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New Delhi, NCR of Delhi, India
I am an Indian, a Yadav from (Madhepura) Bihar, a social and political activist, a College Professor at University of Delhi and a nationalist.,a fighter,dedicated to the cause of the downtrodden.....

Friday, December 15, 2017

सबका मालिक एक : ईवीएम चिप और मोदी के मुख्य मंत्री रहते गुजरात गैस घोटाला।

खुलासा हुआ है कि GSPC घोटाले में शामिल कंपनी और ईवीएम की चिप बनाने वाली कंपनी का मालिक एक ही है।
गुजरात स्टेट पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन (GSPC) वो कंपनी है जो गुजरात समुन्द्र तट में गैस की खोज कर रही थी। 26 जून 2005 को गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रेस कांफेर्रेंस में घोषणा की थी कि इस कंपनी द्वारा खोजी गई गैस का मूल्य 2 लाख करोड़ रुपये होगा। इससे गुजरात को सालों तक बाहर से गैस खरीदने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
इस प्रोजेक्ट को गुजरात सरकार की तरफ से 1500 करोड़ दिए गए। साथ ही समय के साथ साथ सरकारी बैंकों की ओर से 20 हज़ार करोड़ रुपये दिए गए। लेकिन गैस निकलने का जो दावा था वो पूरा नहीं हुआ और पैसे डूब गए।
इस प्रोजेक्ट में मुख्य कंपनी Goe Global Services,India (GGR) है। इस कंपनी का गैस खोजने जैसे कामों में कोई तजुर्बा नहीं है उसके बाद भी गुजरात सरकार ने देश की सरकारी और तजुर्बे वाली कंपनी ONGC को प्रोजेक्ट में ना लेकर GGR को लिया गया। आरोप है कि इस कंपनी को हज़ारों करोड़ का फायदा हुआ और CAG रिपोर्ट के मुताबिक गुजरात GSPC को 20 हज़ार करोड़ का घाटा।
Goe Global Services (India) की मूल कंपनी Goe Global Services Inc. है, जिसका मुख्यालय कैलगरी, कनाडा में है। दिलचस्प बात यह है कि, Goe Global Services Inc. अमेरिका के एक वित्तीय समूह Key Capital Corp. (KCC) की सहायक कंपनी है। भारत में उपयोग किए जाने वाले ईवीएम के लिए माइक्रोचिप बनाने वाली अमेरिकी कंपनी Microchip Inc. और KCC स्वामित्व काफी हद तक एक ही है। मतलब एक ही कंपनियों ने दोनों में निवेश कर रखा है।
Vanguard Group ltd, Blackrock Inc., State Street Corp., Jp Morgan Chase Co., Price Rowe Associates Inc., Barrow Hanley MewHinney, Invesco ltd. ने KCC और ईवीएम चिप बनाने वाली Microchip Inc. दोनों में निवेश किया है। Microchip Inc में निवेश करने वाली 15 कम्पनियाँ हैं जिसमें से 7 वो हैं जिनका निवेश KCC में भी है।
मतलब Microchip Inc और KCC की कंपनी Goe Global Services (India), जिसकों कथित GSPC घोटाले में फायदा पहुंचा, की मालिक एक ही कम्पनियाँ हैं। साथ ही ये भी बता दें, कि इस समय चुनाव आयोग के मुख्य चुनाव आयुक्त अचल कुमार ज्योति गुजरात में GSPC के चेयरमैन थे। मतलब कथित GSPC घोटाला उनकी नाक के नीचे ही हुआ है।
यानि सबका मालिक एक "जय हो मोदी"।

Wednesday, November 29, 2017

केंद्र सरकार के नौकरियों में आरक्षण के लाभों का वितरण के लिए पिछड़े वर्ग के उप वर्गीकरण के लिए जस्टिस रोहिणी कमीशन:

केंद्र सरकार के नौकरियों में आरक्षण के लाभों का वितरण के लिए पिछड़े वर्ग के उप वर्गीकरण के लिए जस्टिस रोहिणी कमीशन:
पिछड़े वर्ग का आरक्षण विवाद का केंद्र रहा है। दरअसल, संविधान के अनुच्छेद 340,341,342 तथा अनुच्छेद 15(4),के अनुसार विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका तथा मीडिया तथा अन्य संस्थाओं में जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व होना चाहिए। परन्तु, जैसा मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, अक्सर समाज के पिछड़े वर्ग को प्रतिनिधित्व या समान अवसर देने में एक बड़े तबके को "हार्टबर्न" या हृद्दाह अथवा नाख़ुशी होती है। यह उस समय दिखा था जब 7 अगस्त, 1991 को मंडल आयोग की रिपोर्ट को ठन्डे बस्ते से निकाल कर आंशिक रूप से केंद्र सरकार की नौकरियों में लागू करने का वी पी सिंह सरकार ने फैसला किया था। फिर जबरदस्त विरोध का दौर चला। मामला सर्वोच्च न्यायालय में गया, जहाँ दिग्गज वकील राम जेठमलानी ने इसका बचाव किया। लोगों को लग रहा था की सर्वोच्च न्यायालय इसे निरस्त कर देगी। परन्तु सर्वोच्च न्यायालय के फैसले अनुसार पिछड़े वर्ग के आरक्षण में कृमि लेयर लागू किया गया और यह उल्लेखनीय है कि उच्चतम न्यायालय ने इंदिरा साहनी एवं अन्य बनाम भारत सरकार मामले में 16 नवंबर 1992 को अपने आदेश में व्यवस्था दी थी कि पिछड़े वर्गों को पिछड़ा या अति पिछड़ा के रूप में श्रेणीबद्ध करने में कोई संवैधानिक या कानूनी रोक नहीं है।
इसी प्रावधान के मद्देनज़र, 2 अक्टूबर, 2017 को नरेंद्र मोदी कैबिनेट के अनुशंसा पर संविधान की धारा 340 के अंतर्गत महामहिम राष्ट्रपति ने अन्य पिछड़ा वर्गों के सभी स्तरों के बीच केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण के लाभों व संसाधनों के समान वितरण के तरीके और पर विचार कर अन्य पिछड़ा वर्ग के उप वर्गीकरण के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय रिटायर्ड चीफ जस्टिस जी रोहिणी की अध्यक्षता में एक कमीशन का गठन किया है। इस कमीशन के एक अन्य महत्वपूर्ण सदस्य डा जे के बजाज हैं। आयोग के अध्यक्ष द्वारा प्रभार धारण के बारह हफ्तों की अवधि के भीतर आयोग को अपनी रिपोर्ट पेश करने के लिए कहा गया है।
संदर्भ की शर्तों के अनुसार आयोग को केंद्रीय सूची के अन्य पिछड़ा वर्गों की व्यापक श्रेणी में शामिल जाति या समुदायों में आरक्षण के लाभों के गैर-लाभकारी वितरण की सीमा को जांचने के लिए कहा गया है तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के उप वर्गीकरण की विधि और तंत्र, मापदंड, मानदंड और पैरामीटर तय करने के लिए भी कहा गया है।
यहाँ अन्य पिछड़े वर्ग के आरक्षण की पृष्ठभूमि पर थोडी जानकारी आवश्यक है।
देश की आज़ादी के बाद यह भी बात उठी कि इन वर्गों के अलावे कई और सामाजिक तपके हैं, जिन्हें भी विशेष अवसरों कि आवश्यकता होगी। सामाजिक और शैक्षणिक रूप से इन पिछड़े वर्गों का पता लगाने के लिए संविधान के धारा 340 के अनुसार एक आयोग बनाने का प्रावधान किया गया, जिसे पिछड़ा वर्ग आयोग कहा जाना था।
पंडित नेहरू पर इस बात का दबाब बढ़ने पर 29 जनवरी, 1953 को काका कालेलकर की अध्यक्षता में पहले पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया गया जिसने 30 मार्च 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंप दी।इस रिपोर्ट के अनुसार 2,399 जातियों को पिछड़ा वर्ग में शामिल किया गया, जिनमें 837 जातियों को अति-पिछड़ा घोषित किया गया। लेकिन इस आयोग के रिपोर्ट कि सबसे दिलचस्प पहलु यह थी कि आयोग के अध्यक्ष ने रिपोर्ट के साथ माननीय राष्ट्रपति को दिए गए अपने पत्र में अपनी ही रिपोर्ट को ख़ारिज कर दी।
इसी पत्र के आधार पर वर्षों तक पिछड़े वर्ग के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया। 1977 के लोक सभा चुनाव में नवगठित जनता पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र में पिछड़े वर्ग के लिए विशेष उपाय पूरे संजीदगी से उठाया गया और उस चुनाव में जनता पार्टी ने कांग्रेस को पहली और करारी हार दी।
राष्ट्रपति ने 1 जनवरी, 1979 को पिछड़ा वर्ग आयोग कि गठन कि अधिसूचना जारी की जिसके अध्यक्ष बिहार के पूर्व मुख्य-मंत्री बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल (बी पी मंडल) को बनाया गया। उन्हीं के नाम पर इस आय़ोग को मंडल आयोग के नाम से जाना गया। बी पी मंडल ने 31 दिसंबर,1980 को नई दिल्ली के विज्ञानं भवन में राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह को रिपोर्ट सौंप दी।
मंडल कमीशन रिपोर्ट तो पूरे विज्ञानिक आधार के बनायी गयी की वर्षों बाद सर्वोच्च न्यायलय के सम्पूर्ण बेंच द्वारा भी इसमें किसी तरह कि कमी नहीं निकाली जा सकी। रिपोर्ट 5 वॉल्यूम में है। पहले वॉल्यूम में रिपोर्ट और अनुशंसा है। दुसरे में तमाम जुड़े कागजात का 'अपेंडिक्स' है। तीसरे में आज़ादी और उसके पहले से आरक्षण पर पूरे भारत में न्यायालय में दायर केस और उनके निर्णय की इंडियन लॉ इंस्टिट्यूट द्वारा किया गया विस्तृत अध्यन है। चौथे वॉल्यूम में भारत के 31 राज्यों (उस समय के) में प्रत्येक ज़िले में जातियों का अध्यन है जो प्रतिष्ठित टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज द्वारा किया गया है। पांचवे वॉल्यूम में राज्यवार जातियों की सूची है जिन्हें पिछड़े वर्ग की केंद्रीय सूची में शामिल किया गया है। रिपोर्ट में 1931 में हुए आखिरी जाति आधारित जनगणना के अनुसार भारत के 52% जनसंख्या जिसमें 3,743 अलग अलग जातियों को समाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा या ‘backward’ घोषित किया गया। परन्तु चुकी पहले से अनुसूचित जाति/जनजाति को 22.5% आरक्षण प्राप्त था अतः कई अन्य अनुशंसाओं के साथ साथ उनके लिए 27% आरक्षण का प्रावधान करने के लिए कहा गया, जिसे जोड़ने के बाद आरक्षण का कुल प्रतिशत 49.5 होता था जो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय सीलिंग 50% से कम था।
1989 का लोकसभा चुनाव के बाद वी. पी.सिंह प्रधानमंत्री बने और दिसंबर 1980 से ठन्डे बस्ते में पड़ी मंडल आयोग के रिपोर्ट को 7 अगस्त, 1991 को आंशिक रूप से लागू कर दिया। और उधर मंडल कमीशन का भीषण विरोध शुरू हो गया। अतः वास्तव में मंडल कमीशन की सिफारिशों से भारतीय राजनीति और समाज में भूचाल आ गया।
अब हम यह जानते हैं कि पिछड़े वर्ग का उप वर्गीकरण क्या है ? इस बात की मांग उठती रही है कि अन्य पिछड़ी जातियों में जो आर्थिक और सामाजिक रूप से मजबूत जातियां हैं उनको आरक्षण का सबसे ज्यादा फायदा मिल रहा है और बिल्कुल हाशिए पर की जातियां आरक्षण के लाभ से वंचित हैं। इस तर्क के अनुसार बिहार में मुंगेरी लाल कमीशन के अनुसार कर्पूरी ठाकुर फार्मूला लागू किया गया जिसके तहत एनेक्सचर-1 और एनेक्सचर- 2 की जातियों का विभाजन कियागया था और आरक्षण के भीतर आरक्षण देने का फैसला किया था। अन्य पिछड़ी जातियों में वर्गीकरण कराने और क्रीमी लेयर के दायरे को छोटा करने का केंद्र सरकार का फैसला इस बात का संकेत है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिहार के कर्पूरी ठाकुर फार्मूला को केंद्र स्तर पर लागू करना चाहते हैं।
परन्तु इससे कुछ अन्य चिंताएं जुडी हुई है। सबसे अधिक जिज्ञासा दो बिंदुओं पर है। एक, मंडल आयोग लागू होने के बाद पिछड़े वर्ग का केंद्रीय सरकार की नौकरियों में कितना प्रतिनिधित्व है ? और दूसरा आज की परिस्थिति में केंद्र सरकार की नौकरियाँ ही कितनी है ?
इस सन्दर्भ में 26 दिसंबर, 2015 के टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपे एक रिपोर्ट के अनुसार मंडल आयोग की सिफारिश के आंशिक रूप से लागू किये जाने के 20 वर्ष बाद भी केंद्र सरकार की नौकरियों में अन्य पिछड़े वर्ग की संख्या 12 प्रतिशत से भी कम है। एक आरटीआई से प्राप्त जानकारी के आधार पर कहा गया है कि 1 जनवरी, 2015 तक मण्डल आयोग की रिपोर्ट के कार्यान्वयन के 2 दशक बाद केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की अनुशंसा किये जाने के बाद भी आंकड़े बताते हैं कि केंद्र सरकार के मंत्रालयों, विभागों और सांविधिक निकायों के 12 प्रतिशत से कम कर्मचारी अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से हैं। इस सम्बन्ध में केंद्र सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय सहित 40 मंत्रालय और सामाजिक न्याय विभाग सहित 48 विभागों ने आरटीआई का जवाब नहीं दिया। फिर भी, उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक केंद्र सरकार में कार्यरत समूह ए, बी, सी और डी श्रेणी के कर्मचारी के 79,483 पदों में से केवल 9,040 कर्मचारी ओबीसी हैं।
एक आरटीआई के अनुसार रोजगार के सन्दर्भ में 74 मंत्रालोयों और विभागों ने सरकार को बताया है कि अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों की 2013 में 92,928 भर्तियां हुई थीं। 2014 में 72,077 भर्तियां हुईं। मगर 2015 में घटकर 8,436 रह गईं। इस तरह नब्बे फीसदी गिरावट आई है।
अतः यह ज़रूरी होगा की सरकार यह जानकरी दें की पिछड़े वर्ग में प्राप्त आरक्षण में किन जातियों का प्रतिनिधित्व कितना है ? साथ ही दावेदारी कितनी है ?
अगर जातियों की दावेदारी और प्राप्त हिस्सा में अन्तर हो तो उप वर्गीकरण से निश्चित तौर पर लाभ होगा। अगर न दावेदारी है, न जातियों को हुए फायदे के आंकड़ें हैं और न ही सरकार को देने के लिए रोजगार है, तो पिछड़े वर्ग के आरक्षण उप वर्गीकरण का कोई मतलब नहीं है और न ही इसका कोई राजनैतिक लाभ नरेंद्र मोदी की सरकार को मिलेगा।

Tuesday, November 7, 2017

नोटबंदी : अब तक का सबसे बड़ा स्कैम.

नोटबंदी :
अब तक का सबसे बड़ा स्कैम,
गरीबों के खून पसीने की कमाई का मोदी सरकार द्वारा लूट।
8 नवम्बर, 2016 को रात आठ बजे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी टेलीविजन पर आए और बोले, "आज से 500 रु एवं 1000 रु के नोट कागज का टुकड़ा है, रद्दी बन गया है।"
दरअसल, नोटबंदी पर मोदी के झूठ के सिलसिला में यह पहला बड़ा झूठ था। क्योंकि घोषणा अनुसार भी जो नोट अमान्य हो गए थे, उन्हें बदला जा सकता था। लोग लाइनों में खड़े होकर नोट बदलते रहे। जैसा की हम सब देखे कि इस घोषणा के लगभग 38 दिनों बाद भी आप इन 500 व 1000 के नोटों से पेट्रोल खरीद सकते थे, डीजल खरीद सकते थे, लेकिन अनाज नहीं खरीद सकते थे, दूध, सब्जी, दाल नहीं खरीद सकते थे।
क्यों? इसलिए की पेट्रोल अम्बानी का है, और चावल, गेंहूँ, दूध, आलू वगैरह आम आदमी के हैं।
परिणाम ?
मोदी सरकार के अनुसार भारतीय रिजर्व बैंक को नोटबंदी से 16,000 करोड़ रुपये का फयदा हुआ, लेकिन नए नोट्स को छपाई में 21,000 करोड़ रुपये का घाटा हुआ।
एक खूबी है इस जुमलेबाज़ में, झूठ भी सच की तरह ही कॉन्फिडेंस से बोलता है।
15 अगस्त के भाषण में मोदी के झूठ सामने आने का सिलसिला जारी। नोटबंदी के बाद 91 लाख नए करदाता जुड़ने की बात निकली गलत।
असफल था। नोटबंदी का उद्देश्य काले धन को सिस्टम से बाहर करना था, अगर वो किसी न किसी रूप में बैंक में आ गया तो इसका मतलब है कि धन किसी तरह से काले धन में बदला गया है और सफेद धन बनकर बैंकिंग सिस्टम में आ गया है। ये इसकी असफलता दर्शाता है।
रिजर्व बैंक ने अपने इतिहास में पहली बार बैलेंसशिट जारी करने से हाथ खीच लिया है. ऐसा करने से नोटबंदी के प्रभावों का देश को पता तक नहीं चलेगा. आरबीआई के इस भगोड़े स्टैंड को अमित कुमार 2जी और कोल ब्लॉक घोटाला से भी बड़ा घोटाला बता रहे हैं जिसमें मोदी सरकार की गर्दन फंसी हुई है।
2G, कोल ब्लॉक आवंटन में तो सीएजी ने 1.75 लाख करोड़ और 2.8 लाख करोड़ के घोटाले का आभासी तथा सनसनीखेज आंकड़ा सनसनी पैदा करने के लिए दिया था। लेकिन इसमें तो सीधा-सीधा कैश का उटलफेर हुआ है। गौर कीजिए–
* आरबीआई स्पष्ट रूप से नहीं बता रहा कितने मूल्य के नए नोट जारी किये?
* कितने मूल्य के हज़ार और पांच सौ के पुराने नोट रद्द किए गए?
* कितने पुराने नोट वापस नहीं आये?
* कितने जाली नोट चलन में थे, कितने पकड़े गए?
* नोटबंदी का मौद्रिक रूप में क्या लाभ हुए?
घोटाले तीन तरह से हुए हैं — नए नोट छापकर बड़ी मात्रा में पहले ही आकाओं को दे दिए गए। इसके समायोजन के लिए भरसक प्रयास किया गया कि लोगों को पुराने नोट बदलने के लिए हतोत्साहित किया गया। जिससे लोग पुराने नोट न जमा करें। दूसरा तरीका यह था कि आकाओं के नकली नोट बदले गये। तीसरा उनके काले धन के रूप में रहे पुराने नोट को एकबारगी में नए नोट से बदल दिए गये। इस तरह तीन-चार लाख करोड़ का महाघोटाला हुआ। यह आकंड़े बढ़ भी सकते हैं। अगर सुप्रीम कोर्ट में अपनी निष्पक्षता के विख्यात पूर्व मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में एक सर्वदलीय कमेटी से इसकी पूरी पारदर्शिता से जांच हो तो यह वैश्विक इतिहास का सबसे बड़ा महाघोटाला साबित होगा। यह अमरीका के इशारे पर किया गया, इसके भी सबूत हैं।
कंटपा ने बाहुबली को क्यो मारा ये तो आप को पता चल जाएगा , लेकिन नोटबंदी से क्या लाभ हुआ , ये हास्यपद और गोपनीय ही रहेगा ! मीडिया के पिछले जुमलो का स्मरण करिए , ये देखिये नक्सलियों की नोटबंदी से कमर टूटी , नोट बर्बाद हो गए , पाकिस्तान को मुह की पड़ी , आंतकवादी की कमी , इससे तो ज्यादा हास्यपद मीडिया दाऊद इब्राहिम की नोटबंदी से कमर टूटने , दहसत मे होने की ख़बर देता है !
सवालों से घिरा मोदी सरकार।
नोटबंदी के मोदी जी ने तीन फ़ायदे बताए थे
1. नक़ली नोट ख़त्म
2. काला धन रद्दी का टुकड़ा हो जाएगा
3. आतंकवाद और उग्रवाद की कमर टूट जाएगी।
मोदी जी ख़ुद बता दें कि देश को लाइन में क्यों खड़ा किया?
इस 3 फ़रवरी को कोलकाता में एक क़त्लेआम-सा हुआ। इस दिन आनंदबाजार पत्रिका समूह के 700 स्टाफ़ से इस्तीफ़ा लिखवा लिया गया। उनमें से ज़्यादातर पत्रकार और कर्मी वैसे हैं, जो उम्र के इस पड़ाव पर नई नौकरी शायद ही खोज पाएँ। ऑफ़िस में लोग रो रहे थे। चीख़ रहे थे।
कंपनी कह रही है नोटबंदी के कारण करना पड़ा। आनंदबाजार किसी दौर में देश का सबसे बड़ा अखबार था। जागरण और भास्कर से भी बड़ा। टेलीग्राफ़ भी इनका ही है।
नोटबंदी से जब देश को लाभ हुआ है तो फिर उस लाभ का कुछ हिस्सा किसानों को देने में मोदी सरकार को क्या दिक़्क़त है...???
दरअसल नोटबंदी से क्या दिक्कत है, पढ़िए :
Ø बंद नोटों का 99 प्रतिशत बैंकों में जमा होना इस बात का प्रमाण है कि नोटों की शक्ल में कालाधन था ही नहीं और यदि था तो भी केवल उस 6 प्रतिशत का भी एक छोटा भाग क्योंकि भारत की जी0डी0पी0 में नोटों का हिस्सा केवल 6 प्रतिशत है। जबकि नोटबंदी का सबसे बड़ा कारण कालाधन वापस लाना बताया गया था जो सरासर गलत साबित हुआ।
Ø यह फैसला न तो भारतीय अर्थव्यवस्था के पक्ष में था न ही आम जनता के पक्ष में क्योंकि भारत में 93 प्रतिशत कामगार असंगठित क्षेत्र से संबद्ध है जो नकद पर निर्भर करते हैं यानि हमारी अर्थव्यवस्था में 78 प्रतिशत विनिमय नकद में किया जाता है जो एकाएक ठप हो गया। जिसके परिणाम स्वरूप हजारों छोटे एवं मंझोले उद्योग धंधे, कल-कारखाने बंद हो गये एवं बेरोजगारी में बेतहाशा वृद्धि हुई।
Ø इस प्रकार पुराने नोटों को बदलने संबंधी नियमों को 40 दिन में 60 बार बदला गया जो दर्शाता है कि बिना सोचे समझे लिया गया फैसला था जिससे आम लोगों की परेशानियां बढ़ी।
Ø यह सरकार की असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा का प्रमाण है कि बैंकों से अपना पैसा पाने के लिए लोगों को लंबी कतारों में लगना पड़ा, सैंकड़ों लोग मरे, कई लोगों ने आत्महत्याएं कर ली-इसके लिए कौन जिम्मेदार है? यह किसी अन्य देश में हुआ होता तो प्रधानमंत्री अपने पद पर नहीं होते।
Ø नोटबंदी से कालाधन तो वापस आया नहीं बल्कि उल्टे नोटों की छपाई पर करीब 12 हजार करोड़ रूपये जनता की गाढ़ी कमाई के पैसे बर्बाद किये गये।
Ø नोटबंदी के कारण पिछले छः तिमाहियों में जी0डी0पी0 विकास दर 9.2 प्रतिशत से गिरकर 5.7 प्रतिशत पर आ गया जो भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक साबित हुआ।
Ø नोटबंदी ने किसानों की कमर तोड़ दी, खाद्य-बीज एवं खेतों की जुताई आदि के लिए नकद का ही प्रचलन है लेकिन नोटबंदी के कारण किसान बैंकों के चक्कर काटने लगे जिससे भारतीय कृषक और कृषि पर प्रतिकुल प्रभाव पड़ा।
Ø बड़े पैमाने पर अस्पतालों एवं नर्सींेग होम में नकदी के अभाव में मरीजों का ईलाज प्रभावित हुआ।
Ø नोटबंदी के एक वर्ष पूरा होने पर जनता सरकार से पूछना चाहती है कि कालेधन, आतंकी-धन प्रवाह कहां गया? और इस पूरी प्रक्रिया से देश और अवाम को क्या लाभ हुआ है इसके बारे में प्रधानमंत्री एवं वित्तमंत्री को जवाब देना होगा।
नोटबंदी एक धोखा है, घोटाला है, देशद्रोह है।
आईये 8 नवम्बर को इसका विरोध कर मोदी सरकार को यह जनता का सन्देश दें की इस धोखा का परिणाम मोदी को अगले चुनाव में भगतना पड़ेगा।
#मोदी_भगाओ_देश_बचाओ

Friday, October 20, 2017

अली अनवर, शरद यादव हाज़िर हो।

जनाब अली अनवर और शरद यादव को 30 अक्टूबर, 2017 को 10 बजे सभापति वेंकय्याह नायडू के समक्ष सरकारी जद यू के बाबू आरसीपी सिंह के शिकायत पर हाज़िर होने के लिए कहा गया है।
ऐसा पहली बार हो रहा है कि इस तरह की शिकायत पर बिना संसद की किसी समिति के समक्ष अपनी बात रखने का मौका मिले, किसी सांसद को इस तरह से सभापति के समक्ष खुद (वकील रखने की इज़ाज़त नहीं दी गयी है) हाज़िर होने कहा जा रहा है।
विजय माल्या, जिसे मोदी सरकार द्वारा सरकारी बैंकों का ₹9,000 करोड़ (US$1.4 billion) लेकर फरार होने दिया गया, उसे भी अपनी बात कहने का मौका दिया गया। आखिर में प्रक्रिया शुरू होने के साल भर के बाद जेटली साहब के इशारे पर उसने राज्य सभा से इस्तीफा दे दिया। क्या यही तत्परता कैप्टन जय नारायण निषाद, विजय माल्या या इसाम सिंह के मामले में दिखाई गई? यदि नहीं तो जल्दीबाजी क्या थी? इस मामले में राजनीतिक प्रक्रिया का उल्लंघन करने की हड़बड़ी क्या थी? इसी तरह से गंभीर आरोप लगे सांसदों पर ऐसी जल्दबाज़ी नहीं दिखाई गयी है, कई प्रक्रिया ही अपमानजनक लग रहा है।
शरद यादव को भारतीय संसद से ही सर्वश्रेष्ठ सांसद के तौर पर सम्मानित किया गया है।
पहली बार जय प्रकाश नारायण के आंदोलन की शुरुआत में 1974 में मध्य प्रदेश के जबलपुर से संयुक्त विपक्षी उम्मीदवार के रूप में इंजीयनियरिंग कॉलेज के छात्र संघ अध्यक्ष के रूप में जीते। 1977 में दोबारा यहीं से जीते। 1986 में राज्य सभा में जीत कर सदस्य बने। 1989 में उत्तर प्रदेश के बदायूँ से लोक सभा सदस्य बने। 1991, 1996, 1999 and 2009 में बिहार के मधेपुरा से जहाँ कभी आचार्य कृपलानी, भूपेंद्र बाबू, बीपी मंडल, लालू प्रसाद सांसद थे, वहाँ से लोक सभा सांसद बने। 2004 में और फिर 2014 में राज्य सभा सदस्य निर्वाचित हुए।
दो बार इन्होने राज्य सभा से इस्तीफा भी दिया है।
वर्तमान संसद सदस्यों में कुछ ही सदस्य होंगें जिनका संसद में इतने समय का अनुभव और वरिष्ठता होगी।
फिर यह कदम क्यों ?
इसका जवाब मोदी और अमित शाह का डर है। डर इसलिए क्योंकि राजनीति में वे अपने प्रतिद्वंदियों की कमियों, कमजोरियों और पाप को हथियार बना कर या तो चुप कर दिए हैं अथवा लालू प्रसाद जैसे नेता जो चुप नहीं बैठें हैं, उन्हें मुक़दमें में उलझा कर जेल भेजने की तैयारी है।
इसके साथ देश में मोदी के विरुद्ध युवाओं की जो नई बयार बह रही है, परपम्परागत नेताओं में सिर्फ शरद यादव ने इसे पहचानते हुए लोगों के बीच अपना दौरा कर रहें हैं।
पर सबसे अधिक मोदी के लिए परेशानी की बात है कि #साझी_विरासत_बचाओ के तहत शरद यादव ने जो मुहीम छेड़ रखी है, वह विपक्षी दलों की एकता का भी मंच बन गया है।
यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि गुजरात राज्य सभा चुनाव में जिसमें अमित शाह ने अहमद पटेल को हराने के लिए हर तरह की तिकड़म किये, लेकिन अंततः मात खाए शरद यादव के पुराने साथी और जद यू विधायक छोटुभाई वसावा के उस वोट पर, जिसपर नितीश कुमार के एजेंट आरसीपी 50 करोड़ उठा चुके थे, जो उन्होंने भाजपा के विरूद्ध दिया और बाद में प्रेस के समक्ष इसकी घोषणा भी की।
वैसे, मोदी सरकार द्वारा #शरद_यादव की #राज्य_सभा समाप्त करने की मुहीम और नवम्बर 1978 में #इंदिरा_गाँधी की #लोक_सभा सदस्य्ता समाप्त किए जाने में एक बात कॉमन है:
दोनों बार मुहीम में पूरी सरकार लगी हुई थी।
नेहरु अपने विरोधियों को भी संसद में रखते थे ! शरद यादव (Sharad Yadav) जी से आप इतना डर गए?
उनकी सदस्यता का 'खात्मा' आपके शासन में आखरी कील ठोकेगा!!
यह भी समझना होगा की गुजरात में अगर भाजपा को शिकस्त दी जाती है, तो वह अकेले कांग्रेस से संभव नहीं है। दलित, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के उभरते नए नेतृत्व को साथ रख कर होगा, जिसे एक मंच पर लाने में शरद यादव महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
इसके लिए ज़रूरी है कि शरद यादव को मोदी सरकार द्वारा किये जा रहे अपमान का जवाब संसद और सड़क दोनों जगह दिए जाएँ।
हम अपील करते हैं की 30 अक्टूबर, 2017 को अली अनवर साहेब और शरद यादव को हाज़िर होने की नोटिस का जवाब सभी विपक्षी दल दें और इस प्रकरण को संसद की एथिक्स, प्रिविलेज या अन्य कमिटी को रेफेर किये जाने के लिए बाध्य करें। अली अनवर, शरद यादव हाज़िर हो।
जनाब अली अनवर और शरद यादव को 30 अक्टूबर, 2017 को 9 बजे और 10 बजे सभापति वेंकय्याह नायडू के समक्ष सरकारी जद यू के "बाबू", आरसीपी सिंह के शिकायत पर हाज़िर होने के लिए कहा गया है।
ऐसा पहली बार हो रहा है कि इस तरह की शिकायत पर बिना संसद की किसी समिति के समक्ष अपनी बात रखने का मौका मिले, किसी सांसद को इस तरह से सभापति के समक्ष खुद (वकील रखने की इज़ाज़त नहीं दी गयी है) हाज़िर होने कहा जा रहा है।
विजय माल्या, जिसे मोदी सरकार द्वारा सरकारी बैंकों का ₹9,000 करोड़ (US$1.4 billion) लेकर फरार होने दिया गया, उसे भी अपनी बात कहने का मौका दिया गया। आखिर में प्रक्रिया शुरू होने के साल भर के बाद जेटली साहब के इशारे पर उसने राज्य सभा से इस्तीफा दे दिया। क्या यही तत्परता कैप्टन जय नारायण निषाद, विजय माल्या या इसाम सिंह के मामले में दिखाई गई? यदि नहीं तो जल्दीबाजी क्या थी? इस मामले में राजनीतिक प्रक्रिया का उल्लंघन करने की हड़बड़ी क्या थी? इसी तरह से गंभीर आरोप लगे सांसदों पर ऐसी जल्दबाज़ी नहीं दिखाई गयी है, कई प्रक्रिया ही अपमानजनक लग रहा है।
शरद यादव को भारतीय संसद से ही सर्वश्रेष्ठ सांसद के तौर पर सम्मानित किया गया है।
पहली बार जय प्रकाश नारायण के आंदोलन की शुरुआत में 1974 में मध्य प्रदेश के जबलपुर से संयुक्त विपक्षी उम्मीदवार के रूप में इंजीयनियरिंग कॉलेज के छात्र संघ अध्यक्ष के रूप में जीते। 1977 में दोबारा यहीं से जीते। 1986 में राज्य सभा में जीत कर सदस्य बने। 1989 में उत्तर प्रदेश के बदायूँ से लोक सभा सदस्य बने। 1991, 1996, 1999 and 2009 में बिहार के मधेपुरा से जहाँ कभी आचार्य कृपलानी, भूपेंद्र बाबू, बीपी मंडल, लालू प्रसाद सांसद थे, वहाँ से लोक सभा सांसद बने। 2004 में और फिर 2014 में राज्य सभा सदस्य निर्वाचित हुए।
दो बार इन्होने राज्य सभा से इस्तीफा भी दिया है।
वर्तमान संसद सदस्यों में कुछ ही सदस्य होंगें जिनका संसद में इतने समय का अनुभव और वरिष्ठता होगी।
फिर यह कदम क्यों ?
इसका जवाब मोदी और अमित शाह का डर है। डर इसलिए क्योंकि राजनीति में वे अपने प्रतिद्वंदियों की कमियों, कमजोरियों और पाप को हथियार बना कर या तो चुप कर दिए हैं अथवा लालू प्रसाद जैसे नेता जो चुप नहीं बैठें हैं, उन्हें मुक़दमें में उलझा कर जेल भेजने की तैयारी है।
इसके साथ देश में मोदी के विरुद्ध युवाओं की जो नई बयार बह रही है, परपम्परागत नेताओं में सिर्फ शरद यादव ने इसे पहचानते हुए लोगों के बीच अपना दौरा कर रहें हैं।
पर सबसे अधिक मोदी के लिए परेशानी की बात है कि #साझी_विरासत_बचाओ के तहत शरद यादव ने जो मुहीम छेड़ रखी है, वह विपक्षी दलों की एकता का भी मंच बन गया है।
यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि गुजरात राज्य सभा चुनाव में जिसमें अमित शाह ने अहमद पटेल को हराने के लिए हर तरह की तिकड़म किये, लेकिन अंततः मात खाए शरद यादव के पुराने साथी और जद यू विधायक छोटुभाई वसावा के उस वोट पर, जिसपर नितीश कुमार के एजेंट आरसीपी 50 करोड़ उठा चुके थे, जो उन्होंने भाजपा के विरूद्ध दिया और बाद में प्रेस के समक्ष इसकी घोषणा भी की।
वैसे, मोदी सरकार द्वारा #शरद_यादव की #राज्य_सभा सदस्य्ता समाप्त करने की मुहीम और नवम्बर 1978 में #इंदिरा_गाँधी की #लोक_सभा सदस्य्ता समाप्त किए जाने में एक बात कॉमन है:
दोनों बार मुहीम में पूरी सरकार लगी हुई थी।
नेहरु अपने विरोधियों को भी संसद में रखते थे ! शरद यादव (Sharad Yadav) जी से आप इतना डर गए?
उनकी सदस्यता का 'खात्मा' आपके शासन में आखरी कील ठोकेगा!!
यह भी समझना होगा की गुजरात में अगर भाजपा को शिकस्त दी जाती है, तो वह अकेले कांग्रेस से संभव नहीं है। दलित, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के उभरते नए नेतृत्व को साथ रख कर होगा, जिसे एक मंच पर लाने में शरद यादव महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
इसके लिए ज़रूरी है कि शरद यादव को मोदी सरकार द्वारा किये जा रहे अपमान का जवाब संसद और सड़क दोनों जगह दिए जाएँ।
हम अपील करते हैं की 30 अक्टूबर, 2017 को जनाब अली अनवर और शरद यादव को हाज़िर होने की नोटिस का जवाब सभी विपक्षी दल दें और इस प्रकरण को संसद की एथिक्स, प्रिविलेज या अन्य कमिटी को रेफेर किये जाने के लिए बाध्य करें।

Sunday, August 6, 2017

पनगढ़िया " 'नीता' आयोग" क्यों छोड़ा ?


जो नीति आयोग ने जेल, सरकारी अस्पताल, स्कूल के साथ-साथ नीति आयोग को भी बेचने का प्रस्ताव दिया, जिसके उपाध्यक्ष अरविन्द पनगड़िया हैं, और लग रहा था की खुद ही खरीदे लेंगें नीति आयोग को, उन्होंने इस्तीफा दे दिया है।
कारण उन्हें परमानेंट नौकरी चाहिए था, जहाँ पेंशन की भी ज़रूरी नहीं पड़े। इस तरह, 65 साल की उम्र में कोलंबिया यूनिवर्सिटी में जिस तरह की नौकरी मिल रही है वो मोदी और नीति आयोग के प्रस्तावित उपायों से भारत में तो अब कभी नहीं मिलेगी।
नौकरी स्थायी है।
अब ये देशद्रोही और गद्दार द्वारा सुधार के नाम पर कम कर्मचारी भर्ती करने, जल्दी रिटायर करने, पेंशन ख़त्म करने और आसानी से निकाल देने की नीतियां बनाते रहे हैं, ये कॉर्पोरेट भांड घूम-घूम कर, लिख-लिख कर इस व्यवस्था का प्रचार करते हैं और अब 65 साल की उम्र में भी अपने लिए स्थायित्व का जुगाड़ कर रहे होते हैं।
लग रहा था कि पनगढ़िया तथाकथित राष्ट्र निर्माण के नाम पर देश बेचने में लगे प्रधानमंत्री मोदी को छोड़ कर नहीं जाएंगे। पर नेहरूवादी योजना आयोग को ख़त्म कर नीति आयोग के प्रथम उपाध्यक्ष बने राष्ट्रवादी दक्षिणपंथी अर्थशास्त्री अरविंद पनगढ़िया भीतर से निकले नेहरूवादी। बजाय अपनी योग्यता का बायोडेटा लेकर मार्केट में नौकरी खोजने के उन्होंने नौकरी में सुरक्षा को महत्व दिया है।
अपने लिए तो नियम अलग होंगें हीं।
इन गद्दारों और नक़ली देशभक्त से सावधान रहिये जो भारत में आकर ये लाखों शिक्षकों से ठेके पर नौकरी करवाने की वकालत करते हैं और अपने लिए अमेरिका में स्थाई नौकरी बचाने के लिए पत्राचार करते हैं।
निवेदन है की देश को और #साझा_विरासत बचाने वाले हमारे कृतसंकल्प साथी, देश के गद्दारों की बाज़ारवादी नीतियों का विरोध करें।

Tuesday, July 18, 2017

Diluting Mandal By S. S. Gill

From : THE HINDU.
Online edition of India's National Newspaper
Tuesday, Jun 24, 2003
Diluting Mandal
By S. S. Gill, IAS (Secretary of Mandal Commission for Backward Classes.)


The move to extend reservation to the poor among the forward castes not only goes against the basic concept of affirmative action, it also violates the spirit of the Constitution.


IT WAS in December 1980 that members of the Mandal Commission, and I as its Secretary, trooped into the office of Zail Singh, then Home Minister, and presented our report to him. As we came out of the secretariat, B. P. Mandal, our chairman, told me, " I know how much labour has gone into the writing of this report. But let me tell you that today we have performed its immersion (visarjan) ceremony". And truly, for the next 10 years, the report lay in the Home Ministry's dusty vaults.

Then all of a sudden, V. P. Singh, as Prime Minister, opened the lid in 1990, and the Mandal Commission report became the single-most heated topic of controversy and discussion. There was total confusion in the national political arena and Mr. Singh was accused of indulging in the worst form of opportunism. No major political party supported the move. In fact, the BJP saw it as a serious threat to its `upper' caste constituency, and L. K. Advani, now Deputy Prime Minister, marched towards Ayodhya in his chariot to uphold `dharma'.

Those were days of high tension and emotions. The polity was in turmoil. Old power equations were dissolving and new ones emerging. The logic of numbers suddenly brought OBC leaders into prominence and every political party turned a votary of Mandal. Never before had the Indian political scene undergone the sort of sea change it did during the decade following the implementation of the Mandal report.

On the face of it, the radical change in the political landscape of the country marks the setting right of ancient historical wrongs. Or does it? In fact, to some extent, the Mandal Commission report was `demandalised' during the very process of its implementation. Of the dozen or so recommendations, only one pertaining to reservation was picked up, as it had the highest visibility and attracted immediate attention. More far-reaching recommendations regarding structural changes in the land-tenurial system, and institutional reforms for the educational and economic uplift of the OBCs were not even noticed. The attention thus got focussed on the fruits rather than the roots and branches of the tree of affirmative action.

Whereas the objective of the Mandal Commission report was the creation of a more egalitarian society, this selective and populist approach introduced an element of inequality among the OBCs themselves. If equal attention had been paid to strengthening the roots and branches of the tree of social justice and the base of the deprived sections of the society strengthened by undertaking structural reforms, it would have resulted in fortifying them from within instead of perennially making them dependant on the crutch of reservation.

And who were the main beneficiaries of this provision? Only the better off among the OBCs — the so-called creamy layer — who already had access to good educational facilities and could outperform their lesser privileged peers at competitive examinations within the reserved quota. This deepened the divide among the OBCs, as those who were already at the top of their community cornered the plum jobs and those at the bottom were left further behind.

At a deeper level, mandalisation was supposed to empower the deprived by giving them access to political power. This has happened in a limited way, as evidenced by the the manner in which every political party is wooing the OBCs by promising them all sorts of concessions. But even this process of empowerment is seriously flawed. Most of the positions of power have been cornered only by a couple of backward castes, and the really deprived communities have been left high and dry. Moreover, instead of identifying themselves with their impoverished communities, the OBC leaders who have risen to the top have adopted the lifestyle and value system of the `upper' castes against whom they had agitated all along. One would have expected these leaders to introduce a new political culture of austerity and self-denial, and adopt a lifestyle which projects them as role-models for the deprived members of their own community. But just the reverse has happened. The dispossessed have the highest stake in democracy, as it is their only hope. But instead of strengthening the Panchayati Raj institutions at the grassroots, the OBC and Dalit leaders are propagating a feudal culture and exclusivist tendencies. Their entire crusade was against the divisive caste system, and they should have tried to build inter-community bridges to eliminate caste hierarchies. But they have created vested interests in narrow caste loyalties to serve personal ends.

It was also hoped that both the Dalits and the OBCs, being victims of the same caste system, would join hands and form a powerful alliance to secure political power and wield it to improve the lot of their historically disadvantaged castes. But the pursuit of narrower personal ends has produced just the opposite result. There exits a lot of antagonism and ill will between these two sections.

But the latest episode in the `demandalisation' drama is being enacted now with the farcical proposals to reserve seats for the economically weaker sections among the `upper' castes. Whereas the Rajasthan Chief Minister wants reservation for the poor among the forward castes, the BJP has upstaged him by not only proposing to constitute a national commission for this purpose, but also by promising to extend them to Muslims. This move not only goes against the basic concept of affirmative action, it also violates the spirit of the Constitution.

Reservation for the Scheduled Castes, the Scheduled Tribes and the OBCs has been made under Article 15 (4) of the Constitution which empowers the state to make any "special provision for the advancement of any socially and educationally backward classes of citizens or for the Scheduled Castes and the Scheduled Tribes". Now, social backwardness is a structural disability linked to one's caste, and does not vary from generation to generation. Even a rich Dalit suffers from social stigma. But economic backwardness within the same family may vary from time to time. There are any number of rags-to-riches and riches-to-rags stories. Unlike social and educational backwardness, there is no criterion to determine economic backwardness, which is, in any case, a relative term. More importantly, the Constitution does not provide for reservation of jobs for the economically backward. After all, billions of rupees under the Five Year Plans are spent every year for the eradication of poverty and the benefits accrue to all the poor people, including those among the `upper' castes. Of course, Article 16 (4) empowers the State to make job reservation for "any backward class citizens... not adequately represented in the services under the state". But is it anyone's case that the forward castes as a whole are not adequately represented in the services?

But such are the compulsions of blind pursuit of power sans principles that politicians pay scant attention to facts, law or the Constitution, or the social implications of their tactics, if it serves their immediate goal. Look at the latest Government ploy of adding new castes to the Central OBC lists of eight States. As the percentage of people living below poverty line has halved since the implementation of the Mandal report, it should have led to the progressive exclusion of the beneficiary castes from the OBC list. But, defying all logic, the Government has repeatedly enlarged this list, mostly on the eve of elections.

Sunday, May 28, 2017

महाराजा (एयर इण्डिया) की बिक्री : देश को अरबों का चूना !


3 साल की लूट बनाम 60 साल की!!
हम जान चुके हैं की आर्थिक दृष्टिकोण से मनमोहन सिंह की काँग्रेस सरकार और मोदी की भाजपा सरकार में कोई फ़र्क़ नहीं है।
अंतर सिर्फ इतना की देश और जनसाधारण के हितों से खिलवाड़ करने में नरेंद्र मोदी की सरकार अधिक घिनौनी, घृणित, घटिया और घातक है।
यह भी बड़ी सच्चाई है कि देश के अधिकतर सार्वजानिक प्रतिष्ठानों को बेचने के लिए उन्हें घाटे में लाना ज़रूरी होता है। घाटे में लाने वाले अधिकतर अफसर "मेरिटधारी" होते हैं, जो आरक्षण से नहीं आते और उनमें से अधिकांश पर भ्रष्टाचार के आरोप होते जो कभी साबित नहीं होते। जब इन्हें विनिवेश के नाम पर औने- पौने दाम में किसी कॉर्पोरेट को बेचा जाता है तो इन प्रतिष्ठानों पर हुए खर्च का एक छोटा हिस्सा भी सरकार को नहीं मिलता और तब टैक्सपेयर्स के पैसों को लूटने की बात कोई नहीं करता।
एयर इंडिया की स्थापना 1932 में जेआर डी टाटा ने टाटा एयरलाइंस के नाम से की थी। आज एयर इंडिया भारत की ध्वज वाहक एयरलाइन है। यह इंडिगो, जेट एयरवेज और स्पाइसजेट के बाद यात्रियों की दृष्टि से भारत की चौथी सबसे बड़ी घरेलू एयरलाइन है, मार्च 2017 तक 13% की बाजार हिस्सेदारी है। यह एयर इंडिया लिमिटेड, भारत सरकार की एक उद्यम है, और एयरबस और बोइंग विमान के एक बेड़े का संचालन करता है जिसमें 90 घरेलू और अंतरराष्ट्रीय गंतव्यों की सेवा है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, भारत में नियमित व्यावसायिक सेवा बहाल की गई और टाटा एयरलाइंस 29 जनवरी 1946 को एयर इंडिया नाम के तहत एक सार्वजनिक लिमिटेड कंपनी बन गई। 1947 में भारतीय स्वतंत्रता के बाद, 1948 में भारत सरकार द्वारा 49% एयरलाइंस का अधिग्रहण किया गया था। 1953 में, भारत सरकार ने एयर कॉरपोरेशन अधिनियम पारित किया और कैरियर में बहुमत हिस्सेदारी खरीद ली। कंपनी का नाम बदलकर एयर इंडिया इंटरनेशनल लिमिटेड रखा गया था और घरेलू सेवाएं पुनर्रचना के एक हिस्से के रूप में इंडियन एयरलाइंस को स्थानांतरित कर दी गई।
2000-01 में, एयर इंडिया के निजीकरण और 2006 से बाद के प्रयासों के लिए प्रयास किए गए, पर 2006 में NCP के मंत्री प्रफुल पटेल द्वारा इंडियन एयरलाइंस से किए गए विलय के बाद एयर इण्डिया को बड़ा नुकसान हुआ।
2006-07 में एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस के लिए संयुक्त नुकसान 7.7 बिलियन (120 मिलियन अमेरिकी डालर) थे और विलय के बाद यह मार्च 2009 तक 72 अरब (यूएस $ 1.1 बिलियन) तक पहुंच गया।
मनमोहन सिंह की सरकार और मंत्री प्रफुल पटेल के कार्यकाल में ही मार्च 2012 में एयर इंडिया में 32 हज़ार करोड़ रूपया का पंप किया। कल्पना कीजिये किसको कितनी कमीशन मिली होगी।
2013 में तत्कालीन नागर विमानन मंत्री अजित सिंह ने कहा था कि निजीकरण इस एयरलाइन के अस्तित्व की कुंजी है।परन्तु उस समय भाजपा और सीपीआई (एम) के नेतृत्व में विपक्ष ने सरकार के इस फैसले का पुरजोर विरोध किया और इसके विरुद्ध अरुण जेटली ने धुआंधार भाषण दिया।
11 जुलाई 2014 को एयर इंडिया स्टार अलायंस का 27 वां सदस्य बन गया। अगस्त 2015 में, यह कार्यशील पूंजी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बाह्य वाणिज्यिक उधार में $ 300 मिलियन जुटाने के लिए सिटी बैंक और स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। वित्त वर्ष 2014-15 के लिए वित्त वर्ष 2014-15 की तुलना में वित्त वर्ष 2014-15 की तुलना में वित्त वर्ष 2014-15 की तुलना में इसकी राजस्व, संचालन हानि और शुद्ध हानि ₹ 198 बिलियन (यूएस $ 3.1 बिलियन), ₹ 2.171 बिलियन (34 मिलियन अमेरिकी डॉलर) और ₹ 5.41 बिलियन (यूएस $ 84 मिलियन) थी, जो कि ₹ 147 बिलियन (यूएस $ 2.3 बिलियन), ₹ 5.138 बिलियन (यूएस $ 80 मिलियन) और ₹ 7.55 बिलियन (यूएस $ 120 मिलियन) है।
सरकारी नागर विमान सेवा उपक्रम एयर इंडिया ने पिछले वित्त वर्ष में 105 करोड़ रुपये का परिचालन लाभ का दावा किया था। ईंधन खर्च में कमी और यात्री संख्या में बढोतरी के साथ कंपनी ने दस साल में पहली बार परिचालन लाभ दिखाया। वित्तीय स्थिति सुधारने में लगी इस एयरलाइन को वर्ष 2014-15 में परिचालन कार्य में 2,636 करोड़ रुपये की हानि हुई थी। इसी दौरान इसकी आय घटकर 20,526 करोड़ रुपये रही, जो एक साल पहले 20,613 करोड़ रुपये थी. 2007 के बाद कंपनी पहली बार परिचालन लाभ में आई।
उधर, भारत के नियंत्रण एवं महालेखापरीक्षक (कैग) ने कहा था कि एयर इंडिया को पिछले वित्त वर्ष में परिचालन मुनाफे के बजाय वास्तव में 321.4 करोड़ रुपये का परिचालन घाटा हुआ। एयरलाइन ने इससे पहले वर्ष के दौरान परिचालन मुनाफा होने की जानकारी दी थी. कैग ने हालांकि, यह स्पष्ट किया कि इसमें आंकड़ों का कोई हेरफेर नहीं हुआ है बल्कि एयरलाइन ने जो आंकड़े रिपोर्ट किये हैं वह वास्तव में ‘घाटे को कम करके बताया गया है।
’इंडिगो और जेट एयरवेज के 15.4% बाजार हिस्सेदारी के बाद फरवरी 2016 तक, एयर इंडिया भारत में तीसरी सबसे बड़ी वायु वाहक है। .
अब, जेटली जी कहते हैं कि, "एयर इंडिया पर 50,000 करोड़ रुपये का कर्ज है, जबकि उसके विमानों का मूल्यांकन 20,000-25,000 करोड़ रुपये होगा. नागरिक विमानन मंत्रालय सभी संभावनाएं तलाश रहा है।" नागरिक विमानन राज्यमंत्री जयंत सिन्हा ने पहले कहा था कि एयर इंडिया के कर्जो को कम करने की जरूरत है तथा इसमें वित्तीय बदलाव के लिए बैलेंस शीट के पुर्नगठन की जरूरत है। सिन्हा ने कहा था, "एयर इंडिया में कॉरपोरेट प्रशासन और बेहतर प्रबंधन को लागू करने की भी जरूरत है।इसके अलावा यह भी देखा जाना चाहिए कि एयर इंडिया की गैर-महत्वपूर्ण संपत्तियों का किस प्रकार से सर्वश्रेष्ठ उपयोग किया जा सकता है।"
दरअसल, यह लूट है। और इसे रोकना है।

Saturday, May 27, 2017

#EC का मिशन इम्पॉसिबल : #EVM हैकिंगः #NCP का चैलेंज लेने मतलब :

3 जून को #EVM स्वयंवर है
सभी दल आमंत्रित है ,
शर्त है #दुल्हन को बिना छुए माँ बनाना है।
देश में लोकतंत्र के अधिकृत अभिरक्षक #ECI द्वारा इस तरह का ड्रामा ठीक नहीं नहीं।
कांग्रेस ने कहा है की चुनौती देने वालों को इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) के मदरबोर्ड सहित प्रमुख पार्ट पुर्जे तक पहुंच की अनुमति दी जानी चाहिए।
हम सभी जानते हैं कि हमारे फोन का ब्लूटूथ ऑन नहीं हो तो उस तक भी कोई पहुँच नहीं सकता, फिर यह तो #ईवीएम मशीन है।
इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) से छेड़छाड़ करके दिखाने के चुनाव आयोग के चैलेंज को एनसीपी (NCP) को छोड़कर किसी भी राजनीतिक दल ने आवेदन नहीं किया है। चुनाव आयोग की ओर से राजनीतिक दलों को शुक्रवार शाम पांच बजे तक एक्सपर्ट के नाम देने का समय दिया था।
चुनाव आयोग के प्रवक्ता ने बताया कि एनसीपी चुनाव आयोग की ईवीएम चुनौती में भाग लेने की इच्छुक एक मात्र पार्टी है और इसके अलावा किसी राजनीतिक दल ने आवेदन नहीं किया है। वहीं चुनाव आयोग ने गुरुवार देर शाम को बताया था कि अब तक किसी पार्टी ने किसी जानकार को ईवीएम चुनौती स्वीकार करने के लिए नामित नहीं किया है। बीती 20 मई को आयोग ने घोषणा की थी कि 3 जून से ईवीएम चैलेंज हो रहा है जिसके लिए 26 मई तक पार्टियां तान जानकारों को नामित कर सकती हैं।



प्रश्न यह है कि क्या एनसीपी वाक़ई में हैकिंग के लिए सीरियस है? या एनसीपी चुनाव आयोग के लिए "अप्रूवर" बनने वाली है?
इसका जवाब श्री शरद पवार जी हैं।
पवार साहब राष्ट्रपति पद के प्रबल दावेदार हैं। अगर एनसीपी EVM हैक करने की ताक़त रखता है तो बीजेपी पवार साहब को राष्ट्रपति मानते हुए हैकिंग करने से एनसीपी को रोकेगी। अगर एनसीपी यह कहने के लिए भी कि EVM हैक नहीं हो सकता, यह चैलेंज स्वीकार की है, तो भी बीजेपी पवार साहेब को राष्ट्रपति पद के लिए दी जाने वाली प्रस्ताव पर सहानुभूति पूर्वक विचार करेगी।
दरअसल, शरद पवार जी अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प से भारत के किसी नेता से अधिक नजदीक हैं और यह मोदी जानते हैं।

Friday, May 26, 2017

मोदी सरकार के तीन साल : जनता का खून जला है, खून खौलेगा तो ?

मोदी सरकार के तीन साल असल में मनमोहन सरकार पार्ट 3 है।
एक अहम् फ़र्क़ ज़रूर है, सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता पर मोदी सरकार का हमला अब कोई छुप छुपा कर नहीं, खुले आम है।
पर मैं आर्थिक नीति की बात कर रहा हूँ।
कोई माई का लाल एक फ़र्क़ दिखा दे, मनमोहन और मोदी के आर्थिक नीतियों में। डिग्री का फ़र्क़ ज़रूर है। अब आम जनता के हितों पर कुठाराघात अधिक पैने तरीके से है, और अंबानी अडानी के दौलत को दिन दुगुना रात चौगुना 56 इंच का सीना ठोक कर किया जा रहा है। जनाब वज़ीरे आला देश विदेश परदेश सब जगह अम्बानी अडानी को साथ लेकर घूमें। पीएम कम और एजेंट ज्यादा थे। बांग्लादेश को करोड़ों डॉलर इसलिए दिए कि वे अडानी के पॉवर प्रोजेक्ट का कैश पेमेंट करें।
सरदार जी इतने बेशर्म नहीं थे।
आधार कार्ड पर मोदी ने सुरक्षा लेकर गंभीर सवाल उठाये, और अब आधार कार्ड लेकर नाँच रहें हैं। मनमोहन सिंह और आधार का मजाक उड़ाते मोदी का वीडियो ज़रूर देखें। अब मोदी सरकार ने हर योजना के लिये आधार जरूरी कर दिया है। रोज आधार के डाटा को कॉर्पोरेट को लीक कर रहें हैं।
2005 में 500 - 1000 रुपये नोट बंद करने का मनमोहन सरकार के प्रस्ताव का भाजपा ने विरोध किया, और फिर अब #नोटबंदी का खेल खेला। उसमें भी अम्बानी को फायदा। '#जियो' सिम पर आधार कार्ड मांगना और फिर पुराने नोट को बदलने के लिए आधार कार्ड का फोटोकॉपी। काफी छुटभैये जैसे काम करके अम्बानी को फायदा पहुँचाया और दावा की काला धन को समाप्त कर रहें हैं, अलगावादियों और आतंकवादियों को पैसे नहीं मिलेंगें। थोथे दलील। ढाक के तीन पात।
किसानों के क़र्ज़ माफ़ी में भारी दिक्कत, परन्तु कॉर्पोरेट के अरबों रुपये माफ़ किया। नतीजा यह है कि तीन साल में कई गुना अधिक किसानों ने खुदकशी की, कर्ज और भुखमरी से परेशान हो कर।
विजय माल्या जैसे मालामाल, किसान तंगहाल।
मोदी ने पहले #मनरेगा को विफलताओं की स्मारक, #GST को घातक और #एफडीआई को देश विरोधी बताया था।
आज मनरेगा में पहले से ज्यादा पैसा, #एफडीआई देश हित में और #GST से सारे पाप धुल गये बताये जा रहे हैं।
मोदी जो चाय पर चर्चा में लोगों को बताता था कि देश के बाहर इतना काला धन है कि वह आ जाये तो हर एक के खाते में 15-15 लाख आ जायें।
अब सुप्रीम कोर्ट के कहने के बावजूद उन काले धन वालों के नाम तक सार्वजनिक करने की हिम्मत नहीं जुटा पाये जिनकी सूचि सरकार के पास मौजूद है।
मोदी माँ बेटे की सरकार को जम कर कोसता था कि उसकी सरकार आते ही सारे भ्रष्टाचारी कांग्रेसी जेल में होंगे।
पर तीन साल में एक कांग्रेसी का एक भी कुत्ता तक को जेल न भेजा जा सका, उल्टे सारे भ्रष्टाचारी अपनी पार्टी में ले कर उन्हें पवित्र घोषित कर दिये हैं।
यहाँ मैंने आतंकवाद और चीन पाकिस्तान के हाँथ देश के नितन्तर हो रहे अपमान का जिक्र नहीं कर रहा हूँ। इस पर अलग से चर्चा ज़रूरी है।
दरअसल मनमोहन या मोदी सरकार को नहीं चलाते। चलाते हैं अंतराष्ट्रीय पूँजी के मालिक अमेरिका, वर्ल्ड बैंक, IMF आदि। ये तो एजेंट हैं। अंतरष्ट्रीय पूँजी अलग अलग समय में मुक्त व्यापार, ग्लोबलाइजेशन आदि के नाम से नियम बना कर अन्य देशों पर यह कह कर थोपते हैं कि "तुम्हारे फायदे में है"। समस्त एजेंट अर्थशास्त्री, पार्टी और मनमोहन मोदी जैसे जैसे नेता इसका प्रचार करते हैं, अमल में लाते हैं।
इसलिए सेट टॉप बॉक्स, #GST, #नोटबंदी, #कैशलेस, #FDI, #किसानों_पर_टैक्स, स्वास्थ्य व शिक्षा का निजीकरण, उच्च शिक्षा का बाजारीकरण, #FYUP या #CBCS, आदिवासियों के जल, ज़मीन, जंगल पर कॉर्पोरेट के लिए कब्ज़ा आदि नीतियाँ मनमोहन और मोदी दोनों के हैं।
इसके विपरीत मोरारजी देसाई, चौ चरण सिंह, वीपी सिंह, देवेगौडा आदि की तथाकथित कमजोर सरकारें ही जनहित और देशहित की आर्थिक नीतियाँ को लागू किये। इंदिरा गाँधी 1971 से पहले कमजोर स्थिति में थीं अतः बैंक राष्ट्रीयकरण, प्रिवी पर्स को समाप्त करना आदि नीतियों पर सत्ता में आते अमल कीं।
देश की स्थिति अब फिर एक ऐसी सरकार की मांग कर रही है।
#नोटबंदी, #उच्च_शिक्षा पर निशाना, #जेएनयू, #बेरोजगारी, #सहारनपुर, #सुकमा, #ईवीएम, #सीमा_पर_शहादत आदि से जनता का खून जला है, खून खौलेगा तो सही।
निसंदेह सोशल मिडिया क्रांति का एक साधन होगा।
#मोदी_सरकार_तीन_साल_जनता_परेशान_बदहाल

Thursday, May 25, 2017

"युद्ध" या फिक्स्ड मैच !!

'राष्ट्रवादी' नारों के बीच ये अजीबोगरीब "जंग" चल रहा है भारत पाकिस्तान में !
दोनों ओर से वीडियो जारी की जाती है, और उसे दोनों तरफ से 'फर्जी' कहा जाता है।
दोनों देश 'शांति' के समय एक दुसरे पर किये गए गोलाबारी से नुकसान को ख़ारिज करते हैं, जबकि अमूमन शांति के समय इस तरह की क्रिया को अंतराष्ट्रीय फोरम पर उठाया जाता है जिससे हमलावर राष्ट्र की चौतरफा निंदा हो।
परन्तु यह सच्चाई है कि हमारे फौजी रोज शहीद हो रहें हैं।
और हमारे मंत्रीगण 'सिर्फ' निंदा करते हैं।
यह समझना होगा कि 'युद्ध' की घोषणा करना एक जटिल स्थिति है, जिसके लिए क्या हम तैयार है ?
मोदी सरकार जनता को हाशिये पर रख कर कॉर्पोरेट के कभी न मिटने वाली दौलत की भूख को पूरा करने में लगी हुई हैं।
मोदी और नवाज़ की दोस्ती में सज्जन जिंदल को फायदा पहुँचाने का रेस को अंतराष्ट्रीय स्तर पर सब जानते हैं।
फिर क्या यह तथाकथित गोला बारी सिर्फ जनता को दिखाने के लिए WWF कुश्ती है, जिसमें कहीं न कहीं हमारे किसी देशवासी के घर पर मातम मनाया जा रहा है?
संभव है भारत पाकिस्तान में 'युद्ध' ज़रूर होगा, पर तब यह मोदी और उसके सरकार की गिरती साख को बचाने के लिए होगा, देश और उसकी जनता के लिए नहीं।
जय हिन्द।

Saturday, March 25, 2017

पिछड़े वर्ग के आरक्षण पर बड़ा हमला : मंडल कमीशन को बिना लागू किये,अब एक नया कमीशन:

पिछड़े वर्ग के आरक्षण पर बड़ा हमला : मंडल कमीशन को बिना लागू किये,अब एक नया कमीशन :
केंद्र सरकार ने सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए नया आयोग बनाने का फैसला किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में गुरुवार को हुई कैबिनेट बैठक में यह निर्णय लिया गया।
कहा जा रहा है की अब आयोग को संवैधानिक दर्जा मिलेगा: नए आयोग का नाम सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग के लिए राष्ट्रीय आयोग (एनएसईबीसी) रखा जाएगा। यह मौजूदा राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की जगह लेगा। संसद से बिल पारित करा इसे संवैधानिक दर्जा भी दिया जाएगा। अभी आयोग का संवैधानिक दर्जा नहीं है।
इससे पिछला कानून रद्द हो जायेगा : मंत्रिमंडल ने पिछड़ा वर्ग के लिए राष्ट्रीय आयोग अधिनियम, 1993 को भी निरस्त कर दिया और इसके तहत गठित संस्था को भंग कर दिया है। पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद हुआ था। संवैधानिक दर्जा नहीं होने से इसकी सिफारिशों और आदेशों को मानने में विभाग कोताही बरतते हैं। यह माना जा रहा था कि यह आयोग अन्य पिछड़ा वर्ग के हितों की रक्षा नहीं कर पा रहा था।
दरअसल, पिछड़े वर्ग के लिए मंडल कमीशन की अनुशंसाओं को निरस्त कर, आरक्षण में छेड़छाड़ कर, आरक्षण समाप्त करने के संघ के कई बार घोषित एजेंडा की दिशा में मोदी सरकार का पहला कदम है।
मंदिर, रोमियो, बूचड़खाना, नोटबंदी आदि के नाम पर जब तक जनता का ध्यान बँटा कर खेल हो जायेगा।
संवैधानिक तौर पर पूर्व में पिछड़े वर्ग आयोग का दो बार गठन हुआ है : काका कालेलकर आयोग और मंडल आयोग।
काका कालेलकर खुद ही अपनी अनुशंसाओं को नहीं लागू करने का निवेदन राष्ट्रपति को किये थे।
मंडल आयोग को इतिहास के ठन्डे बक्से से निकाल कर आंशिक रूप से भी लागू करने में वर्षों लग गए।
बावजूद आज तक यह सही ढंग से लागू नहीं है। मंडल रिपोर्ट कानूनी तौर पर इतना ठोस है कि कोर्ट में इसे निरस्त करने के लंबे प्रयास को भी मुहँ की कहानी पड़ी।
तब एक असंवैधानिक क्लॉज़, "क्रीमी लेयर" जबरन जोड़ा गया जिसे आज तक संसद ने भी मान रखा है।
हाल में 120 पिछड़े वर्ग के सिविल सेवा में कम्पीट किये हुए अभ्यर्थियों को मोदी सरकार ने "क्रीमी लेयर" की नई परिभाषा लागू कर लिस्ट से हटा दिए और उस जगह को खाली रखा है।
अब किसे पिछड़े वर्ग के लिस्ट में रखना है, किसे हटाना है, यह संसद के माध्यम से मोदी सरकार अपने हाथ में लेना चाहती है। अतः यह नई कमीशन का प्रावधान।
पिछड़े वर्ग की संख्या मंडल आयोग ने 52% माना था और चुकी 50% का सर्वोच्च न्यायालय का कैप था, तो 27% आरक्षण की अनुशंसा की गई थी।
परंतु आज भी उल्टा आरक्षण लागू है यानि जेनेरल के 50% नौकरियों में 'मेरिट' पर आए पिछड़े और दलित अभ्यर्थियों को जेनेरल में स्थान नहीं दिया जाता है।
कई हाई कोर्ट ने इस असंवैधानिक परिभाषा पर मुहर लगाई है। सरकार और संसद चुप है।
अब सरकार पिछड़े वर्ग में शामिल किये या हटाये जाने की पॉवर को लेकर उन वर्गों पर हमला करेगी जो उसके वोटर नहीं है।
यह भी संभव है कि "आर्थिक" आधार पर पिछड़े वर्ग की पहचान को सरकार मान्यता दे दें। चुकी यह कमीशन संविधान में संशोधन करके लाया जायेगा, तो इसके पहले के संवैधानिक परिभाषा कि "शैक्षणिक और सामाजिक" रूप से पिछड़े वर्ग की भी बदला हुआ माना जायेगा।
आरक्षण को निरस्त करने के लिए काँग्रेस समय से सरकारी नौकरियां ख़त्म की जा रही हैं। अब सरकारी उच्च शिक्षा पर हमला है और सीटें काम करते हुए इन्हें "निजीकरण" करके कॉरपोरेट को सौंप दिया जायेगा।
यह बड़ी साज़िश है।
जैसे ईवीएम का खेल हुआ है, वैसे ही अब पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण को निरस्त किया जायेगा।
जो आरक्षण की समीक्षा करने की बात करते हैं, वह जान लें की मोदी कभी आरक्षण की समीक्षा नहीं करंगें।
अगर समीक्षा करना होता तो जाति जनगणना के परिणाम भी सार्वजानिक किये जाते, जिसमें कौन वर्ग को अभी कितने रोजगार पर्याप्त हैं और उनकी आर्थिक स्थिति क्या है, यह सभी को पता चल जायेगा।
मंडल कमीशन के लगूं होने पर भी पिछड़े वर्ग को कोई खास रोजगार नहीं, और आरक्षण के 27% अनुशंसा की जगह यह मात्र 6 या 7% है।
फिर जो यह कहते हैं की आरक्षण के अलाभ यह ले लिया और उसे नहीं मिला, वे साज़िश की तहत सिर्फ पिछड़े वर्ग में आपसी दुर्भावना या कलह को बढ़ाना चाहते हैं क्योंकि वास्तविक रूप से समाज में समानता लाने के लिए रोजगार की उपलब्धता और समान अवसर प्रदान करना एक सपना ही है।
ऊपर से सरकारी रोजगार के अवसर को ही समाप्त करके आरक्षण को निरस्त और रोजगार सिर्फ ठेकेदारी व्यवस्था में रहे, जिससे जब मालिक चाहे किसी को हटा सकें ऐवम कॉरपोरेट को अपने स्टाफ के लिए सामाजिक सुरक्षा की जिम्मेदारी और खर्च से मुक्त रखा जाए का मार्ग प्रसस्त हो।
कुल मिला कर शाह और मोदी के पहले अगर कांग्रेसी शासन भ्रष्टाचार का मिसाल था, तो इन रंगा बिल्ला का शासन मात्र धोखा और जनता को बरगला कर अंततः अपने डिक्टेटरशिप को कायम करना है। सभी वर्गों को बेवकूफ बनाना ही इनका लक्ष्य है।
पिछड़े वर्ग के लिए नए आयोग के तमाम पहलु को सार्वजानिक कर इसके औचित्य पर जब तक बहस नहीं होगा, इसके पीछे की मंशा और आपके चिंता का निवारण नहीं होगा।
ध्यान रहे नरेन्द्र मोदी कोई पिछड़ा वर्ग से नहीं है। वह मोढ जाति से है जिसे उसने चुनाव से पहले गुजरात के पिछड़े वर्ग मैं शामिल करवाया और फिर खुद को पिछड़े वर्ग का घोषित करके चुनाव में वोट लिया। परंतु आज तक पिछड़े वर्ग के कल्याण के लिए कोई काम नहीं किया है। अब संघ के एजेंडा के तहत बहुत योजनाबद्ध तरीके से इस नए आयोग के माध्यम से पहले इसी 27% में जाट, पटेल आदि 90% जनता को ला कर, और यादव आदि को निकाल कर, जहाँ एक और आरक्षण को ही निरस्त किया जायेगा, वहीँ 2019 का चुनाव जीतने का आधार तैयार होगा।
फिर 2019 आरक्षण समाप्त कर दिया जायेगा।
हमारे दलित साथियों को समझना होगा की पिछड़े वर्ग 'बफर' हैं।
पिछड़े जब धराशायी तो अगली बारी दलितों की !!
हमें इसका विरोध करना ही चाहिए।