ने तमाम विपक्षियों पर शिकंजा कस दिया है। अकेले शरद जी हैं जो मोदी के विरुद्ध दहाड़ने का हैसियत रखते हैं।
शरद यादव समझ रहें हैं और उन्होंने दो टुक कहा कि वे मंत्री नहीं बनेंगे। देश की साझी विरासत पर आरएसएस/ भाजपा और मोदी सरकार का हमला का मुक़ाबला के लिए वे तैयार हैं।
इधर, नरेंद्र मोदी की सरकार संसद के सबसे वरिष्ठ सदस्यों में एक शरद यादव को अपमानित करने और सबक सीखाने में अपनी सारी ताक़त लगा दी है।
कारण - पूरे विपक्ष में अकेले शरद यादव हैं जो मोदी सरकार के कॉर्पोरेट के सेवार्थ जनविरोधी क़दमों और सभी मापदंड को लांघते हुए आम लोगों पर कहर ढा रहे नीतियों के विरोध में चट्टान की तरह खड़े हो गए हैं। दिल्ली से शुरू और फिर देश के अलग अलग जगहों में सांसद अली अनवर के साथ, सभी विपक्षी पार्टियों के सहयोग से #साझी_विरासत_बचाओ मुहीम के तहत की जा रही कार्यकर्मों की शानदार सफलता से घबरा कर मोदी सरकार ने अब अपनी पूरी ताक़त से इसकी खबरों को दबाने लगे हैं। लेकिन दिक्कत यह है कि जब भी #मोदी_गोदी_मीडिया खबरों को दबाता है, तब सोशल मीडिया उसे फ़ैलाने में काम आता है। खबर छुपाने की कोशिश हुई, लेकिन सन्देश लोगो तक पहुंच गया है।
नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी राष्ट्रिय राजनीति को नई गहराई तक ले गए हैं और अब धरातल में पहुँचा चुके हैं। उनकी नीति है की विपक्ष के नेता की जो कमजोरी हो, उसी के आधार पर उन्हें ब्लैक मेल करके चुप करा दिया जाय। कांग्रेस नेतृत्व भी ऐसे तत्वों के गिरफ्त में है कि विपक्ष की भूमिका अच्छी तरह निभा नहीं पा रही है। सरकारी रोजगार समाप्त, आरक्षण ख़त्म, प्रायवेट रोजगार का अता पता नहीं, छोटे व्यापारियों का कारोबार ख़त्म, किसान आत्महत्या को मजबूर, विश्वविद्यालयों में सीटें ख़त्म, राजस्थान में सभी सरकारी स्कूल बंद किये गए, सीमा पर शहीद होने वाले जवानों की संख्या में लगातार 400% वृद्धि, दुनिया में जब पेट्रोल का दाम सबसे कम तो, भारत में अम्बानी को भरपूर लूटने के लिए पेट्रोल का दाम रोज बढ़ाते बढ़ाते दुनिया में सबसे अधिक कर दिया गया है, सरकारी कर्मचारी को 1% डीए, रेलवे के 4 लाख नौकरी ख़त्म (और इस वजह से भी रोज रेल हादसे जिसमें हज़ारों लोगों की मौत), अल्पसंख्यकों पर हमला, लिंचिंग, सभी संस्थाओं पर आरएसएस का कब्ज़ा, सिर्फ एक जाति का वर्चस्व आदि आदि के विरुद्ध बोलने वाले कौन? तो शरद यादव।
नतीजा शरद यादव मोदी सरकार की आँख की किरकिरी बन चुके हैं।
इसका बदला लेने के लिए मोदी सरकार, शरद यादव को अपमानित करके, उनपर नित्य नए हमले करना, शुरू कर चुका है।
बता दें कि शरद यादव संसद के वरिष्ठतम सदस्य हैं। वे 1974 में पहली बार लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के समय जबलपुर से संयुक्त विपक्ष की ओर से लड़कर लोक सभा के सदस्य बने। वे सात बार लोक सभा सदस्य चुने गए हैं और 2 बार राज्य सभा के सदस्य चुने गए हैं। तीन बार उन्होंने संसद से इस्तीफा दिया है। शरद यादव को सर्वश्रेष्ठ सांसद के पुरष्कार से भी सम्मानित किया गया है।
लेकिन अमित शाह का निशाना शरद यादव राज्य सभा मेम्बरी समाप्त करने के तरफ है। चुकी चुनाव आयोग से लेकर संसद के दोनों सदन के कार्यालय, देश की न्यायपालिका अभी आरएसएस की कब्जे में है तो यह तिकड़म अमित शाह के लिए आसान है।
सभी कानून को ताक पर रखते हुए, और बिना उनके वरिष्टता का ख्याल रखते हुए, शरद यादव को नोटिस दी गयी है की 7 दिन के भीतर बताएँ की क्यों नहीं उनकी सदयस्ता रद्द की जाए? इधर बिना कोई समय दिए चुनाव आयोग ने फैसला सुना दिया है कि 'तीर' निशान नितीश के पास रहेगा। शरद यादव ने नए सिरे से फिर 'तीर' पर दावा किए हैं।
लोहिया जी ने कहा थाः
"जब सड़कें सुनसान हो जायेगी, तो संसद आवारा हो जायेगी"
आज उनका कथन सत्य होता प्रतीत हो रहा है। इसलिए बतौर दिशा निर्देशक लोकपुरूष श्री शरद यादव ने लोहिया, जेपी, बिरसा, अबुल कलाम और अंबेडकर के सपनों को वर्तमान और भविष्य में संरक्षण के लिये एक आंदोलन का आगाज किया है, जो लोकतांत्रिक जनता दल के बैनर तले आगे बढेगा
कल (18 मई 2018) को इस आंदोलन का मुख्य रूप "लोकतांत्रिक जनता दल" का स्थापना सम्मेलन तालकटोरा स्टेडियम में आयोजित हो रहा है। राष्ट्र निर्माण के इस महायज्ञ का हिस्सा बनने के लिये हम आप सभी को आमंत्रित करते हैं।

~ डा सूरज मंडल.

Tuesday, March 6, 2018

संसद की फाइल से : एट्रोसिटी ऑन हॉरिजंस (हरिजनों पर अत्याचार डिबेट में बी पी मण्डल) #BPMandal


बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री, सामाजिक न्याय के प्रणेता, पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष स्व बी पी मंडल कई बार विधान सभा व संसद के लिए चुने गए।
6 अप्रैल,1978 को पार्लियामेंट (लोक सभा) में "Atrocities on Harijans" पर उनका भाषण। ( अब 'हरिजन' के जगह 'दलित' शब्द का प्रयोग होता है।) 24 मार्च 1977 को मोरारजी मंत्रिमंडल ने शपथ ली। बमुश्किल 2 महीने बाद ही 27 मई 1977 को बिहार का बहुचर्चित बेलछी कांड हो गया। 1 दर्जन दलितों का नरसंहार किया गया था। इंदिरा गांधी ने बेलछी का दौरा किया। वे हाथी पर सवार होकर बेलछी पहुंची थीं। इसके बाद भी दलितों पर एट्रोसिटी हुए। इसी के सन्दर्भ में लोक सभा में चर्चा थी।
ध्यान दें, बिहार और केंद्र में जनता पार्टी की सरकार थी और श्री मंडल जनता पार्टी के ही सांसद थे।
श्री बी पी मण्डल (मधेपुरा) :
सभापति महोदय, मैं पहले आपको धन्यवाद दूँ जो आपने मेरा नाम लिया।
सभापति महोदय, मुझे इस बात अफ़सोस होता है जबकि हमारे ट्रेजरी बेंच से होम मिनिस्टर या उनके स्टेट मिनिस्टर लोग बिहार में हरिजन पर होने वाले अत्याचार को छिपाना चाहते हैं। और सभापति जी, यह कोई स्टेट की रिस्पॉन्सिबिलिटी नहीं हो सकती है। अगर अमरीका में नीग्रो पर जुल्म होता है, तो उससे कम जुल्म हमारे यहाँ हरिजन पर नहीं होता है। अमरीका की फेडरल गवर्नमेंट और प्रेसिडेंट यह कहें कि फलाँ स्टेट में जुल्म होता है, हमारी रिस्पॉन्सिबिलिटी नहीं है, यह कभी टेनेबल नहीं हो सकता। इसलिए जो जुल्म हरिजनों पर होता है, जिस धर्म में हमलोग हैं, उस धर्म की बुनियाद इसीपर है। मैं काँग्रेस वालों को क्या दोष दूँ। कोई सरकार रहे, चाहे अँगरेज़ रहे, मुसलमान रहे या हिन्दू पीरियड रहा हो, हज़ारों साल से हरिजनों पर जुल्म इस देश में हो रहे हैं। दुनिया के किसी भी देश से कम जुल्म नहीं, यहाँ सबसे ज्यादा ज़ुल्म होता है। मैं इसका एक उदहारण दूँगा।
दुनिया का कौन सा ऐसा देश है जिसमें खानदान के खानदान, बाबा, बेटा, पोता, परपोता जाति के आधार पर बरसों से पखाना माथे पर ढोए। हमलोग हरिजनों से यह काम करा रहें हैं। आपकी म्युनिसिपैलिटी में भी किसी दूसरी जाति के लोग पखाना नहीं ढोते। यह हमारे समाज की जड़ में है। इसको यह कह देना मखौल है कि काँग्रेस में क्या हुआ, महाराष्ट्र में क्या हुआ, फलाँ जगह क्या हुआ। इस आड में हम नहीं बच सकते। यह काँग्रेस या जनता पार्टी की बात नहीं है। हमारे समाज की जड़-जड़ में, अंग-अंग में और कण-कण में यह है कि जात-पात के द्वेष के आधार पर हमारा समाज बना हुआ है। किसी भी सरकार के लिए यह शर्म की बात है, खासकर जनता पार्टी के लिए अगर हम पुरानी लकीर के फ़क़ीर हों।
हिन्दुस्तान में ऐसी बड़ी क्रांति हुई, रेवोल्यूशन हुआ, जनता पार्टी यहाँ आई, काँग्रेस वालों को हटा कर जनता पार्टी को लाया गया और हम अब भी पुराने लकीर के फ़क़ीर हों, यह कहाँ की बात है? आंध्र में कितना होता है, कर्नाटक में कितना होता है, इससे हमारा कोई भी केस सुधरने वाला नहीं है। यह हमारे लिए शर्म की बात है। आज हमको टोटल रिस्पॉन्सिबिलिटी लेनी चाहिए कि ईस समाज को हम परिवर्तित करेंगे और हरिजनों पर ज़ुल्म नहीं होंगे।
एक माननीय सदस्य : अगर हरिजन ज़ुल्म कर दें हम पर तो ?
श्री बी पी मण्डल : जितना ज़ुल्म हमने हरिजनों पर किया है, अगर कोई हरिजन थोड़ा सा भी ज़ुल्म करता है, बदला लेता है तो वह जस्टीफाईड है। आपने हज़ारों वर्षों तक पुश्तैनी तरीके से ज़ुल्म किया है। अगर एक आध ज़ुल्म हरिजन करता है तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर ज़ुल्म नहीं करता है तो यह आश्चर्य की बात है कि क्यों नहीं करता है ? इसलिए हरिजनों पर ज़ुल्म होता है।
कार्लमार्क्स का जन्म हिंदुस्तान में होता तो सोशलिज्म की डेफिनिशन में वह भी इकनॉमिक आधार नहीं मानते, सोशल एक्सप्लॉयटेशन का आधार मानते। जगजीवन बाबू इकनॉमिक आधार में किसी से कम नहीं, पॉलीटिकल आधार में बहुत ज्यादा, हिंदुस्तान में जीनियस, उन्होंने एक मूर्ति, स्टेचू का उदघाटन किया, अनावरण किया तो उस मूर्ति को गंगाजल से धोया गया। तो इसमें इकनॉमिक आधार नहीं है। हमारे देश में डबल एक्सप्लोइटेशन है और और दुनियाँ के देशों में एक एक्सप्लॉइटेशन है, वह है इकनॉमिक एक्सप्लॉयटेशन। हमारे यहाँ डबल एक्सप्लॉयटेशन है, एक है इकनॉमिक और दूसरी सोशल एक्सप्लॉयटेशन है। हरिजनों पर ज़ुल्म होता है। और भी बहुत सी जातियाँ हैं जो हरिजनों के समकक्ष जातियाँ हैं। हरिजन हरिजन में भी आपस में लड़ाई होती है, लेकिन समाज की बनावट ही ऐसी है कि ऊपर में एक जाति है ब्राह्मण और नीचे में एक जाति है हरिजन और बीच में 3 हज़ार जातियाँ हैं। इनसे पहले देश में 4 वर्ण थे लेकिन गुप्त वंश के बाद डेढ़ हज़ार वर्ष से हज़ारों जातियाँ ले गई। समाज का बनावट ही ऐसा है कि जाति जाति में लड़ाई होती है, लेकिन इसका सूत्रधार हरिजन नहीं है, पिछड़ा वर्ग नहीं है। इसके सूत्रधार वर्ण-व्यस्था को बनाने वाले मनु स्मृति है।
(हंगामा शोर-गुल व्यवधान )
इसलिए हम अपनी सरकार को कहेंगे कि यह आंकड़े न दें कि एक परसेंट हरिजन है और 15 परसेंट हरिजन हैं एक परसेंट भी ज़ुल्म हुआ, यह शर्म की बात है। इस किस्म के आंकड़ें देना ठीक नहीं होगा। इस पर हमें पार्टी लाइन से ऊपर उठना होगा। यह देश के नेशनल इंटरेस्ट का सवाल है, इसको हम पार्टी के दायरे में नहीं लेंगे। हमारे साथी ने जो कहा, इसका मतलब यह है कि 15 परसेंट तक क्राइम जस्टीफाईड होगा हरिजन पर ? जो लोग यह जवाब देते हैं, इन आंकड़ों को बनाने ब्यूरोक्रेट्स हैं, वह सब अपर क्लास के हैं और इन पर जो ज़ुल्म होता है, उसमें इनका हाथ रहता है। वही लोग परदे के पीछे से स्ट्रिंग पुल करते हैं, और जो ज़ुल्म होता है, उसको वे देखते हैं।
हरिजनों की नियुक्तियों के सम्बन्ध में तो रिजर्वेशन दिया गया है, लेकिन प्रोमोशन के मामले में उनके लिए कोई रिजर्वेशन नहीं है। पटना हाई कोर्ट साठ वर्ष से बना हुआ है। वहाँ आज तक एक भी हरिजन, आदिवासी या पिछड़े वर्ग का जज नहीं हुआ है। पिछड़े वर्ग का एक जज वहाँ हुआ, जब मैं मुख्य मंत्री था। मैंने जस्टिस कन्हैया जी को जज बनाया। उसके बाद किसी ने नहीं बनाया।
हरिजनों को जो रिजर्वेशन दिया गया है, वह तो एक मखौल है। टॉप ऑफिसर्स, जो अपर कास्ट के होते हैं, हरिजन और वीकर सेक्शनस के सर्विस रिकार्ड्स को खराब कर देते हैं, जिससे उनका प्रोमोशन नहीं होता है। सरकार कहती है कि प्रोमोशन में रिजर्वेशन का सवाल ही नहीं उठता है, सिर्फ एपॉइंटमेंट में ही रिजर्वेशन है। इसलिए प्रोमोशन में भी रिजर्वेशन का कोटा फिक्स करना होगा।
हमने सुना है कि तमिलनाडु में जब डीएमके सरकार थी, तो उसने पहले के सब सर्विस रिकार्ड्स को कैंसल कर दिया, जो ब्राह्मण टॉप ऑफिसर्स द्वारा लिखे गए थे - वहाँ पर सिर्फ ब्राह्मण और नॉन-ब्राह्मण हैं, जब कि हमारे यहाँ चार पाँच अपर कास्ट्स हैं -, जिसके कारण आज वहाँ पर हरिजन टॉप ऑफिसर्स भी है।
बिहार में हाई कोर्ट जज को तो छोड़ दीजिए, एक भी डिस्ट्रिक्ट जज नहीं है। मुंसिफ हैं, सब-जज तक तो वे जाते हैं, लेकिन हाई कोर्ट तक, जो अपर कास्ट की मोनोपॉली है, उन्हें नहीं जाने दिया जाता है।
मैं कहना चाहता हूँ कि हरिजनों पर ज़ुल्म के मामले को इस तरह से नहीं लेना चाहिए कि 15 परसेंट और 1 परसेंट वगैरह पर्सेंटेज बता दिया, काँग्रेस शासन से तुलना कर दी, और दुनियाँ के सामने एक मखौल हो गया। उनकों इसमें पूरी दिलचस्पी लेनी चाहिए। ऐसा न हो कि "अति संघर्ष करे जो कोई, अनल प्रकट चन्दन से होई"। उनको आप दबाते चले जा रहें हैं, समझते हैं कि कुछ नहीं है। अगर आपका ऐसा ही रवैय्या रहा, तो जैसे की उस दिन श्री रामधन से कहा था, यह मामला यूएनओ में ले जायेंगे, ले ही जाना चाहिए। मैं हरिजन नहीं हूँ। लेकिन मैं समझता हूँ कि यह ह्यूमन राइट्स का सवाल है। अमरीका में निग्रोस की जो हालत है, हमारे यहाँ हरिजनों की हालत उससे भी बदतर है। इसलिए मैं समझता हूँ कि अगर इस सवाल को यूएनओ में ले जाया जाय, तो हमलोगों का भी उसमें समर्थन होगा।
इस बारे में एक कमीशन बैठा देने से काम नहीं चलेगा, अगर सिंसियरिटी ऑफ परपज नहीं है। वही लहँगा, वही साड़ी जो पहले थी, वह अब भी है। उनकी जगह पर आप बैठ गए, बड़ी बड़ी कोठियों में चले गए, बड़ी बड़ी गाड़ियों में बैठते हैं, इमरजेंसी में जो मारपीट हुई थी, वह सब भूल गए, और फिर वही जवाब देने लग गये, मैं इसको अच्छा समझता हूँ।
मैंने एक अमेंडमेंट दिया है, जिसका मतलब है कि पार्लियामेंट के रेस्पांसिबल मेम्बरों की एक कमिटी बनाई जाये, जो इस समस्या पर विचार करे।
श्री चंद्रशेखर सिंह (वाराणसी) :
सभापति महोदय, यह बहुत सीरियस बात है। क्या यहाँ कोई मेम्बर इरेस्पोंसिबल भी है ? माननीय सदस्य ने कहा है कि रेस्पोंसिबल मेमबर्स की एक कमिटी बनाई जाये।
श्री बी पी मण्डल : अगर मैंने रेस्पोंसिबल कह दिया, तो मेरा मतलब यह नहीं था कि बाँकी मेमबर्स इरेस्पोंसिबल हैं। इस तरह समझने का नतीजा है कि हिंदुस्तान में ये ज़ुल्म हो रहें हैं। बात बात पर भिनक जाते हैं।
मैंने यह अमेंडमेंट दिया है :
That in the Motion, ---
add at the end ---
"and recommends that a Committee of MPs be appointed to go into its causes and suggest preventive measures."

मैं फिर से यह कहना चाहता हूँ कि इस रेवोल्यूशन के बाद जनता पार्टी की जो रिस्पांसिबिलिटी है, उसको देखते हुए यह बिलकुल अवांछनीय है कि एक भी हरिजन को जलाया जाये। अगर ऐसी बात होती रहे, तो यह शर्म की बात है।
संकलन -
डा सूरज मण्ड़ल (SSN College, University of Delhi)
डा रतन लाल (Hindu College, University of Delhi).

Sunday, March 4, 2018

SSC पेपर लीक मामला: विरोध में सड़को पर सैकड़ो छात्र, CBI जांच की मांग:

पिछले दो दिनों से लगातार विरोध प्रदर्शन कर रहे विद्यार्थियों ने एसएससी(SSC) का पेपर लीक होने का गंभीर आरोप लगाया है। इसको लेकर छात्रों की मांग है कि इस मामले में सीबीआई जांच होनी चाहिए।
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, इस मामले में छात्रों ने यह गंभीर आरोप लगाया है कि एसएससी द्वारा आयोजित सीजीएल 2017 के टियर 2 की परीक्षा के प्रश्न पत्र और अनसर की लीक हो गई थी। इसके बाद ही छात्र सड़कों पर विरोध प्रदर्शन करने में जुटे है। छात्रों ने यह आरोप गंभीर आरोप लगाया है कि एसएससी परीक्षा में घोटाला किया जा रहा है।
इस बीच, ‘बड़े पैमाने पर’ धोखाधड़ी के विरोध में हजारों एसएससी उम्मीदवार सड़कों पर उतर आए। विरोध कर रहें एक छात्र ने कहा कि, ‘यह कम से कम 1,000 करोड़ का घोटाला है, कोई भी हमें सुनने के लिए तैयार नहीं है हम अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठेंगे और इस भ्रष्ट व्यवस्था से लड़ेगे।’
छात्रों का कहना है कि सीबीआई इसमें निष्पक्ष तरीके से पूरी जांच करें और इसमें शामिल दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। बता दें कि, एसएससी उम्मीदवार दिल्ली में कमीशन के कार्यालय के पास विरोध कर रहे हैं, बड़े पैमाने पर पीड़ित छात्र सरकार का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं।
**तुम क्या जानो फर्जी डिग्री वाले चौकीदार, ये स्टूडेंट्स से पूछो कितनी मेहनत लगी है एग्जाम क्लियर करने में यार, दोस्तों में आपके जज्बे को धन्यवाद देता हूँ - लड़ेंगे तो जीतेंगे।
~ Jignesh Mevani.
** #sscscam
SSC CGL 2017 mains paper leaks, India’s youth on streets, jobs being sold openly through private agencies.
For 2 days, hapless youth protest without food and water near Khan Market, Delhi yet a failed Modi Govt arrogates & refuses to listen.
Where are the jobs Modiji?
~ Randeep Singh Surjewala.
** हज़ारों छात्र SSC exam scam की CBI enquiry की माँग कर रहे है। ये मुद्दा हज़ारों छात्रों के भविष्य से जुड़ा है। केंद्र सरकार को छात्रों की माँग तुरंत मान कर CBI enquiry करानी चाहिए।
~ Arvind Kejriwal
**‘दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस तरह से एसएससी की संयुक्त स्नातक स्तर की परीक्षा पत्र लीक हो गया है और अब परीक्षा रद्द कर दी गई है। 30 लाख से अधिक सपने बिखर गए कौन हमें कुछ लाखों लोगों के भविष्य के साथ खेलने की अनुमति देता है?
~ Dr. Kumar Vishwas.
#SSCExamScam #sscexamfixing #SSCScam

Wednesday, February 28, 2018

मन पसंद गीत : पोछ कर अश्क़ अपने आँखों से, मुस्कुराओ तो कोई बात बने!

पोछ कर अश्क़ अपने आँखों से, मुस्कुराओ तो कोई बात बने,
सर झुकाने से कुछ नहीं होता, सर उठाओ तो कोई बात बने।
पोछ कर अश्क़ अपने आँखों से, मुस्कुराओ तो कोई बात बने।

ज़िंदगी भीख में नहीं मिलती, ज़िंदगी बढ़ के छीनी जाती है,
अपना हक़ संगदिल ज़माने से, छीन पाओ तो कोई बात बने।
सर झुकाने से कुछ नहीं होता, सर उठाओ तो कोई बात बने।

रंग और नस्ल, जात और मज़हब, जो भी हो आदमी से कमतर है,
इस हक़ीक़त को तुम भी मेरी तरह, मान जाओ तो कोई बात बने।
सर झुकाने से कुछ नहीं होता, सर उठाओ तो कोई बात बने।

नफ़रतों के जहान में हमको, प्यार की बस्तियाँ बसानी है,
दूर रहना कोई कमाल नहीं, पास आओ तो कोई बात बने।
पोछ कर अश्क़ अपने आँखों से, मुस्कुराओ तो कोई बात बने,
सर झुकाने से कुछ नहीं होता, सर उठाओ तो कोई बात बने।

~ साहिर लुधियानवी

Friday, January 5, 2018

यूं ही नहीं कोई #फेकू कहलाता है ! झूठ और फरेब के फैक्ट्री हैं #साहेब और उनके #भक्त।

यूं ही नहीं कोई #फेकू कहलाता है !
झूठ और फरेब के फैक्ट्री हैं #साहेब और उनके #भक्त।
2017 के सबसे जबरदस्त 'फेक न्यूज' (फ़र्ज़ी समाचार या पोस्ट) #साहेब और #भक्तों नाम !
1. प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी की अहमदाबाद से मेहसाना के एक सी प्लेन पर उड़ान को भारत की तरफ से सबसे पहले समुद्री विमान सेवा के रूप में प्रचारित किया गया था। यह दावा प्रधान मंत्री मोदी की निजी वेबसाइट www.narendramodi.in द्वारा किया गया जिसे बाद में भाजपा कार्यकर्ताओं और मुख्यधारा के #गोदी_मीडिया द्वारा जोर-शोर से दोहराया गया था। हालांकि, सच्चाई यह है कि 2010 में अंडमान और निकोबार द्वीपों में जल हंस द्वारा पहली बार सी प्लेन सेवा शुरू गया था।
2. भारत के पहले सीपलेन के दावे की तरह, भारत के पहले मेट्रो दिल्ली मेट्रो के दावा आया। यह दावा एक भाषण में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने दावा किया था। प्रधान मंत्री मोदी ने दावा किया कि पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी 2002 में देश की पहली मेट्रो सेवा पर यात्री थे। हालांकि, भारत में पहली मेट्रो सेवा 1984 में कोलकाता में शुरू हुई थी।
3. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की विधानसभा चुनाव की पूर्व संध्या पर गुजरात के सोमनाथ मंदिर की यात्रा पर विवाद उभरा था, जब दावा किया गया था कि उन्होंने मंदिर में प्रवेश के लिए गैर हिंदुओं के लिए रजिस्टर पर हस्ताक्षर किए थे। मूल रूप से ज़ी गुजरात के एक पत्रकार ने प्रकाशित किया, और यह फ़र्ज़ी 'न्यूज़' मुख्यधारा के मीडिया की सबसे बड़ी कहानी थी। बाद में यह सामने आया कि प्रविष्टि वास्तव में किसी और के द्वारा बनाई गई थी और यह ऐसा प्रतीत करने के लिए गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया था कि राहुल गांधी ने इसे हस्ताक्षर किया था। मूल प्रवेश नियमित मंदिर रजिस्टर में किया गया था।
4. #टाइम्स_नाउ ने प्राइम टाइम पर एक कहानी की, जिसमें उन्होंने दिखाया कि किस तरह गाय का वध के पहले कैसे उस पर 'अत्याचार' किया गया था। कहानी के लिए हैशटैग #CowSlaughterCruelty था, और पशुओँ पर क्रूरता दर्शाया गया था। यह वीडियो में से एक वास्तव में मवेशियों के गर्भाशय मरोड़ के रूप में जाना जाता है, और गर्भवती मवेशियों के इलाज के लिए एक पशु चिकित्सक प्रक्रिया है।
5. उडुपी-चिकीमोगलूर के भाजपा सांसद शोभा करंदलाजे ने आरोप लगाया कि परेश मेस्टा, जो राज्य के उत्तरा कन्नड़ जिले में होनवानावर शहर में झील में मृत पाया गया, की 'जिहादी तत्वों' ने क्रूरता से अत्याचार और हत्या कर दी थी। बाद में जांच के बाद यह झूठ पाया गया।
6. 2012 में फिलिस्तीन में ली गयी एक तस्वीर जिसमें में एक आदमी को अपने पैरों के साथ एक बाइक से बाँध कर घसीटते हुए दिखाई पड़ा, को सोशल मिडिया पाकिस्तान का बताया गया। फोटो के साथ कैप्शन में लिखा था, 'यह एक हिंदू है जो पाकिस्तान में जय श्रीराम का नारा लगा रहा था। इस पोस्ट को इतना साझा करें कि प्रत्येक हिन्दू इसे देखे।'
7. भाजपा सांसद किरण खेर ने सैनिकों के ट्विटर अकाउंट पर एक तस्वीर पोस्ट की, जो बेहद ठंड के मौसम से जूझ रहे एक सैनिक का था। उसने ट्वीट किया कि यह सियाचिन में तैनात भारतीय सेना के सैनिकों की तस्वीर है। सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा वह तस्वीर दरअसल रूसी सेना के सैनिकों की थी।
8. रतन शारदा, आरएसएस के विचारक और विचारधारा और कई अन्य लोगों ने एक संदेश को ट्वीट किया, जिसमें दावा किया गया था कि ए राजा और कनिमोझी को बरी कर रहे 2 जी घोटाले के फैसला देने वाले न्यायाधीश ओपी सैनी पंजाब के सबसे कम उम्र के विधायक अंगद सैनी के पिता हैं। यह जानकारी गलत साबित हुई क्योंकि दोनों का कोई सम्बन्ध नहीं हैं। शारदा ने बाद में अपनी ट्वीट को हटा दिया।
9. गुरमेहर कौर (लेडी श्री राम कॉलेज की छात्रा, शहीद की बेटी) का वीडियो, जिसमें उसे 'रसके कमर'गाते बताया गया, उसका था ही नहीं। किसी और का था।
10. चंडीगढ़ में आईएएस की बेटी, वर्णिका कुंडू, जिसने हरियाणा भाजपा प्रदेश अध्यक्ष पर 'किडनैप' के प्रयास का आरोप लगाया, किसी और के फोटो को उसका बता कर भाजपा प्रवक्ता साइना आईसी ने उसे बदनाम किया।
11. कन्हैया कुमार के जेएनयू सभा के वीडियो में पाया गया कि भारत विरोधी ऑडियो ऊपर से डाला गया था।
12. संबित पात्रा ने एक फोटोशॉप तस्वीर को भारतीय सैनिकों का कह कर शेयर किया।
13. भाजपा प्रवक्ता नूपुर शर्मा ने गुजरात दंगों के फोटो को बंगाल का कह कर प्रोटेस्ट आयोजित किया।
14. बाबुल सुप्रियो एक गलत तस्वीर को गुजरात के राजकोट के बस स्टैंड का कह कर शेयर किया।
15. केरल भाजपा नेता के सुदर्शन ने गाय के कत्ले आम का फोटोशॉप तस्वीर फूक पर शेयर किया।
16 .सबसे दिलचस्प था भोजपुरी फिल्म की एक सीन को बंगाल में बसीरहाट में हुए महिला के साथ अभद्रता बता कर शेयर किया गया।
17. पियूष गोयल ने विदेश की एक तस्वीर को अपने मंत्रालय के प्रयास से रौनक एक सड़क को बताया।