बढ़ती बेरोज़गारी और सत्ताधारियों की बेशर्मी:
ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के अनुसार बेरोज़गारी की बढ़ती दर के मामले में भारत 8.0 प्रतिशत की दर के साथ एशिया में पहले स्थान पर पहुँच गया है। उप-राष्ट्रपति के पद को शोभायमान कर रहे वंकैया नायडू ने हालिया दिनों में बयान दिया था कि सभी को सरकारी नौकरी नहीं दी जा सकती व स्वरोज़गार भी काम ही है तथा साथ ही कह दिया कि चुनाव में हर पार्टी रोज़गार देने जैसे वायदे कर ही दिया करती है, तो कहने का मतलब भाजपा ने भी तो इसी गौरवशाली परम्परा को ही आगे बढ़ाया है! ‘न्यूज़ रूम’ से लेकर राज्यसभा और वहाँ से लेकर नेताओं-मन्त्रियों और सरकारी भोंपुओं के दरबारों तक हर जगह पकौड़े का ख़ूब महात्म्य गाया जा रहा है। आप बेशक मशहूर शायर दुष्यन्त कुमार के विचारों से इत्तेफ़ाक न रखते हों, पर उनका एक शेर हुक्मरानों की अच्छी कलई खोलता है। शेर है – ‘कहाँ तो तय था चरागाँ हर घर के लिए / कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए’। हालिया अख़बारी ख़बरों के हवाले से यह बात सामने आयी है कि केन्द्र में बैठी भाजपा नीत राजग सरकार पाँच साल से ख़ाली पड़े पदों को समाप्त करने की ठान चुकी है। केन्द्र सरकार के द्वारा कुल 36 लाख 33 हज़ार 935 पदों में से 4 लाख 12 हज़ार 752 पड़ ख़ाली पड़े हैं तथा इनमें से क़रीब आधे पद ख़ाली हैं। कहाँ तो चुनाव से पहले करोड़ों रोज़गार देने के ढोल बजाय जा रहे थे कहाँ अब ख़ाली पदों पर काबिल युवाओं को नियुक्त करने की बजाय पदों को ही समाप्त करने के लिए कमर कस ली गयी है। देश के प्रधानमन्त्री से लेकर सरकार के आला मन्त्रीगण बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि ‘शाम तक 200 रुपये के पकौड़े बेचना भी काफ़ी बेहतर रोज़गार है’ और इसके लिए भी सरकार बहादुर अपनी पीठ थपथपा रही है! अब ‘मरता क्या न करता’ अपना और अपने बच्चों का पेट भरने के लिए फ़ाके करके और किसी-न-किसी तरह छोटे-मोटे काम काम-धन्धे करके जैसे-तैसे लोग गुज़र-बसर कर रहे हैं, किन्तु आम जन की हालत का मज़ाक़ उड़ाते हुए बेशर्म सत्ताधारियों द्वारा कहा जा रहा है कि ‘स्वरोज़गार भी तो नौकरी ही है। नौकरी के लिए सरकार का मुँह ताकने की क्या ज़रूरत है?’ लेकिन बजट बनाते समय करों का बोझ जब जनता की कमर पर लादना हो तब सरकार को क़तई अहसास नहीं होता कि यह जो जनता की जेब से एक-एक दमड़ी निचोड़ी जा रही है, इसके बदले में जनता को वापस कुछ देने का भी फ़र्ज़ बनता है! आम मेहनतकश लोग व्यवस्था का बोझ भी उठायें और कुछ माँग भी न करें! यह कहाँ का न्याय है? आज देश एक अभूतपूर्व दौर से गुज़र रहा है। शिक्षा-स्वास्थ्य-रोज़गार के हालात भयंकर बुरे हैं, किन्तु दूसरी और साम्प्रदायिक और जातीय दंगों को बढ़ावा दिया जा रहा है। ख़ुद सरकार में बैठे नेतागणों में से भी बहुत सारे दंगों की आँच में अपनी रोटियाँ सेंकते नज़र आ रहे हैं। हाल ही में हुए गुजरात चुनाव प्रचार में सबके सामने आ गया है कि “विकास” व “गुजरात मॉडल” के नाम पर झूठ बोलकर लोगों को अब नहीं ठगा जा सकता, इसलिए वोट की राजनीति फिर से मन्दिर-मस्जिद पर केन्द्रित हो चुकी है। इसलिए अब यह समझना भी मुश्किल नहीं है कि 2019 में चुनावी प्रचार का ऊँट किस करवट बैठने वाला है। यानी इसकी काफ़ी सम्भावना है कि जाति-धर्म के दंगों में होने वाली ख़ून की बारिश में ही मतदान की फ़सल लहलहायेगी!
देश में लम्बे समय से बेरोज़गारी का संकट बढ़ता ही चला जा रहा है। तमाम सरकारें आयीं और चली गयीं, किन्तु आबादी के अनुपात में रोज़गार बढ़ना तो दूर उल्टा घटते चले गये। सरकारी नौकरियाँ नाममात्र के लिए निकल रही हैं, सार्वजनिक क्षेत्रों की बर्बादी जारी है। केन्द्र और राज्यों के स्तर पर लाखों-लाख पद ख़ाली पड़े हैं। भर्तियों को लटकाकर रखा जाता है, सरकारें भर्तियों की परीक्षाएँ करने के बाद भी उत्तीर्ण उम्मीदवारों को नियुक्तियाँ नहीं देतीं! परीक्षाएँ और इण्टरव्यू देने में युवाओं के समय, स्वास्थ्य दोनों का नुक़सान होता है तथा आर्थिक रूप से परिवार की कमर ही टूट जाती है। नये रोज़गार सृजित करने का वायदा निभाने की बात तो दूर की है, सरकारें पहले से मौजूद लाखों पदों पर रिक्तियों को ही नहीं भर रही हैं। सरकारी ख़ज़ाने से नेताओं, मन्त्रियों, नौकरशाहों की सुरक्षा और ऐयाशी पर ख़र्च होने वाले अरबों रुपये अप्रत्यक्ष करों के रूप में हमारी जेबों से ही वसूले जाते हैं, तो क्या बदले में हमें शिक्षा-रोज़गार की बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं मिलनी चाहिए? उल्टे आज महँगाई लोगों की कमर तोड़ रही है, व्यापक जनता के लिए रोज़गार ‘आकाश कुसुम’ हो गये हैं, कॉर्पोरेट घरानों के सामने सरकारें दण्डवत हैं तथा सत्ता के ताबेदारों ने बड़ी ही बेहयाई के साथ बेरोज़गारी के घाव को कुरेद-कुरेदकर नासूर बना दिया है।
बेरोज़गारी की भयंकरता की कहानी, कुछ आँकड़ों की ज़ुबानी!
रोज़गारहीनता के मामले में आम जनता कम-से-कम स्वयं को तो कोसना बन्द ही कर दे! बहुत समय नहीं हुआ जब राज्यसभा में कैबिनेट राज्यमन्त्री जितेन्द्र प्रसाद ने माना था कि कुल 4,20,547 पद तो अकेले केन्द्र में ख़ाली पड़े हैं। देश-भर में प्राइमरी-अपर-प्राइमरी अध्यापकों के क़रीब 10 लाख पद, पुलिस विभाग में 5 लाख 49 हज़ार 25 पद, 47 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में 6 हज़ार पद, 363 राज्य विश्वविद्यालयों में 63 हज़ार पद रिक्त हैं, विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार चलने पर तो देश भर में 5 लाख डॉक्टरों की तुरन्त ज़रूरत है, इन मानकों को पूरा करना तो दूर की कौड़ी है, यदि 36 हज़ार सरकारी अस्पतालों के 2 लाख से ज़्यादा ख़ाली पड़े डॉक्टरों के पदों पर न्युक्तियाँ कर दी जायें तो गनीमत हो। यही नहीं 11,500 मनोचिकित्सकों के पद भी ख़ाली पड़े हैं। केन्द्र और राज्यों के स्तर पर क़रीब बीसियों लाख पद ख़ाली हैं। एक ओर पाखण्डी गोबर-गणेशों को भारत “विश्वगुरू” बनता दिख रहा है, दूसरी ओर यहाँ शिक्षण संस्थानों और अस्पतालों में आधे से अधिक पद तो ख़ाली ही पड़े हैं! भाजपा के दिग्गजों ने कभी एक करोड़ तो कभी दो करोड़ रोज़गार देने के चुनावी जुमले उछाले थे, किन्तु साढ़े तीन साल बीत जाने के बाद आधिकारिक श्रम ब्यूरो के आँकड़ों के मुताबिक़ सिर्फ़ 5 लाख नयी नौकरियों को जोड़ा गया है। वर्ष 2012 में भारत की बेरोज़गारी दर 3.8 प्रतिशत थी जो 2015-16 में 5 प्रतिशत पहुँच गयी। श्रम ब्यूरो सर्वेक्षण 2013-14 और 2015-16 के बीच 37.4 लाख नौकरियों की कमी दर्शाता है। र्इपीडब्ल्यू के एक लेख के मुताबिक़ रोज़गार में कमी 53 लाख तक पहुँच गयी है। केन्द्रीय श्रम मन्त्रालय के आँकड़ों के मुताबिक़ वर्ष 2015 और 2016 में क्रमश: 1.55 लाख और 2.31 लाख (पिछले आठ सालों में सबसे कम) नयी नौकरियाँ सृजित हुईं। 1991 में लागू की गयी उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों ने रोज़गार पर ग्रहण लगाना शुरू कर दिया था, मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में वर्ष 2009 में 10 लाख नयी नौकरियाँ सृजित हुई थीं, जोकि ‘ऊँट के मुँह में जीरा’ थीं किन्तु इसके बाद तो हालत बद से बदतर होती चली गयी। सर्वे बताते हैं कि मोदी राज में संगठित-असंगठित क्षेत्र में 2 करोड़ रोज़गार छीने गये हैं। सांख्यिकी मन्त्रालय के आँकड़ों की मानें तो भारत में 15 से 29 बरस के बीच की आयु के 33,33,65,000 युवा हैं। ‘ओईसीडी’ की रिपोर्ट कहती है कि कुल युवाओं की उक्त संख्या में से 30 प्रतिशत न तो पढ़ाई करते हैं और न ही कोई नौकरी। साल 2013 के श्रम और रोज़गार मन्त्रालय के ही एक आँकड़े के अनुसार ग्रामीण और शहरी स्नातक (ग्रेजुएट) युवाओं में क्रमशः 36.4 प्रतिशत और 26.5 प्रतिशत बेरोज़गारी दर अनुमानित है। सरकारी आँकड़ों की सीमा को समझते हुए प्रच्छन्न और अर्ध-बेरोज़गारों को जोड़ दें तो बेरोज़गारों का असल आँकड़ा 25 करोड़ से भी ज़्यादा बैठेगा।
ज़रा एक नज़र उन भर्तियों पर डाल लें, जिन्हें अधर में लटकाकर रखा गया है या फिर पूरा तो कर दिया गया, किन्तु नियुक्ति का कहीं कुछ अता-पता नहीं है। 2016 में क़रीब 15 लाख़ अभ्यार्थियों ने एसएससी-सीजीएल की परीक्षा दी थी। 10,661 का नौकरी के लिए चुनाव हुआ, 5 अगस्त 2017 को नतीजा भी आ गया किन्तु अब तक नियुक्ति नहीं हो रही है। हरियाणा कर्मचारी चयन सेवा आयोग की 2015 में नौकरियाँ निकली थीं, परीक्षा होकर नतीजा आने में दो वर्ष लग गये पर नियुक्ति यहाँ भी नदारद है। हरियाणा में ही 2015 में पीजीटी स्कूल अध्यापक की भर्ती निकली जिसकी परीक्षा तो किसी तरह से हो गयी किन्तु अभी तक साक्षात्कार नहीं हो सका है। इसी प्रकार 2015 में रेलवे में ग़ैर-तकनीकी पदों हेतु 18 हज़ार की भर्ती का विज्ञापन आया था, परीक्षा प्रक्रिया के बीच में ही 4 हज़ार पदों को कम कर दिया गया। इस भर्ती को भी दो साल गुज़र गये किन्तु मेडिकल होना अभी बाक़ी ही है। आरआरबी मुम्बई भर्ती की अगस्त 2015 में परीक्षा हुई और 30 नवम्बर 2017 को परिणाम भी आ गया किन्तु नियुक्ति के लिए अभ्यार्थी अभी तक पलक-पाँवड़े बिछाये हुए हैं। एसएससी सीपीओ का जनवरी 2016 में विज्ञापन आया पर पेपर लीक होने के कारण परीक्षा टाल दी गयी, फिर दोबारा परीक्षा हुई तथा पूरी प्रक्रिया होने के बाद सितम्बर 2017 में परिणाम निकला किन्तु अभी तक नियुक्ति नहीं हुई है। इसी तरह से एसएससी सीएचएसएल की 2015 में प्री की परीक्षा हुई, मुख्य परीक्षा व टाइपिंग टेस्ट में 2 साल गुज़र गये और अन्तिम परिणाम अक्टूबर 2017 को आया, किन्तु नियुक्ति के नाम पर वही ‘ढाक के तीन पात’। इसी प्रकार यूपी लोक सेवा आयोग ने 2013 में राज्य स्तर पर इंजीनियरिंग की परीक्षा के लिए फ़ॉर्म निकाले थे, जैसे-तैसे परीक्षा 2015 में हो गयी किन्तु सरकार बदल गयी पर परीक्षा परिणाम के इन्तज़ार में अभ्यार्थियों की उम्र पाँच बरस बढ़ चुकी है। उत्तराखण्ड में अप्रैल 2015 में सहायक अभियन्ता की परीक्षा हुई किन्तु परीक्षा परिणाम का यहाँ भी कुछ अता-पता नहीं है। दिल्ली सेलेक्शन बोर्ड की 2015 में फार्मास्यूटिकल की भर्ती निकली, जिसकी 2015 में परीक्षा हुई जिसका परिणाम तो आ गया किन्तु नियुक्ति के मामले में परिणाम शून्य। इसी तरह बिहार में बीपीएससी 56-59 का 17 महीने से परीक्षा परिणाम नहीं आया है किन्तु अगली भर्ती यानी बीपीएससी 60-62 की परीक्षा की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है तथा बीपीएससी 63 के फ़ॉर्म भरे जा चुके हैं। झारखण्ड लोकसेवा आयोग के ढंग तो और भी निराले हैं। यहाँ 17 साल में कुल पाँच बार परीक्षा हुई है जिसमें से भी दो बार की परीक्षा रद्द हो गयी! छठी परीक्षा का फ़ॉर्म 2015 में निकला जिसकी तारीख़ तीन बार बढ़ायी गयी; मर-पड़ कर 18 दिसम्बर 2016 को प्री की परीक्षा हुई फिर मेंस की परीक्षा की तारीख़ भी दो बार बढ़ायी गयी किन्तु फिर भी परीक्षा अभी तक नहीं हुई है! 2015 की भर्ती 2018 तक भी पूरी हो जाये तो गनीमत हो। दोस्तो! अटकी पड़ी भर्तियों के ये तो कुछ प्रातिनिधिक उदाहरण ही सामने हैं!
दिल्ली में 2013 में 9.13 लाख बेरोज़गार थे जोकि 2014 में बढ़कर 10.97 लाख हो गये। यही नहीं 2015 में इनकी संख्या 12.22 लाख हो गयी। नोटबन्दी और जीएसटी के बाद के हालात तो सामने ही हैं, जब दिल्ली में ही लाखों लोगों के मुँह से निवाला छीन लिया गया। आम आदमी पार्टी ने 55,000 ख़ाली पदों को तुरन्त भरने और ठेका प्रथा ख़त्म करने की बात की थी, किन्तु रोज़गार से जुड़े तमाम मामलों में यहाँ भी वही ‘ढाक के तीन पात’ हैं। हरियाणा में रोज़गार के हालात की बात करें तो 1966 में यहाँ रोज़गार दफ़्तर में कुल 36,522 लोगों के नाम दर्ज थे जोकि 2009 में बढ़कर 9,60,145 हो गये। यह तो 2017 की ही बात है जब मदवि, रोहतक में चपरासी के मात्र 92 पदों के लिए 22 हज़ार अभ्यार्थियों ने आवेदन किया था। एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार स्कूल अध्यापकों के कुल 1 लाख 28 हज़ार 791 पदों में से 52 हज़ार 675 पद रिक्त पड़े हैं। लाखों युवा डिग्रियों का गट्ठर लेकर घूम रहे हैं पर हरियाणा के मुख्यमन्त्री खट्टर के कानों पर जूँ तक नहीं रेंग रही। हरियाणा में लाखों युवाओं को रोज़गार के अवसर मुहैया कराने का वायदा करने वाली भाजपा सरकार अब कभी तो जातिवाद और आरक्षण का धुआँ उड़ा देती है; कभी गाय की पूँछ पकड़ लेती है; कभी शतुरमुर्ग की तरह “सरस्वती नदी” में अपनी गर्दन घुसा लेती है तो कभी गीता के नाम पर पाखण्ड रचने लगती है!
देश की जनता के साथ भारतीय राज्य का छल
भारतीय राज्य और सरकारें देश के संविधान को लेकर ख़ूब लम्बी-चौड़ी बातें करते हैं। संविधान का अनुच्छेद 14 कहता है कि ‘सभी को समान नागरिक अधिकार’ मिलने चाहिए और अनुच्छेद 21 के अनुसार ‘मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार’ सभी को है। किन्तु ये अधिकार देश की बहुत बड़ी आबादी के असल जीवन से कोसों दूर हैं। क्योंकि न तो देश स्तर पर एक समान शिक्षा-व्यवस्था लागू है तथा न ही देश में करोड़ों लोगों के लिए पक्के रोज़गार की कोई गारण्टी है। हर काम करने योग्य स्त्री-पुरूष को रोज़गार का अधिकार मिलना ही सही मायने में उसका ‘जीने का अधिकार’ है। मनरेगा में सरकार ने पहली बार माना था कि रोज़गार की गारण्टी देना उसकी ज़िम्मेदारी है किन्तु यह योजना भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गयी। न केवल ग्रामीण और न केवल 100 दिन बल्कि हरेक के लिए उचित जीवनयापन योग्य पक्के रोज़गार के प्रबन्ध की ज़िम्मेदारी सरकारों की बनती है, यह हमारा जायज़ हक़ है। जिसका सीधा सा कारण यह है कि सरकारी ख़ज़ाने का बहुत बड़ा हिस्सा जनता से आने वाले अप्रत्यक्ष करों से भरता है। यदि सरकारें जनता को शिक्षा-रोज़गार-चिकित्सा जैसी बुनियादी सुविधाएँ तक नहीं दे पाती तो फिर ये हैं ही किसलिए? पूँजीपतियों को तो करोड़ों-अरबों रुपये और सुविधाएँ खैरात में मिल जाते हैं, बैंकों का अरबों-खरबों रुपये धन्नासेठों के द्वारा बिना डकार तक लिये निगल लिया जाता है। दूसरी तरफ़ आम ग़रीब लोगों को व्यवस्था का शिकार बनाकर तबाही-बर्बादी में धकेल दिया जाता है!
क्या किया जाये?
ज़रा दिमाग़ पर ज़ोर डालकर सोचने पर हम समझ सकते हैं कि सभी को रोज़गार देने के लिए तीन चीज़ें चाहिए (1) काम करने योग्य हाथ (2) विकास की सम्भावनाएँ (3) प्राकृतिक संसाधन। क्या हमारे यहाँ इन तीनों चीज़ों की कमी है? अब सवाल सरकारों की नीयत पर उठता है। पूँजीपरस्त और जनविरोधी नीतियों को लागू करने में कांग्रेस-भाजपा से लेकर तमाम रंगों-झण्डों वाले चुनावी दल एकमत हैं, विरोध की नौटंकी केवल विपक्ष में बैठकर ही की जाती है! धर्म, जातिवाद और क्षेत्रवाद की राजनीति करने वाली चुनावी पार्टियाँ केवल अपनी गोटियाँ लाल करने के लिए हमें आपस में बाँटती हैं। ये किसी की सगी नहीं, अन्यथा ये ख़ाली पदों को भरतीं और शिक्षा-रोज़गार-स्वास्थ्य के लिए नीतियाँ बनातीं। असल बात यह है कि मौजूदा तमाम चुनावी पार्टियों का मक़सद ही आम जनता को ठगना है। और आज लुटरों के सभी दलों में से भाजपा ही पूँजीपतियों को अधिक रास आ रही है। यह अनायास ही नहीं है कि अकेली भाजपा को ही कुल कॉर्पोरेट का 2012-13 में 89 प्रतिशत और 2015-16 में 87 प्रतिशत चन्दा प्राप्त हुआ है। अब आप ही सोचिए कि इन्हें आपकी फ़िक्र होगी या फिर अपने आकाओं की? रास भी क्यों न आये क्योंकि भाजपा संघ परिवार का हिस्सा है जोकि अपने ऐतिहासिक पुरखों की तरह फ़ासीवादी राजनीति के तहत आम जन को आपस में बाँटने का काम बड़ी ही शिद्दत से कर रहा है! लेकिन हर अँधेरे दौर की तरह मौजूदा दौर भी बीत जाना निश्चित है, यह आम जन की नियति नहीं है। किन्तु यह भी उतना ही सच है कि यह दौर भी अपने आप नहीं बीतेगा बल्कि जन आन्दोलनों का दबाव ही सत्ताधारियों के घुटने टिका सकता है। इस या उस चुनावी मदारी की पूँछ पकड़ने की बजाय जन आन्दोलनों के द्वारा ही आम जन अपने हक़-अधिकार हासिल कर सकते हैं। सरकारी अन्याय और अन्धेरगर्दी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी होगी। धर्म-जाति-आरक्षण के नाम पर किये जा रहे बँटवारे की राजनीति को समझना होगा। केवल और केवल अपनी एकजुटता के बल पर शिक्षा-स्वास्थ्य-रोज़गार से जुड़े अपने हक़-अधिकार हासिल किये जा सकते हैं। छात्रों-युवाओं और मेहनतकशों को इस बात को गहराई से समझना होगा। ग़ैरज़रूरी मुद्दों पर झगड़ों-दंगों से कोई फ़ायदा नहीं होगा। इन बातों को जितना जल्दी समझ लिया जाये उतना बेहतर होगा वरना आने वाली पीढ़ियों के सामने जवाब देने के लिए हमारे पास शब्द नहीं होंगे!
मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2018
"There is equality only among equals. To equate unequals is to perpetuate inequality." ~ Bindheshwari Prasad Mandal "All epoch-making revolutionary events have been produced not by written but by spoken word."-~ADOLF HITLER.
About Me
- Suraj Yadav
- New Delhi, NCR of Delhi, India
- I am an Indian, a Yadav from (Madhepura) Bihar, a social and political activist, a College Professor at University of Delhi and a nationalist.,a fighter,dedicated to the cause of the downtrodden.....