यह आश्चर्य का विषय है कि चीन के बार बार भारतीय क्षेत्र में अतिक्रमण, जिसे कांग्रेस के शासन में 'घुसपैठ' कहा जाता रहा है, उसे मोदी सरकार में रक्षा मंत्री ने 'सीमा उल्लंघन' कह कर संसद को सही जानकारी नहीं दी। उन्होंने गुरुवार को उत्तराखंड के चमोली जिले के बाराहोटी इलाके में चीनी सेना के घुसपैठ की खबरों का खंडन किया और कहा कि यह घुसपैठ नहीं बल्कि सीमा के उल्लंघन का मामला है। रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर ने लोकसभा में दिए बयान में कहा, ‘‘जैसी मीडिया में खबरें आई हैं उत्तराखंड में किसी तरह की घुसपैठ नहीं हुई है। यह चीनी सेना (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) द्वारा सीमा के उल्लंघन का मामूली सा मसला है।’’
और उससे भी गंभीर बात है कि मंत्री महोदय मनोहर पर्रिकर ने यह कह कर कि भारत और चीन के बीच सीमा तय नहीं है, भारत द्वारा "मैकमोहन लाइन" को मानने की जगह चीनी दृष्टिकोण को ही दोहरा कर, संसद में औपचारिक मान्यता दे दी।
विदेश नीति और देश की रक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषय पर ऐसी स्थिति शायद बिलकुल मनमोहन सिंह के कार्यकाल की लगती है।
दरअसल, मैकमहोन रेखा भारत और तिब्बत (जिसे चीन निगल चुका है), के बीच सीमा रेखा है। यह अस्तित्व में सन् 1914 में भारत की तत्कालीन ब्रिटिश सरकार और तिब्बत के बीच शिमला समझौते के तहत आई थी। 1914 के बाद से अगले कई वर्षो तक इस सीमारेखा का अस्तित्व कई अन्य विवादों के कारण कहीं छुप गया था, किन्तु 1935 में ओलफ केरो नामक एक अंग्रेज प्रशासनिक अधिकारी ने तत्कालीन अंग्रेज सरकार को इसे आधिकारिक तौर पर लागू करने का अनुरोध किया। 1937 में सर्वे ऑफ इंडिया के एक मानचित्र में मैकमहोन रेखा को आधिकारिक भारतीय सीमारेखा के रूप में पर दिखाया गया था।
इस सीमारेखा का नाम सर हैनरी मैकमहोन के नाम पर रखा गया था, जिनकी इस समझौते में महत्त्वपूर्ण भूमिका थी और वे भारत की तत्कालीन अंग्रेज सरकार के विदेश सचिव थे। अधिकांश हिमालय से होती हुई सीमारेखा पश्चिम में भूटान से 890 कि॰मी॰ और पूर्व में ब्रह्मपुत्र तक 260 कि॰मी॰ तक फैली है। जहां भारत के अनुसार यह चीन के साथ उसकी सीमा है, वही, चीन 1914 के शिमला समझौते को मानने से इनकार करता है। चीन के अनुसार तिब्बत स्वायत्त राज्य नहीं था और उसके पास किसी भी प्रकार के समझौते करने का कोई अधिकार नहीं था। चीन के आधिकारिक मानचित्रों में मैकमहोन रेखा के दक्षिण में 56 हजार वर्ग मील के क्षेत्र को तिब्बती स्वायत्त क्षेत्र का हिस्सा माना जाता है। इस क्षेत्र को चीन में दक्षिणी तिब्बत के नाम से जाना जाता है। 1962- 63 के भारत-चीन युद्ध के समय चीनी फौजों ने कुछ समय के लिए इस क्षेत्र पर अधिकार भी जमा लिया था। इस कारण ही वर्तमान समय तक इस सीमारेखा पर विवाद यथावत बना हुआ है, लेकिन भारत-चीन के बीच भौगोलिक सीमा रेखा के रूप में इसे अवश्य माना जाता है।
पिछले लगभग 11 महीने से मोदी सरकार ने चीन के साथ हिमालय में सीमा की स्थिति पर एक ढक्कन डाल दिया है। मिडिया कवरेज पर अंकुश लगा दी गयी है जिससे सूचना के स्रोतों सूख चुके है।
परंतु ऐसा नहीं है कि चीनी सीमा पार हमलों समाप्त हो गया है। सिर्फ लगातार हो रही चीनी घुसपैठ की घटनाओं की कम जानकारी है।
यह बीजिंग को 'खुश' करने के लिए है। जिस तरह से चीनी अपने अतिक्रमण को "चीनी फौजी दलों द्वारा रास्ता भटकने" कह कर ख़ारिज कर देता है, उसी तरह अब मोदी सरकार भी उन्हीं शब्दों का प्रयोग करती है।
चीन की फौज जिसे वे 'पीपुल्स लिबरेशन आर्मी' कहते है, के सैनिकों द्वारा 2008 में सिर्फ 270 बार भारतीय सीमा में "खोने" के आंकड़े उपलब्ध हैं। सिर्फ 2008 में "आक्रामक सीमा गश्ती" पीएलए द्वारा की 2,285 घुसपैठ के पैटर्न बनाए गए थे। आज भी वे उसी तरह बदस्तूर जारी है। संसद में सिर्फ बयान दी जा रही है।
चीन मुख्य रूप से लद्दाख में भारतीय क्षेत्र के अक्साई चिन और शाख्सगाम घाटी के 38,000 वर्ग किलोमीटर के अवैध कब्जे में है। चीनी दावे पिछले कुछ वर्षों से बढ़ते गए हैं। अरुणाचल में यह 90,000 वर्ग किलोमीटर भारतीय क्षेत्र पर चीन ने दावा किया है।
सरजमीन पर स्थिति देखकर और सीमा पर शांति और सौहार्द सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न सीमा समझौतों पर दोनों देशों द्वारा हस्ताक्षर किए गए हैं। शांति बनाए रखने के लिए समझौते की कोई कमी नहीं हैं, परंतु वास्तविक नियंत्रण (एलएसी) की सीमा के पार चीनी घुसपैठ बेरोकटोक जारी है।
"There is equality only among equals. To equate unequals is to perpetuate inequality." ~ Bindheshwari Prasad Mandal "All epoch-making revolutionary events have been produced not by written but by spoken word."-~ADOLF HITLER.
About Me
- Suraj Yadav
- New Delhi, NCR of Delhi, India
- I am an Indian, a Yadav from (Madhepura) Bihar, a social and political activist, a College Professor at University of Delhi and a nationalist.,a fighter,dedicated to the cause of the downtrodden.....
Friday, July 29, 2016
चीन के हमले और रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर का संसद में बयान :
यह आश्चर्य का विषय है कि चीन के बार बार भारतीय क्षेत्र में अतिक्रमण, जिसे कांग्रेस के शासन में 'घुसपैठ' कहा जाता रहा है, उसे मोदी सरकार में रक्षा मंत्री ने 'सीमा उल्लंघन' कह कर संसद को सही जानकारी नहीं दी। उन्होंने गुरुवार को उत्तराखंड के चमोली जिले के बाराहोटी इलाके में चीनी सेना के घुसपैठ की खबरों का खंडन किया और कहा कि यह घुसपैठ नहीं बल्कि सीमा के उल्लंघन का मामला है। रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर ने लोकसभा में दिए बयान में कहा, ‘‘जैसी मीडिया में खबरें आई हैं उत्तराखंड में किसी तरह की घुसपैठ नहीं हुई है। यह चीनी सेना (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) द्वारा सीमा के उल्लंघन का मामूली सा मसला है।’’
और उससे भी गंभीर बात है कि मंत्री महोदय मनोहर पर्रिकर ने यह कह कर कि भारत और चीन के बीच सीमा तय नहीं है, भारत द्वारा "मैकमोहन लाइन" को मानने की जगह चीनी दृष्टिकोण को ही दोहरा कर, संसद में औपचारिक मान्यता दे दी।
विदेश नीति और देश की रक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषय पर ऐसी स्थिति शायद बिलकुल मनमोहन सिंह के कार्यकाल की लगती है।
दरअसल, मैकमहोन रेखा भारत और तिब्बत (जिसे चीन निगल चुका है), के बीच सीमा रेखा है। यह अस्तित्व में सन् 1914 में भारत की तत्कालीन ब्रिटिश सरकार और तिब्बत के बीच शिमला समझौते के तहत आई थी। 1914 के बाद से अगले कई वर्षो तक इस सीमारेखा का अस्तित्व कई अन्य विवादों के कारण कहीं छुप गया था, किन्तु 1935 में ओलफ केरो नामक एक अंग्रेज प्रशासनिक अधिकारी ने तत्कालीन अंग्रेज सरकार को इसे आधिकारिक तौर पर लागू करने का अनुरोध किया। 1937 में सर्वे ऑफ इंडिया के एक मानचित्र में मैकमहोन रेखा को आधिकारिक भारतीय सीमारेखा के रूप में पर दिखाया गया था।
इस सीमारेखा का नाम सर हैनरी मैकमहोन के नाम पर रखा गया था, जिनकी इस समझौते में महत्त्वपूर्ण भूमिका थी और वे भारत की तत्कालीन अंग्रेज सरकार के विदेश सचिव थे। अधिकांश हिमालय से होती हुई सीमारेखा पश्चिम में भूटान से 890 कि॰मी॰ और पूर्व में ब्रह्मपुत्र तक 260 कि॰मी॰ तक फैली है। जहां भारत के अनुसार यह चीन के साथ उसकी सीमा है, वही, चीन 1914 के शिमला समझौते को मानने से इनकार करता है। चीन के अनुसार तिब्बत स्वायत्त राज्य नहीं था और उसके पास किसी भी प्रकार के समझौते करने का कोई अधिकार नहीं था। चीन के आधिकारिक मानचित्रों में मैकमहोन रेखा के दक्षिण में 56 हजार वर्ग मील के क्षेत्र को तिब्बती स्वायत्त क्षेत्र का हिस्सा माना जाता है। इस क्षेत्र को चीन में दक्षिणी तिब्बत के नाम से जाना जाता है। 1962- 63 के भारत-चीन युद्ध के समय चीनी फौजों ने कुछ समय के लिए इस क्षेत्र पर अधिकार भी जमा लिया था। इस कारण ही वर्तमान समय तक इस सीमारेखा पर विवाद यथावत बना हुआ है, लेकिन भारत-चीन के बीच भौगोलिक सीमा रेखा के रूप में इसे अवश्य माना जाता है।
पिछले लगभग 11 महीने से मोदी सरकार ने चीन के साथ हिमालय में सीमा की स्थिति पर एक ढक्कन डाल दिया है। मिडिया कवरेज पर अंकुश लगा दी गयी है जिससे सूचना के स्रोतों सूख चुके है।
परंतु ऐसा नहीं है कि चीनी सीमा पार हमलों समाप्त हो गया है। सिर्फ लगातार हो रही चीनी घुसपैठ की घटनाओं की कम जानकारी है।
यह बीजिंग को 'खुश' करने के लिए है। जिस तरह से चीनी अपने अतिक्रमण को "चीनी फौजी दलों द्वारा रास्ता भटकने" कह कर ख़ारिज कर देता है, उसी तरह अब मोदी सरकार भी उन्हीं शब्दों का प्रयोग करती है।
चीन की फौज जिसे वे 'पीपुल्स लिबरेशन आर्मी' कहते है, के सैनिकों द्वारा 2008 में सिर्फ 270 बार भारतीय सीमा में "खोने" के आंकड़े उपलब्ध हैं। सिर्फ 2008 में "आक्रामक सीमा गश्ती" पीएलए द्वारा की 2,285 घुसपैठ के पैटर्न बनाए गए थे। आज भी वे उसी तरह बदस्तूर जारी है। संसद में सिर्फ बयान दी जा रही है।
चीन मुख्य रूप से लद्दाख में भारतीय क्षेत्र के अक्साई चिन और शाख्सगाम घाटी के 38,000 वर्ग किलोमीटर के अवैध कब्जे में है। चीनी दावे पिछले कुछ वर्षों से बढ़ते गए हैं। अरुणाचल में यह 90,000 वर्ग किलोमीटर भारतीय क्षेत्र पर चीन ने दावा किया है।
सरजमीन पर स्थिति देखकर और सीमा पर शांति और सौहार्द सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न सीमा समझौतों पर दोनों देशों द्वारा हस्ताक्षर किए गए हैं। शांति बनाए रखने के लिए समझौते की कोई कमी नहीं हैं, परंतु वास्तविक नियंत्रण (एलएसी) की सीमा के पार चीनी घुसपैठ बेरोकटोक जारी है।
और उससे भी गंभीर बात है कि मंत्री महोदय मनोहर पर्रिकर ने यह कह कर कि भारत और चीन के बीच सीमा तय नहीं है, भारत द्वारा "मैकमोहन लाइन" को मानने की जगह चीनी दृष्टिकोण को ही दोहरा कर, संसद में औपचारिक मान्यता दे दी।
विदेश नीति और देश की रक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषय पर ऐसी स्थिति शायद बिलकुल मनमोहन सिंह के कार्यकाल की लगती है।
दरअसल, मैकमहोन रेखा भारत और तिब्बत (जिसे चीन निगल चुका है), के बीच सीमा रेखा है। यह अस्तित्व में सन् 1914 में भारत की तत्कालीन ब्रिटिश सरकार और तिब्बत के बीच शिमला समझौते के तहत आई थी। 1914 के बाद से अगले कई वर्षो तक इस सीमारेखा का अस्तित्व कई अन्य विवादों के कारण कहीं छुप गया था, किन्तु 1935 में ओलफ केरो नामक एक अंग्रेज प्रशासनिक अधिकारी ने तत्कालीन अंग्रेज सरकार को इसे आधिकारिक तौर पर लागू करने का अनुरोध किया। 1937 में सर्वे ऑफ इंडिया के एक मानचित्र में मैकमहोन रेखा को आधिकारिक भारतीय सीमारेखा के रूप में पर दिखाया गया था।
इस सीमारेखा का नाम सर हैनरी मैकमहोन के नाम पर रखा गया था, जिनकी इस समझौते में महत्त्वपूर्ण भूमिका थी और वे भारत की तत्कालीन अंग्रेज सरकार के विदेश सचिव थे। अधिकांश हिमालय से होती हुई सीमारेखा पश्चिम में भूटान से 890 कि॰मी॰ और पूर्व में ब्रह्मपुत्र तक 260 कि॰मी॰ तक फैली है। जहां भारत के अनुसार यह चीन के साथ उसकी सीमा है, वही, चीन 1914 के शिमला समझौते को मानने से इनकार करता है। चीन के अनुसार तिब्बत स्वायत्त राज्य नहीं था और उसके पास किसी भी प्रकार के समझौते करने का कोई अधिकार नहीं था। चीन के आधिकारिक मानचित्रों में मैकमहोन रेखा के दक्षिण में 56 हजार वर्ग मील के क्षेत्र को तिब्बती स्वायत्त क्षेत्र का हिस्सा माना जाता है। इस क्षेत्र को चीन में दक्षिणी तिब्बत के नाम से जाना जाता है। 1962- 63 के भारत-चीन युद्ध के समय चीनी फौजों ने कुछ समय के लिए इस क्षेत्र पर अधिकार भी जमा लिया था। इस कारण ही वर्तमान समय तक इस सीमारेखा पर विवाद यथावत बना हुआ है, लेकिन भारत-चीन के बीच भौगोलिक सीमा रेखा के रूप में इसे अवश्य माना जाता है।
पिछले लगभग 11 महीने से मोदी सरकार ने चीन के साथ हिमालय में सीमा की स्थिति पर एक ढक्कन डाल दिया है। मिडिया कवरेज पर अंकुश लगा दी गयी है जिससे सूचना के स्रोतों सूख चुके है।
परंतु ऐसा नहीं है कि चीनी सीमा पार हमलों समाप्त हो गया है। सिर्फ लगातार हो रही चीनी घुसपैठ की घटनाओं की कम जानकारी है।
यह बीजिंग को 'खुश' करने के लिए है। जिस तरह से चीनी अपने अतिक्रमण को "चीनी फौजी दलों द्वारा रास्ता भटकने" कह कर ख़ारिज कर देता है, उसी तरह अब मोदी सरकार भी उन्हीं शब्दों का प्रयोग करती है।
चीन की फौज जिसे वे 'पीपुल्स लिबरेशन आर्मी' कहते है, के सैनिकों द्वारा 2008 में सिर्फ 270 बार भारतीय सीमा में "खोने" के आंकड़े उपलब्ध हैं। सिर्फ 2008 में "आक्रामक सीमा गश्ती" पीएलए द्वारा की 2,285 घुसपैठ के पैटर्न बनाए गए थे। आज भी वे उसी तरह बदस्तूर जारी है। संसद में सिर्फ बयान दी जा रही है।
चीन मुख्य रूप से लद्दाख में भारतीय क्षेत्र के अक्साई चिन और शाख्सगाम घाटी के 38,000 वर्ग किलोमीटर के अवैध कब्जे में है। चीनी दावे पिछले कुछ वर्षों से बढ़ते गए हैं। अरुणाचल में यह 90,000 वर्ग किलोमीटर भारतीय क्षेत्र पर चीन ने दावा किया है।
सरजमीन पर स्थिति देखकर और सीमा पर शांति और सौहार्द सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न सीमा समझौतों पर दोनों देशों द्वारा हस्ताक्षर किए गए हैं। शांति बनाए रखने के लिए समझौते की कोई कमी नहीं हैं, परंतु वास्तविक नियंत्रण (एलएसी) की सीमा के पार चीनी घुसपैठ बेरोकटोक जारी है।
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