आज भरत के आठवें प्रधान मंत्री, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मंडल मसीहा राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह की पुण्यतिथि है। राजा साहब से मैं 1987 से हीं जुड़ा था, जब उन्हें अपने मित्र दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष Narinder Tandon के साथ इन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय के ऐतिहासिक सभा में आमंत्रित किया था। 27 नवम्बर, 2008 को 77 वर्ष की अवस्था में वी. पी. सिंह का निधन दिल्ली के अपोलो हॉस्पीटल में हुआ था। मैं उनकी अंतिम यात्रा में 1,तीन मूर्ति मार्ग से हवाई अड्डे तक शामिल था।
विश्वनाथ प्रताप सिंह का जन्म 25 जून, 1931 उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद ज़िले में हुआ था। वह राजा बहादुर राय गोपाल सिंह के पुत्र थे। उन्होंने इलाहाबाद और पूना विश्वविद्यालय में अध्ययन किया था। वे 1947-1948 में उदय प्रताप कॉलेज, वाराणसी की विद्यार्थी यूनियन के अध्यक्ष रहे और इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्टूडेंट यूनियन में उपाध्यक्ष भी थे। 9 जून, 1980 से 28 जून, 1982 तक वे उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री रहे। 31 दिसम्बर, 1984 को वह भारत के वित्तमंत्री भी बने। इसी बीच स्वीडन ने 16 अप्रैल, 1987 को यह समाचार प्रसारित किया कि भारत के बोफोर्स कम्पनी की 410 तोपों का सौदा हुआ था, उसमें 60 करोड़ की राशि कमीशन के तौर पर दी गई थी, जिसे बाद में 'बोफोर्स कांड' के तौर पर जाना गया।
12 जनवरी, 1987 को उन्हें वित्त मंत्रालय से हटा कर रक्षा मंत्री बना दिया गया, जिस पद अपर वे 12 अप्रैल,1987 को इस्तीफा देने तक रहे। उसके बाद उन्हें राजीव गाँधी ने कांग्रेस से निष्काषित कर दिया। वी. पी. सिंह ने विद्याचरण शुक्ल, अरुण नेहरु, अरुण सिंह आरिफ मुहम्मद खान, रामधन तथा सतपाल मलिक और अन्य असंतुष्ट कांग्रेसियों के साथ मिलकर 2 अक्टूबर, 1987 को अपना एक पृथक मोर्चा गठित कर लिया। इस मोर्चे को भारतीय जनता पार्टी और वामदलों ने भी समर्थन देने की घोषणा कर दी। इस प्रकार सात दलों के मोर्चे का निर्माण 6 अगस्त, 1988 को हुआ और 11 अक्टूबर, 1988 को राष्ट्रीय मोर्चा का विधिवत गठन कर लिया गया। इधर लोक सभा चुनाव की घोषणा हो गयी।
1989 का लोकसभा चुनाव पूर्ण हुआ। कांग्रेस को भारी क्षति उठानी पड़ी। उसे मात्र 197 सीटें ही प्राप्त हुईं। विश्वनाथ प्रताप सिंह के राष्ट्रीय मोर्चे को 146 सीटें मिलीं। भाजपा के 86 सांसद थे और वामदलों के पास 52 सांसद के समर्थन से राष्ट्रीय मोर्चे को 248 सदस्यों का समर्थन प्राप्त हो गया और वी. पी.सिंह प्रधानमंत्री बने। दिसंबर 1980 से ठन्डे बस्ते में पड़ी मंडल आयोग के रिपोर्ट को 9 अगस्त, 1990 को आंशिक रूप से लागू कर इस देश के 52% से भी अधिक पिछड़े वर्ग को केंद्र सरकार की नौकरियों में 27% आरक्षण देकर समाजिक न्याय दिलाने का प्रयास किया, जिससे तमाम उच्च जातियां उनकी 'दुश्मन' बन बैठे, की उनकी मृत्यु पर भी उन्हें मिलने वाले सम्मान से वंचित किया गया।
स्व विश्वनाथ प्रताप सिंह की स्मृति में उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि।
"There is equality only among equals. To equate unequals is to perpetuate inequality." ~ Bindheshwari Prasad Mandal "All epoch-making revolutionary events have been produced not by written but by spoken word."-~ADOLF HITLER.
About Me
- Suraj Yadav
- New Delhi, NCR of Delhi, India
- I am an Indian, a Yadav from (Madhepura) Bihar, a social and political activist, a College Professor at University of Delhi and a nationalist.,a fighter,dedicated to the cause of the downtrodden.....
Tuesday, November 27, 2012
Saturday, November 24, 2012
नितीश सरकार की रिपोर्ट कार्ड - मुख्यमंत्री का दावा खोखला और आंकड़े किताबी ...
अपने राजनैतिक स्वाभाव के अनुरूप नितीश कुमार अपने सरकार के कामकाज की मीडिया में आज तारीफ के पुल बाँध कर उसकी वाहवाही की डफली बजा रहें हैं. खैर, ऐसा सभी नेता करते हैं. लेकिन अगर इस सरकार की पिछले सरकार से इसलिए तुलना न की जाये क्योंकि तब ' सुशासन' का दावा नहीं था, तो 'सुशासन का सच' दिख जायेगा. मीडिया की तारीफ और सरज़मीन की सच्चाई का एक ट्रेलर तो पटना के अदालतगंज घाट की छठ पूजा की बद-इन्तजामी में हीं दिख गया था जब 20 नवम्बर को कुछ मिनटों पहले मुख्यमंत्री अपने काफिले में हाथ हिलाते गुजरे थे और तब ऐसी दुखद और हृदयविदारक त्रासदी हुई, जिसकी 'जांच' के आदेश देकर उसे भूलने के लिए कह दिया गया. गौरतलब है की जब छठ पूजा (बिहार के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण) की तैयारियां चल रही थी और उसके लिए पास राशियों की बंदरबांट हो रही थी, तब 'अल्पसंख्यक वोट' के लिए बेकरार विकास पुरुष पाकिस्तान में जिन्ना के मकबरे पर पुष्प श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे थे. 'जाँच' की विषादपूर्ण पहलू यह है की सुशासन बाबू के पहले टर्म में कोसी की भीषण त्रासदी, ( मानव अपराधिक लापरवाही से हुई दुर्घटना को त्रासदी कहते हैं), हुई थी, जिसमें आठ जिले प्रभावित के लाखों लोग प्रभावित हुए थे, और उनकी चल-अचल संपत्ति और पशु-मवेशी का भीषण नुकसान हुआ था. इस त्रासदी की जिम्मेदारी तत्कालीन जल संसाधन मंत्री और उनके रिश्तेदार ठेकेदार और दोषी अभियंताओं का माना गया था. इन लोगों को बचाने के उद्देश्य से एक सद्सीय न्यायिक जांच आयोग, राजेश वालिया कमीशन, गठित किया गया जिसे तीन महीने में रिपोर्ट देना था. आज उस त्रासदी के चार वर्ष से ऊपर हो गए हैं, और RTI जानकारी के अनुसार अब तक इस आयोग पर ढाई करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं, लेकिन रिपोर्ट का अता-पता नहीं है.
अगर कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं पर इस सरकार के कामकाज का विश्लेषण किया जाये तो पता चलता है की मुख्यमंत्री का दावा खोखला है और आंकड़े किताबी हैं. कहा गया की राज्य में लोकायुक्त का गठन हुआ है. इसके प्रावधानों पर टीम अन्ना ने भी निराशा व्यक्त की थी. संक्षेप में कहा जाय तो यह बताना आवश्यक है की बिहार के लोकायुक्त के समक्ष आम आदमी किसी अधिकारी के भ्रष्टाचार की शिकायत कर हीं नहीं सकता, क्योंकि पहले दोषी अधिकारी के समक्ष वह शिकायत जायेगा, और तब वह अधिकारी अपनी सफाई प्रस्तुत करेगा एवं सरकारी वकील उस अधिकारी का बचाओ करेगा. अगर आपकी शिकायत साबित नहीं हुई ( शिकायत साबित कर हीं नहीं पाएंगे), तो शिकायतकर्ता को जुर्माना और दो साल की जेल बामुशक्कत दिए जाने का प्रावधान है. अधिकारीयों के संपत्ति का ब्यौरा आज कल सबसे हँसाने वाले चुटकुले हैं, और चंदा मामा की कहानियों को मात कर रही है. राज्य के एक वरिष्ठ अधिकारी का पटना के डाक बंगला चौराहे पर भारी संपत्ति और होटल के बारे में रिक्शा वाले भी जानते हैं, परन्तु सरकारी वेबसाइट पर उन्हें चढ़ने के लिए के कार भी नहीं है. ये जो कुछ भ्रष्ट अधिकारी के संपत्ति को जब्त करने की ढिंढोरा पीटा जा रहा है, यह उस समय बेईमानी लगती है जब आपको पता चलेगा की किस निर्लज्जता के साथ सरकार के मंत्री अधिकरियों से पैसों की मांग करते हैं, और बदले में उन्हें जनता और उनके विकास के लिए तय राशियों को लूटने की खुली छूट देते हैं. मधेपुरा जिला में यह आँखों देखी बता रहा हूँ की मंत्री किस तरह अधिकारीयों को बुला कर अपना 'कमीशन' उसूलते हैं. (मंत्रियों के नाम भी कभी सार्वजनिक करूंगा जब उनके कुकर्म का रिकार्डिंग भी मिल जायेगा). आलम यह है की केंद्र सरकार की मनरेगा सरीखे योजनाओं की बड़ी राशी गबन की जा रही है. इसी गबन को और बढ़ाने के लिए तथाकथित 'विशेष दर्जे' की मांग की जा रही है.
कैग ( भारत सरकार का महालेखाकार) के रिपोर्ट में कहा गया था की २००७-०८ तक बिहार सरकार ने ११,४१२ कड़ोड़ रूपये के विकास खर्च के लेख-जोखा में गड़बड़ी की है, और बाद में पटना उच्च न्यायलय ने भी इस पर संज्ञान लिया था और सी बी आई जांच की अनुशंसा की थी , जिसे manage कर लिया गया.
कैग की एक दुसरे रिपोर्ट में कहा गया है की बाढ़ सहायता में एक बड़ा घोटाला हुआ है और अगस्त - अक्तूबर २००७ में कुछ जिलों में ट्रक पर राशन भेजने के बजाय मोटर सायकल पर खाद्य सामग्री ढोए गए थे जिसमें बाढ़ राहत के लिए २७४.१५ quintal का गोल माल हुआ था. विधान सभा में पेश कैग के अन्य रिपोर्ट में दोपहर खाने, स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना में भारी घोटाले के आरोप लगाये गए हैं जिन पर राज्य सरकार ने कोई कार्यवाई नहीं की है. कैग रिपोर्ट में राष्ट्रिय ग्रामीण स्वास्थ्य स्कीम, जननी सुरक्षा योजना अदि में भ्रष्ट अफसरशाही के कारण १४०० कड़ोड़ रूपये का घोटाला हुआ. शिक्षक ट्रेनिंग के लिए ८.७३ कड़ोड़ रूपये का कोई उपयोग ही नहीं हुआ.
बिहार पुलिस से अधिक भ्रष्ट शायद हीं किसी राज्य की पुलिस होगी. अगर किसी अपराध की रपट लिखाने थाना जायेंगे, तो उस समय तो आपकी प्रथम सूचना रपट तो हरगिज़ नहीं लिखी जाएगी. जिस पर केस बनता है, थानेदार पहले उससे पैसों की बात करेगा, और अगर बात नहीं बनी तो आपसे पैसे लेकर रिपोर्ट दर्ज की जाएगी. मुझे उस समय घोर आश्चर्य हुआ जब बिहार पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी से पता चला की अपने प्रमोशन के लिए फ़ाइल बढाने के लिए अपने ही मातहत एक कनीय अधिकारी को उन्होंने घूस दी, क्योंकि यही प्रचलन है.
सुशासन बाबू कह रहें है की RTI का प्रावधान किया गया. मैं यह बता देना आवश्यक समझता हूँ की बिहार शायद उन चंद राज्यों में है, जहाँ सबसे अधिक RTI के मामले लंबित है, जिनके जवाब नहीं दिए गए और उन पर अपील की जा रही है, जिसकी सुनवाई नहीं है. बिहार सरकार ने अपनी ओर से अलग प्रावधान किया है की एक बार में सिर्फ दो प्रश्न पूछे जा सकते हैं. दिलचस्प बात यह है की कई ऐसे मामले आये हैं जब RTI में पूछे गए प्रश्न का कोरे कागज़ भेज कर जवाब दिया गया है! यह बिहार सरकार के इस कानून के प्रति उदासीनता का हीं नतीजा है.
बिजली की बात में कई आंकड़े पेश किये गए. बताना चाहूँगा की मधेपुरा जैसे जगह में कई दिनों तो १२ में सिर्फ २ घंटे बिजली आती है. बिजली के दावे का खोखलापन का अंदाज़ा आप ऐसे लगा सकते हैं की अधिकांश जिला मुख्यालयों में सबसे अधिक डीजल की खपत वहां बैंक जैसे प्रतिष्ठानों और कार्यालयों के जेनरेटर चलाने में हीं होते हैं. बिजली की स्थिति का एक वाकया वैशाली जिला के पातेपुर थाना के अंतर्गत इमादपुर गाँव का है, जहाँ 2004 में गाँव का बिजली ट्रांसफर्मर जल गया था, और आज तक बदला नहीं गया क्योंकि गाँव वालों ने इस सुशासन में उसे बदलने के लिए बिजली विभाग के अधिकारीयों को घूस देने से मना कर दिया!
जो उलझ कर रह गई फाइलों के जाल में ,
गाँव तक वो रोशनी आयेगी कितने साल में.
अस्पतालों की स्थिति यह है की केंद्र सरकार से प्राप्त जिला अस्पतालों में उपलब्ध दवाईयों के लिए फंड जो पहले जिलों में जिला अधिकारी और सिविल सर्जन के पास होते थे, उसे स्वास्थ्य मंत्री ने कार्यकारी आदेश देकर केन्द्रीयकृत कर दिया है, और अपने पुत्र को एकमात्र एजेंसी नियुक्त किया है, जहाँ से दोयम दर्जे की दवाईयाँ लेना अनिवार्य है!
सडकों की स्थिति दिन पर दिन ख़राब हो रही है और केंद्र सरकार से प्राप्त राशियों पर बनी सडकों का श्रेय भी लेना अब दूभर हो रहा है.
अपने 'अधिकार यात्रा ' के दौरान जगह जगह पर नितीश कुमार पर जूते-चप्पल क्यों चले उस पर थोड़ी जानकारी दे दूं- बिहार में शिक्षा मित्र की शुरुआत तत्कालीन मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के शासन काल में हुई थी लेकिन शिक्षामित्र फेज़ २ की शुरुआत वर्तमान मुख्यमंत्री नीतिश कुमार जी के कर कमलों द्वारा संपन्न हुआ. जिसमे असीमित घोटाले हुए. कही कही तो उच्च अंक प्राप्त अभ्यर्थी की जगह पैसे लेकर ऐसे लोगो को शिक्षा मित्र बनाया गया है जो कही से भी उस पद के लायक नहीं थे. जिनका कोउन्सल्लिंग भी नहीं हुआ था, पैसे की माया ने इस मेघा घोटाले को पूरी तरह ढक दिया. अभी भी बिहार के प्रखंड से लेकर जिले तक और जिले से लेकर मुख्यमंत्री कार्यालय तक सेकडों की तादाद में शिकायत दर्ज है, जिसका निबटारा नीतिश जी के आदेश के बावजूद अभी तक नहीं हुआ है, क्यों की अभ्यर्थी और उनके रिश्तेदार साथ में पंचायत के मुखिया पंचायत सेवक प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी प्रखंड विकास पदाधिकारी आपस में मिलकर पैसे के बल पर गलत रिपोर्ट देते है या फिर रिपोर्ट भेजते ही नहीं जिससे बिहार का अब तक का सबसे बड़ा मेघा घोटाला आज भी फाइलों में ही बंद है, जिसका निष्पादन शायद संभव नहीं. इसके लिए जिस निति की ज़रुरत है वह निति नीतिश जी के पास नहीं है. शिक्षा मित्र की बहाली के लिए जो गाइड लाइन बनाये गए थे वह प्रकाशित होने के बाद हर बार, बार बार, लगातार इतनी बार की लिख नहीं सकते बदले गए, जिसके चलते हमेशा से शिक्षा मित्र फेज़ २ विवादस्पद रही है, कुछ और न सही कम से कम जिन लोगो के उपर शिकायत दर्ज की गयी है उनका तो निष्पादन हो जाये ताकि इस मेघा घोटाले के पाप से नीतिश जी को थोडी मुक्ति मिल जायेगी.
सबसे अधिक विकट स्थिति कृषि क्षेत्र और कृषि में सामुदायिक रिश्तों की है, जिसके बारे में सुशासन बाबू चुप हैं. इसपर विस्तार से अगले पोस्ट में चर्चा करूँगा. जिस राज्य के राजधानी में 'गंग रेप की कई घटनाएं हुई हैं, और खुद मुख्यमंत्री के समक्ष कानून और व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ाई गयी है, तो उस पर चर्चा करना हीं बेकार है।
सबसे रोचक मुख्यमंत्री का जनता दरबार है. मुख्यमंत्री के समक्ष जनता दरबार में दिए गए शिकायत में एक भी मामला ऐसा नहीं है जिसका तसल्लिबक्स निपटारा हुआ हो. कहा जा सकता है की सुशासन बाबू के दावे दुरुस्त नहीं है. अब प्रश्न है की क्या सुशासन में कानून व्यवस्था में व्यापक सुधार हुआ है? हम तो वही जानेंगे जो समाचारों में आयेगा. और सुशासन में समाचार वही छपता है जो सुशासन बाबू चाहते हैं. पहले छोटे या जिला स्तर के विज्ञापन जिले में ही तय होते थे. सुशासन बाबू ने इस व्यवस्था में फेर बदल करते हुए इसे केंद्रीकृत कर दिया है. अब छोटे-बड़े सभी विज्ञापन मुख्यमंत्री के यहाँ तय होता है, और छोटे-बड़े समाचार भी वहीँ से मोनिटर होता है. अगर किसी अख़बार ने गुस्ताखी की तो उसका विज्ञापन गया! आर टी आई द्वारा प्राप्त सुशासन में नितीश सरकार द्वारा विभिन्न अख़बार और न्यूज़ चैनलों को वितरित विज्ञापन राशी की २०१०-२०११ की विस्तृत जानकारी उपलब्ध है. गौरतलब है की टाइम्स आफ इंडिया और इकोनोमिक टाइम्स जैसे अख़बार, जो बिहार में अधिक साख नहीं रखतें हैं, उन्हें सबसे अधिक करोड़ों में विज्ञापन दिया गया है. दरअसल इकोनोमिक टाइम्स जैसे अखबार नए नए सर्वे करा कर कुछ आंकड़ें पकाते हैं, जिससे यह साबित हो की बिहार ज़बरदस्त तरक्की कर रहा है, सुशासन से वाकई बिहार में आर्थिक परिवर्तन हो रहा है, और सुशासन बाबू नितीश कुमार को मुख्यमंत्री नहीं, प्रधानमंत्री होना चाहिए.
दरअसल, सबसे अधिक कमी है निष्कपटता की. मैं मरहूम अदम गोंडवी के इन लाईनों से अपनी बात समाप्त करता हूँ –
तुम्हा्री फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है ,
मगर ये आकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है.
उधर जम्हूडरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो,
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है.
लगी है होड़-सी देखो अमीरी औ गरीबी में,
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है.
तुम्हाधरी मेज चाँदी की तुम्हाबरे ज़ाम सोने के ,
यहाँ जुम्मदन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है.
अगर कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं पर इस सरकार के कामकाज का विश्लेषण किया जाये तो पता चलता है की मुख्यमंत्री का दावा खोखला है और आंकड़े किताबी हैं. कहा गया की राज्य में लोकायुक्त का गठन हुआ है. इसके प्रावधानों पर टीम अन्ना ने भी निराशा व्यक्त की थी. संक्षेप में कहा जाय तो यह बताना आवश्यक है की बिहार के लोकायुक्त के समक्ष आम आदमी किसी अधिकारी के भ्रष्टाचार की शिकायत कर हीं नहीं सकता, क्योंकि पहले दोषी अधिकारी के समक्ष वह शिकायत जायेगा, और तब वह अधिकारी अपनी सफाई प्रस्तुत करेगा एवं सरकारी वकील उस अधिकारी का बचाओ करेगा. अगर आपकी शिकायत साबित नहीं हुई ( शिकायत साबित कर हीं नहीं पाएंगे), तो शिकायतकर्ता को जुर्माना और दो साल की जेल बामुशक्कत दिए जाने का प्रावधान है. अधिकारीयों के संपत्ति का ब्यौरा आज कल सबसे हँसाने वाले चुटकुले हैं, और चंदा मामा की कहानियों को मात कर रही है. राज्य के एक वरिष्ठ अधिकारी का पटना के डाक बंगला चौराहे पर भारी संपत्ति और होटल के बारे में रिक्शा वाले भी जानते हैं, परन्तु सरकारी वेबसाइट पर उन्हें चढ़ने के लिए के कार भी नहीं है. ये जो कुछ भ्रष्ट अधिकारी के संपत्ति को जब्त करने की ढिंढोरा पीटा जा रहा है, यह उस समय बेईमानी लगती है जब आपको पता चलेगा की किस निर्लज्जता के साथ सरकार के मंत्री अधिकरियों से पैसों की मांग करते हैं, और बदले में उन्हें जनता और उनके विकास के लिए तय राशियों को लूटने की खुली छूट देते हैं. मधेपुरा जिला में यह आँखों देखी बता रहा हूँ की मंत्री किस तरह अधिकारीयों को बुला कर अपना 'कमीशन' उसूलते हैं. (मंत्रियों के नाम भी कभी सार्वजनिक करूंगा जब उनके कुकर्म का रिकार्डिंग भी मिल जायेगा). आलम यह है की केंद्र सरकार की मनरेगा सरीखे योजनाओं की बड़ी राशी गबन की जा रही है. इसी गबन को और बढ़ाने के लिए तथाकथित 'विशेष दर्जे' की मांग की जा रही है.
कैग ( भारत सरकार का महालेखाकार) के रिपोर्ट में कहा गया था की २००७-०८ तक बिहार सरकार ने ११,४१२ कड़ोड़ रूपये के विकास खर्च के लेख-जोखा में गड़बड़ी की है, और बाद में पटना उच्च न्यायलय ने भी इस पर संज्ञान लिया था और सी बी आई जांच की अनुशंसा की थी , जिसे manage कर लिया गया.
कैग की एक दुसरे रिपोर्ट में कहा गया है की बाढ़ सहायता में एक बड़ा घोटाला हुआ है और अगस्त - अक्तूबर २००७ में कुछ जिलों में ट्रक पर राशन भेजने के बजाय मोटर सायकल पर खाद्य सामग्री ढोए गए थे जिसमें बाढ़ राहत के लिए २७४.१५ quintal का गोल माल हुआ था. विधान सभा में पेश कैग के अन्य रिपोर्ट में दोपहर खाने, स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना में भारी घोटाले के आरोप लगाये गए हैं जिन पर राज्य सरकार ने कोई कार्यवाई नहीं की है. कैग रिपोर्ट में राष्ट्रिय ग्रामीण स्वास्थ्य स्कीम, जननी सुरक्षा योजना अदि में भ्रष्ट अफसरशाही के कारण १४०० कड़ोड़ रूपये का घोटाला हुआ. शिक्षक ट्रेनिंग के लिए ८.७३ कड़ोड़ रूपये का कोई उपयोग ही नहीं हुआ.
बिहार पुलिस से अधिक भ्रष्ट शायद हीं किसी राज्य की पुलिस होगी. अगर किसी अपराध की रपट लिखाने थाना जायेंगे, तो उस समय तो आपकी प्रथम सूचना रपट तो हरगिज़ नहीं लिखी जाएगी. जिस पर केस बनता है, थानेदार पहले उससे पैसों की बात करेगा, और अगर बात नहीं बनी तो आपसे पैसे लेकर रिपोर्ट दर्ज की जाएगी. मुझे उस समय घोर आश्चर्य हुआ जब बिहार पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी से पता चला की अपने प्रमोशन के लिए फ़ाइल बढाने के लिए अपने ही मातहत एक कनीय अधिकारी को उन्होंने घूस दी, क्योंकि यही प्रचलन है.
सुशासन बाबू कह रहें है की RTI का प्रावधान किया गया. मैं यह बता देना आवश्यक समझता हूँ की बिहार शायद उन चंद राज्यों में है, जहाँ सबसे अधिक RTI के मामले लंबित है, जिनके जवाब नहीं दिए गए और उन पर अपील की जा रही है, जिसकी सुनवाई नहीं है. बिहार सरकार ने अपनी ओर से अलग प्रावधान किया है की एक बार में सिर्फ दो प्रश्न पूछे जा सकते हैं. दिलचस्प बात यह है की कई ऐसे मामले आये हैं जब RTI में पूछे गए प्रश्न का कोरे कागज़ भेज कर जवाब दिया गया है! यह बिहार सरकार के इस कानून के प्रति उदासीनता का हीं नतीजा है.
बिजली की बात में कई आंकड़े पेश किये गए. बताना चाहूँगा की मधेपुरा जैसे जगह में कई दिनों तो १२ में सिर्फ २ घंटे बिजली आती है. बिजली के दावे का खोखलापन का अंदाज़ा आप ऐसे लगा सकते हैं की अधिकांश जिला मुख्यालयों में सबसे अधिक डीजल की खपत वहां बैंक जैसे प्रतिष्ठानों और कार्यालयों के जेनरेटर चलाने में हीं होते हैं. बिजली की स्थिति का एक वाकया वैशाली जिला के पातेपुर थाना के अंतर्गत इमादपुर गाँव का है, जहाँ 2004 में गाँव का बिजली ट्रांसफर्मर जल गया था, और आज तक बदला नहीं गया क्योंकि गाँव वालों ने इस सुशासन में उसे बदलने के लिए बिजली विभाग के अधिकारीयों को घूस देने से मना कर दिया!
जो उलझ कर रह गई फाइलों के जाल में ,
गाँव तक वो रोशनी आयेगी कितने साल में.
अस्पतालों की स्थिति यह है की केंद्र सरकार से प्राप्त जिला अस्पतालों में उपलब्ध दवाईयों के लिए फंड जो पहले जिलों में जिला अधिकारी और सिविल सर्जन के पास होते थे, उसे स्वास्थ्य मंत्री ने कार्यकारी आदेश देकर केन्द्रीयकृत कर दिया है, और अपने पुत्र को एकमात्र एजेंसी नियुक्त किया है, जहाँ से दोयम दर्जे की दवाईयाँ लेना अनिवार्य है!
सडकों की स्थिति दिन पर दिन ख़राब हो रही है और केंद्र सरकार से प्राप्त राशियों पर बनी सडकों का श्रेय भी लेना अब दूभर हो रहा है.
अपने 'अधिकार यात्रा ' के दौरान जगह जगह पर नितीश कुमार पर जूते-चप्पल क्यों चले उस पर थोड़ी जानकारी दे दूं- बिहार में शिक्षा मित्र की शुरुआत तत्कालीन मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के शासन काल में हुई थी लेकिन शिक्षामित्र फेज़ २ की शुरुआत वर्तमान मुख्यमंत्री नीतिश कुमार जी के कर कमलों द्वारा संपन्न हुआ. जिसमे असीमित घोटाले हुए. कही कही तो उच्च अंक प्राप्त अभ्यर्थी की जगह पैसे लेकर ऐसे लोगो को शिक्षा मित्र बनाया गया है जो कही से भी उस पद के लायक नहीं थे. जिनका कोउन्सल्लिंग भी नहीं हुआ था, पैसे की माया ने इस मेघा घोटाले को पूरी तरह ढक दिया. अभी भी बिहार के प्रखंड से लेकर जिले तक और जिले से लेकर मुख्यमंत्री कार्यालय तक सेकडों की तादाद में शिकायत दर्ज है, जिसका निबटारा नीतिश जी के आदेश के बावजूद अभी तक नहीं हुआ है, क्यों की अभ्यर्थी और उनके रिश्तेदार साथ में पंचायत के मुखिया पंचायत सेवक प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी प्रखंड विकास पदाधिकारी आपस में मिलकर पैसे के बल पर गलत रिपोर्ट देते है या फिर रिपोर्ट भेजते ही नहीं जिससे बिहार का अब तक का सबसे बड़ा मेघा घोटाला आज भी फाइलों में ही बंद है, जिसका निष्पादन शायद संभव नहीं. इसके लिए जिस निति की ज़रुरत है वह निति नीतिश जी के पास नहीं है. शिक्षा मित्र की बहाली के लिए जो गाइड लाइन बनाये गए थे वह प्रकाशित होने के बाद हर बार, बार बार, लगातार इतनी बार की लिख नहीं सकते बदले गए, जिसके चलते हमेशा से शिक्षा मित्र फेज़ २ विवादस्पद रही है, कुछ और न सही कम से कम जिन लोगो के उपर शिकायत दर्ज की गयी है उनका तो निष्पादन हो जाये ताकि इस मेघा घोटाले के पाप से नीतिश जी को थोडी मुक्ति मिल जायेगी.
सबसे अधिक विकट स्थिति कृषि क्षेत्र और कृषि में सामुदायिक रिश्तों की है, जिसके बारे में सुशासन बाबू चुप हैं. इसपर विस्तार से अगले पोस्ट में चर्चा करूँगा. जिस राज्य के राजधानी में 'गंग रेप की कई घटनाएं हुई हैं, और खुद मुख्यमंत्री के समक्ष कानून और व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ाई गयी है, तो उस पर चर्चा करना हीं बेकार है।
सबसे रोचक मुख्यमंत्री का जनता दरबार है. मुख्यमंत्री के समक्ष जनता दरबार में दिए गए शिकायत में एक भी मामला ऐसा नहीं है जिसका तसल्लिबक्स निपटारा हुआ हो. कहा जा सकता है की सुशासन बाबू के दावे दुरुस्त नहीं है. अब प्रश्न है की क्या सुशासन में कानून व्यवस्था में व्यापक सुधार हुआ है? हम तो वही जानेंगे जो समाचारों में आयेगा. और सुशासन में समाचार वही छपता है जो सुशासन बाबू चाहते हैं. पहले छोटे या जिला स्तर के विज्ञापन जिले में ही तय होते थे. सुशासन बाबू ने इस व्यवस्था में फेर बदल करते हुए इसे केंद्रीकृत कर दिया है. अब छोटे-बड़े सभी विज्ञापन मुख्यमंत्री के यहाँ तय होता है, और छोटे-बड़े समाचार भी वहीँ से मोनिटर होता है. अगर किसी अख़बार ने गुस्ताखी की तो उसका विज्ञापन गया! आर टी आई द्वारा प्राप्त सुशासन में नितीश सरकार द्वारा विभिन्न अख़बार और न्यूज़ चैनलों को वितरित विज्ञापन राशी की २०१०-२०११ की विस्तृत जानकारी उपलब्ध है. गौरतलब है की टाइम्स आफ इंडिया और इकोनोमिक टाइम्स जैसे अख़बार, जो बिहार में अधिक साख नहीं रखतें हैं, उन्हें सबसे अधिक करोड़ों में विज्ञापन दिया गया है. दरअसल इकोनोमिक टाइम्स जैसे अखबार नए नए सर्वे करा कर कुछ आंकड़ें पकाते हैं, जिससे यह साबित हो की बिहार ज़बरदस्त तरक्की कर रहा है, सुशासन से वाकई बिहार में आर्थिक परिवर्तन हो रहा है, और सुशासन बाबू नितीश कुमार को मुख्यमंत्री नहीं, प्रधानमंत्री होना चाहिए.
दरअसल, सबसे अधिक कमी है निष्कपटता की. मैं मरहूम अदम गोंडवी के इन लाईनों से अपनी बात समाप्त करता हूँ –
तुम्हा्री फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है ,
मगर ये आकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है.
उधर जम्हूडरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो,
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है.
लगी है होड़-सी देखो अमीरी औ गरीबी में,
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है.
तुम्हाधरी मेज चाँदी की तुम्हाबरे ज़ाम सोने के ,
यहाँ जुम्मदन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है.
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Patna, Bihar, India
Monday, November 19, 2012
लक्ष्मीबाई और झलकारीबाई - १८५७ की आज़ादी की प्रथम लड़ाई की वीरांगनाएं.
आज झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्मदिवस है। रानी लक्ष्मीबाई (१९ नवंबर १८२८ – १७ जून १८५८) मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना थीं। इनका जन्म वाराणसी जिले के भदैनी नामक नगर में हुआ था। इनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था पर प्यार से मनु कहा जाता था। इनकी माता का नाम भागीरथी बाई तथा पिता का नाम मोरोपंत तांबे था। मोरोपंत एक मराठी थे और मराठा बाजीराव की सेवा में थे। माता भागीरथीबाई एक सुसंस्कृत, बुद्धिमान एवं धार्मिक महिला थीं। मनु जब चार वर्ष की थीं तब उनकी माँ की मृत्यु हो गयी। चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गए जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया। लोग उसे प्यार से "छबीली" बुलाने लगे। मनु ने बचपन में शास्त्रों की शिक्षा के साथ शस्त्रों की शिक्षा भी ली। सन १८४२ में इनका विवाह झाँसी के मराठा शासित राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ हुआ, और ये झाँसी की रानी बनीं। विवाह के बाद इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। सन १८५१ में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया पर चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन १८५३ में राजा गंगाधर राव का बहुत अधिक स्वास्थ्य बिगड़ने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बाद राजा गंगाधर राव की मृत्यु २१ नवंबर १८५३ में हो गयी। दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया।
झाँसी १८५७ के संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिंसा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भर्ती भी की गयी और उन्हें युद्ध प्रशिक्षण भी दिया गया। साधारण जनता ने भी इस संग्राम में सहयोग दिया।
१८५७ के सितंबर तथा अक्तूबर माह में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया। १८५८ के जनवरी माह में ब्रितानी सेना ने झाँसी की ओर बढना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया। दो हफ़्तों की लडाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर कब्जा कर लिया। परन्तु रानी, दामोदर राव के साथ अंग्रेजों से बच कर भागने में सफल हो गयी। रानी झाँसी से भाग कर कालपी पहुंची और तात्या टोपे से मिली।
तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया. 17 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा-की-सराय में ब्रिटिश सेना से लढ़ते-लढ़ते रानी लक्ष्मीबाई की मौत हो गई. लड़ाई की रिपोर्ट में ब्रिटिश जनरल ह्यूरोज़ ने टिप्पणी की कि रानी लक्ष्मीबाई अपनी "सुंदरता, चालाकी और दृढ़ता के लिए उल्लेखनीय" और "विद्रोही नेताओं में सबसे खतरनाक" थीं. सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता 'झाँसी की रानी' की यह पंक्तियाँ भी हमेशा याद रहेंगी -
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
झाँसी की रानी के साथ झलकारी बाई का नाम लेना भी ज़रूरी है। झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर 1830 को झांसी के पास के भोजला गाँव में एक निर्धन कोली परिवार में हुआ था। झलकारी बाई (२२ नवंबर १८३० - ४ अप्रैल १८५७) झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में, महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति थीं। वे लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं इस कारण शत्रु को धोखा देने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध करती थीं। अपने अंतिम समय में भी वे रानी के वेश में युद्ध करते हुए वे अंग्रेज़ों के हाथों पकड़ी गयीं और रानी को किले से भाग निकलने का अवसर मिल गया। उन्होंने प्रथम स्वाधीनता संग्राम में झाँसी की रानी के साथ ब्रिटिश सेना के विरुद्ध अद्भुत वीरता से लड़ते हुए ब्रिटिश सेना के कई हमलों को विफल किया था। यदि लक्ष्मीबाई के सेनानायकों में से एक ने उनके साथ विश्वासघात न किया होता तो झांसी का किला ब्रिटिश सेना के लिए प्राय: अभेद्य था। झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है। भारत सरकार ने २२ जुलाई २००१ में झलकारी बाई के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया है, उनकी प्रतिमा और एक स्मारक अजमेर, राजस्थान में निर्माणाधीन है, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उनकी एक प्रतिमा आगरा में स्थापित की गयी है, साथ ही उनके नाम से लखनऊ मे एक धर्मार्थ चिकित्सालय भी शुरु किया गया है।
झलकारी बाई के पिता का नाम सदोवर सिंह और माता का नाम जमुना देवी था। जब झलकारी बाई बहुत छोटी थीं तब उनकी माँ की मृत्यु के हो गयी थी, और उसके पिता ने उन्हें एक लड़के की तरह पाला था। उन्हें घुड़सवारी और हथियारों का प्रयोग करने में प्रशिक्षित किया गया था। उन दिनों की सामाजिक परिस्थितियों के कारण उन्हें कोई औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं हो पाई, लेकिन उन्होनें खुद को एक अच्छे योद्धा के रूप में विकसित किया था। झलकारी बचपन से ही बहुत साहसी और दृढ़ प्रतिज्ञ बालिका थी। झलकारी घर के काम के अलावा पशुओं के रखरखाव और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थी। एक बार जंगल में उसकी मुठभेड़ एक तेंदुए के साथ हो गयी थी, और झलकारी ने अपनी कुल्हाड़ी से उस जानवर को मार डाला था। एक अन्य अवसर पर जब डकैतों के एक गिरोह ने गाँव के एक व्यवसायी पर हमला किया तब झलकारी ने अपनी बहादुरी से उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया था। उसकी इस बहादुरी से खुश होकर गाँव वालों ने उसका विवाह रानी लक्ष्मीबाई की सेना के एक सैनिक पूरन कोरी से करवा दिया, पूरन भी बहुत बहादुर था, और पूरी सेना उसकी बहादुरी का लोहा मानती थी। एक बार गौरी पूजा के अवसर पर झलकारी गाँव की अन्य महिलाओं के साथ महारानी को सम्मान देने झाँसी के किले मे गयीं, वहाँ रानी लक्ष्मीबाई उन्हें देख कर अवाक रह गयी क्योंकि झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह दिखतीं थीं (दोनो के रूप में आलौकिक समानता थी)। अन्य औरतों से झलकारी की बहादुरी के किस्से सुनकर रानी लक्ष्मीबाई बहुत प्रभावित हुईं। रानी ने झलकारी को दुर्गा सेना में शामिल करने का आदेश दिया। झलकारी ने यहाँ अन्य महिलाओं के साथ बंदूक चलाना, तोप चलाना और तलवारबाजी की प्रशिक्षण लिया। यह वह समय था जब झांसी की सेना को किसी भी ब्रिटिश दुस्साहस का सामना करने के लिए मजबूत बनाया जा रहा था।
लार्ड डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति के चलते, ब्रिटिशों ने निःसंतान लक्ष्मीबाई को उनका उत्तराधिकारी गोद लेने की अनुमति नहीं दी, क्योंकि वे ऐसा करके राज्य को अपने नियंत्रण में लाना चाहते थे। हालांकि, ब्रिटिश की इस कार्रवाई के विरोध में रानी के सारी सेना, उसके सेनानायक और झांसी के लोग रानी के साथ लामबंद हो गये और उन्होने आत्मसमर्पण करने के बजाय ब्रिटिशों के खिलाफ हथियार उठाने का संकल्प लिया।
अप्रैल १८५८ के दौरान, लक्ष्मीबाई ने झांसी के किले के भीतर से, अपनी सेना का नेतृत्व किया और ब्रिटिश और उनके स्थानीय सहयोगियों द्वारा किये कई हमलों को नाकाम कर दिया। रानी के सेनानायकों में से एक दूल्हेराव ने उसे धोखा दिया और किले का एक संरक्षित द्वार ब्रिटिश सेना के लिए खोल दिया। जब किले का पतन निश्चित हो गया तो रानी के सेनापतियों और झलकारी बाई ने उन्हें कुछ सैनिकों के साथ किला छोड़कर भागने की सलाह दी। रानी अपने घोड़े पर बैठ अपने कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ झांसी से दूर निकल गईं।
झलकारी बाई का पति पूरन किले की रक्षा करते हुए शहीद हो गया लेकिन झलकारी ने बजाय अपने पति की मृत्यु का शोक मनाने के, ब्रिटिशों को धोखा देने की एक योजना बनाई। झलकारी ने लक्ष्मीबाई की तरह कपड़े पहने और झांसी की सेना की कमान अपने हाथ मे ले ली। एक बुंदेलखंड किंवदंती है कि झलकारी के इस उत्तर से जनरल ह्यूग रोज़ दंग रह गया और उसने कहा कि "यदि भारत की १% महिलायें भी उसके जैसी हो जायें तो ब्रिटिशों को जल्दी ही भारत छोड़ना होगा"। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने झलकारी की बहादुरी को निम्न प्रकार पंक्तिबद्ध किया है -
जा कर रण में ललकारी थी, वह तो झाँसी की झलकारी थी।
गोरों से लड़ना सिखा गई, है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी।
झाँसी १८५७ के संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिंसा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भर्ती भी की गयी और उन्हें युद्ध प्रशिक्षण भी दिया गया। साधारण जनता ने भी इस संग्राम में सहयोग दिया।
१८५७ के सितंबर तथा अक्तूबर माह में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया। १८५८ के जनवरी माह में ब्रितानी सेना ने झाँसी की ओर बढना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया। दो हफ़्तों की लडाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर कब्जा कर लिया। परन्तु रानी, दामोदर राव के साथ अंग्रेजों से बच कर भागने में सफल हो गयी। रानी झाँसी से भाग कर कालपी पहुंची और तात्या टोपे से मिली।
तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया. 17 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा-की-सराय में ब्रिटिश सेना से लढ़ते-लढ़ते रानी लक्ष्मीबाई की मौत हो गई. लड़ाई की रिपोर्ट में ब्रिटिश जनरल ह्यूरोज़ ने टिप्पणी की कि रानी लक्ष्मीबाई अपनी "सुंदरता, चालाकी और दृढ़ता के लिए उल्लेखनीय" और "विद्रोही नेताओं में सबसे खतरनाक" थीं. सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता 'झाँसी की रानी' की यह पंक्तियाँ भी हमेशा याद रहेंगी -
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
झाँसी की रानी के साथ झलकारी बाई का नाम लेना भी ज़रूरी है। झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर 1830 को झांसी के पास के भोजला गाँव में एक निर्धन कोली परिवार में हुआ था। झलकारी बाई (२२ नवंबर १८३० - ४ अप्रैल १८५७) झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में, महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति थीं। वे लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं इस कारण शत्रु को धोखा देने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध करती थीं। अपने अंतिम समय में भी वे रानी के वेश में युद्ध करते हुए वे अंग्रेज़ों के हाथों पकड़ी गयीं और रानी को किले से भाग निकलने का अवसर मिल गया। उन्होंने प्रथम स्वाधीनता संग्राम में झाँसी की रानी के साथ ब्रिटिश सेना के विरुद्ध अद्भुत वीरता से लड़ते हुए ब्रिटिश सेना के कई हमलों को विफल किया था। यदि लक्ष्मीबाई के सेनानायकों में से एक ने उनके साथ विश्वासघात न किया होता तो झांसी का किला ब्रिटिश सेना के लिए प्राय: अभेद्य था। झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है। भारत सरकार ने २२ जुलाई २००१ में झलकारी बाई के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया है, उनकी प्रतिमा और एक स्मारक अजमेर, राजस्थान में निर्माणाधीन है, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उनकी एक प्रतिमा आगरा में स्थापित की गयी है, साथ ही उनके नाम से लखनऊ मे एक धर्मार्थ चिकित्सालय भी शुरु किया गया है।
झलकारी बाई के पिता का नाम सदोवर सिंह और माता का नाम जमुना देवी था। जब झलकारी बाई बहुत छोटी थीं तब उनकी माँ की मृत्यु के हो गयी थी, और उसके पिता ने उन्हें एक लड़के की तरह पाला था। उन्हें घुड़सवारी और हथियारों का प्रयोग करने में प्रशिक्षित किया गया था। उन दिनों की सामाजिक परिस्थितियों के कारण उन्हें कोई औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं हो पाई, लेकिन उन्होनें खुद को एक अच्छे योद्धा के रूप में विकसित किया था। झलकारी बचपन से ही बहुत साहसी और दृढ़ प्रतिज्ञ बालिका थी। झलकारी घर के काम के अलावा पशुओं के रखरखाव और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थी। एक बार जंगल में उसकी मुठभेड़ एक तेंदुए के साथ हो गयी थी, और झलकारी ने अपनी कुल्हाड़ी से उस जानवर को मार डाला था। एक अन्य अवसर पर जब डकैतों के एक गिरोह ने गाँव के एक व्यवसायी पर हमला किया तब झलकारी ने अपनी बहादुरी से उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया था। उसकी इस बहादुरी से खुश होकर गाँव वालों ने उसका विवाह रानी लक्ष्मीबाई की सेना के एक सैनिक पूरन कोरी से करवा दिया, पूरन भी बहुत बहादुर था, और पूरी सेना उसकी बहादुरी का लोहा मानती थी। एक बार गौरी पूजा के अवसर पर झलकारी गाँव की अन्य महिलाओं के साथ महारानी को सम्मान देने झाँसी के किले मे गयीं, वहाँ रानी लक्ष्मीबाई उन्हें देख कर अवाक रह गयी क्योंकि झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह दिखतीं थीं (दोनो के रूप में आलौकिक समानता थी)। अन्य औरतों से झलकारी की बहादुरी के किस्से सुनकर रानी लक्ष्मीबाई बहुत प्रभावित हुईं। रानी ने झलकारी को दुर्गा सेना में शामिल करने का आदेश दिया। झलकारी ने यहाँ अन्य महिलाओं के साथ बंदूक चलाना, तोप चलाना और तलवारबाजी की प्रशिक्षण लिया। यह वह समय था जब झांसी की सेना को किसी भी ब्रिटिश दुस्साहस का सामना करने के लिए मजबूत बनाया जा रहा था।
लार्ड डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति के चलते, ब्रिटिशों ने निःसंतान लक्ष्मीबाई को उनका उत्तराधिकारी गोद लेने की अनुमति नहीं दी, क्योंकि वे ऐसा करके राज्य को अपने नियंत्रण में लाना चाहते थे। हालांकि, ब्रिटिश की इस कार्रवाई के विरोध में रानी के सारी सेना, उसके सेनानायक और झांसी के लोग रानी के साथ लामबंद हो गये और उन्होने आत्मसमर्पण करने के बजाय ब्रिटिशों के खिलाफ हथियार उठाने का संकल्प लिया।
अप्रैल १८५८ के दौरान, लक्ष्मीबाई ने झांसी के किले के भीतर से, अपनी सेना का नेतृत्व किया और ब्रिटिश और उनके स्थानीय सहयोगियों द्वारा किये कई हमलों को नाकाम कर दिया। रानी के सेनानायकों में से एक दूल्हेराव ने उसे धोखा दिया और किले का एक संरक्षित द्वार ब्रिटिश सेना के लिए खोल दिया। जब किले का पतन निश्चित हो गया तो रानी के सेनापतियों और झलकारी बाई ने उन्हें कुछ सैनिकों के साथ किला छोड़कर भागने की सलाह दी। रानी अपने घोड़े पर बैठ अपने कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ झांसी से दूर निकल गईं।
झलकारी बाई का पति पूरन किले की रक्षा करते हुए शहीद हो गया लेकिन झलकारी ने बजाय अपने पति की मृत्यु का शोक मनाने के, ब्रिटिशों को धोखा देने की एक योजना बनाई। झलकारी ने लक्ष्मीबाई की तरह कपड़े पहने और झांसी की सेना की कमान अपने हाथ मे ले ली। एक बुंदेलखंड किंवदंती है कि झलकारी के इस उत्तर से जनरल ह्यूग रोज़ दंग रह गया और उसने कहा कि "यदि भारत की १% महिलायें भी उसके जैसी हो जायें तो ब्रिटिशों को जल्दी ही भारत छोड़ना होगा"। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने झलकारी की बहादुरी को निम्न प्रकार पंक्तिबद्ध किया है -
जा कर रण में ललकारी थी, वह तो झाँसी की झलकारी थी।
गोरों से लड़ना सिखा गई, है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी।
Sunday, November 18, 2012
There are weird similarities between Abraham Lincoln and John F. Kennedy.
Courtesy OMG Facts post by anonymous -
Abraham Lincoln was elected to Congress in 1846. John F. Kennedy was elected to Congress in 1946.
Abraham Lincoln was elected President in 1860. John F. Kennedy was elected President in 1960.
Both were shot in the back of the head in the presence of their wives.
Both wives lost their children while living in the White House.
Both Presidents were shot on a Friday.
Lincoln's secretary was named Kennedy.
Both were succeeded by Southerners named Johnson.
Andrew Johnson, who succeeded Lincoln, was born in 1808. Lyndon Johnson, who succeeded Kennedy, was born in 1908.
Lincoln was shot in the Ford Theatre. Kennedy was shot in a Lincoln, made by Ford.
Lincoln was shot in a theater and his assassin ran and hid in a warehouse. Kennedy was shot from a warehouse and his assassin ran
and hid in a theater.
Booth and Oswald were assassinated before their trials.
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