26 जून को आपातकाल की 40 वीं वर्षगांठ है। दरअसल, संविधान के अनुसार देश पर बाहरी खतरे (युद्ध) या आतंरिक (राजद्रोह या विद्रोह) खतरे से उत्पन्न विशेष स्थिति का सामना करने के लिए सरकार आपकाल लागू कर सकती है जब वह नागरिक अधिकार और साधारण कानून निलंबित करती है। सरकार के पास असीमित अधिकार मिल जाते हैं जिसका दुरपयोग भी किया जा सकता है। और हुआ भी यही था।
मामला 1971 में हुए लोकसभा चुनाव का था, जिसमें उन्होंने अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी राज नारायण को पराजित किया था। लेकिन चुनाव परिणाम आने के चार साल बाद राज नारायण ने इलाहबाद हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी। उनकी दलील थी कि इंदिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग किया, तय सीमा से अधिक खर्च किए और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए ग़लत तरीकों का इस्तेमाल किय। अदालत ने इन आरोपों को सही ठहराया। इंदिरा हगंधी की इस्तीफे की मांग उठ गयी और कानूनन उन्हें ऐसा ही करना चाहिए था। फैसले में इंदिरा गांधी को चुनाव में धांधली करने का दोषी पाया गया और उन पर छह वर्षों तक कोई भी पद संभालने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। परन्तु इसके बावजूद इंदिरा गांधी टस से मस नहीं हुईं और इस फ़ैसले को मानने से इनकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की घोषणा की। 26 जून को आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी गई। तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान की धारा 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा कर दी। यहाँ तक कि कांग्रेस पार्टी ने खुले आम कहने लगी कि इंदिरा का नेतृत्व पार्टी के लिए अपरिहार्य है।
इस तरह 26 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक का 21 मास की अवधि में भारत में आपातकाल घोषित था। स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक काल था। आपातकाल में चुनाव स्थगित हो गए तथा नागरिक अधिकारों को समाप्त करके मनमानी की गई। इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधियों को कैद कर लिया गया और प्रेस पर प्रतिबंधित कर दिया गया। प्रधानमंत्री के बेटे संजय गांधी के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर नसबंदी अभियान चलाया गया। जयप्रकाश नारायण ने इसे भारतीय इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि' कहा था।
आपातकाल लागू होते ही आंतरिक सुरक्षा क़ानून (मीसा) के तहत राजनीतिक विरोधियों की गिरफ़्तारी की गई, इनमें जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, जॉर्ज फ़र्नांडिस, अटल बिहारी वाजपेयी आदि भी शामिल थे।
जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर सम्पूर्ण क्रांति के नारे को लेकर छात्र संघर्ष समिति का गठन हुआ। पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष लालू प्रसाद और सचिव सुशील मोदी, छात्र नेता रामविलास पासवान, दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ अध्यक्ष अरुण जेटली आदि ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
18 मार्च 1974 को छात्र संघर्ष समिति ने बिहार विधान सभा का घेराव किया। फिर छात्र संघर्ष समिति ने बिहार विधान सभा के सभी सदस्यों से इस्तीफा देने आह्वान किया। उन्होंने मांग की मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर को बर्खास्त किया जाए।
उस समय 318 सदस्यीय बिहार विधान सभा में मुख्य पार्टियों की संख्या इस प्रकार थी : कांग्रेस (इंदिरा) 167, सी पी आई 35, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी 33, भारतीय जान संघ 25, कांग्रेस (ओ) 30, निर्दलीय 17, हिंदुस्तानी शोषित दल 3, झारखण्ड 1, झारखण्ड पार्टी 3, बिहार प्रान्त झारखण्ड पार्टी 2 आदि।
कर्पूरी ठाकुर और बी पी मंडल संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में थे। विधायक बदलते हुए राजनैतिक परिस्थितियों में धीरे-धीरे इस्तीफा देने लगे। भारतीय जन संघ में इस्तीफे के प्रश्न पर दो फाड़ हो गए। इसी तरह संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के अधिकांश विधायक कर्पूरी ठाकुर के इस्तीफा बाद बी पी मंडल को नेता मान लिए।
मधेपुरा में राजनैतिक आंदोलन हो रहे थे और छात्र संघर्ष समिति के स्थानीय टी पी कॉलेज के नेता बी पी मंडल के इस्तीफा देने की मांग को लेकर एस डी ओ कंपाउंड (SDO Compound) में "यज्ञ आंदोलन" करते हुए इंदिरा - अब्दुल गफूर विरोधी अन्य मन्त्रों के साथ साथ "बी पी मंडल स्वाहा" कह कर आहुति दे रहे थे। मैं भी यह मंजर देखने वहां पहुंचा था। उसी दौरान विरोध प्रदर्शन में शामिल युवक सदानंद पुलिस की गोली का शिकार हो गए।
आपातकाल घोषणा एवं मधेपुरा में हुए इन घटनाओं के समय ही लगभग जय प्रकाश बाबू के आग्रह पर बी पी मंडल और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के लहभग सभी सदस्य बिहार विधान सभा से इस्तीफा दे दिए।
अब बिहार के कांग्रेस विरोधी नेताओं की भी धड़-पकड़ शुरू हो गयी। बी पी मंडल अपने गॉव मुरहो में थे। पर मंडल परिवार के पुराने रुतबे के कारण और मुरहो में तब जल्दी पुलिस का पदार्पण नहीं होने की परंपरा से संभवतः पुलिस इस ताक में रहती थी कब मंडल जी मधेपुरा आएं और कोई कार्यवाई हो। इस दौरान लगभग डेढ़ महीने तक दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री चौधरी ब्रह्म प्रकाश भी गिरफ़्तारी से परहेज रखने के लिए मंडल जी के साथ ही मुरहो में थे। कुछ दिनों तक चौधरी ब्रह्म प्रकाश मंडल जी के मधेपुरा आवास पर भी बतौर मेहमान रहें। (स्व बी पी मंडल और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री राव बिरेन्द्र सिंह भी अभिन्न मित्र थे)।
आपातकाल लागू करने के लगभग दो साल बाद 1977 में अपने पक्ष में ख़ुफ़िया रिपोर्ट के मद्देनज़र प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर चुनाव कराने की सिफारिश कर दी। आपातकाल समाप्त कर दिया गया। चुनाव में आपातकाल लागू करने का फ़ैसला कांग्रेस के लिए घातक साबित हुआ। ख़ुद इंदिरा गांधी अपने गढ़ रायबरेली से चुनाव हार गईं। जनता पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। संसद में कांग्रेस के सदस्यों की संख्या 350 से घट कर 153 पर सिमट गई और 30 वर्षों के बाद केंद्र में किसी ग़ैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ।
बिहार में जनता पार्टी के सांसदीय समिति के अध्यक्ष होने के नाते, और जय प्रकाश बाबू के आग्रह पर, कर्पूरी ठाकुर और सत्येन्द्र बाबू के आपत्ति बावजूद, बी पी मंडल ने लालू प्रसाद को छपरा से लोक सभा टिकट के लिए अनुमोदन किए।
1977 में बिहार के 54 सीट में से 52 जनता पार्टी के पक्ष में थे और एक एक सीट निर्दलीय और झारखण्ड पार्टी को मिली।
बिहार से जीतने वाले दिग्गजों में बी पी मंडल के अलावे बाबू जगजीवन राम (कांग्रेस छोड़ कर कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी बनाए थे), सत्येन्द्र नारायण सिंह, कर्पूरी ठाकुर, मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडिस, हुकुमदेव नारायण यादव और पहली बार जीतने वालों में कम उम्र के लालू प्रसाद और रिकार्ड वोट के साथ राम विलास थे।
विडम्बना यह है की लालू प्रसाद आज भी अपने टिकट के लिए बी पी मंडल की स्मृति के प्रति अहसानमंद होने की जगह उनके प्रति उपेक्षा का भाव रखते हैं।
"There is equality only among equals. To equate unequals is to perpetuate inequality." ~ Bindheshwari Prasad Mandal "All epoch-making revolutionary events have been produced not by written but by spoken word."-~ADOLF HITLER.
About Me
- Suraj Yadav
- New Delhi, NCR of Delhi, India
- I am an Indian, a Yadav from (Madhepura) Bihar, a social and political activist, a College Professor at University of Delhi and a nationalist.,a fighter,dedicated to the cause of the downtrodden.....
Tuesday, June 23, 2015
Wednesday, June 17, 2015
CBSC : सीबीसीएस? उच्च शिक्षा पर लगातार कुठाराघात !
दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र और शिक्षक फिर सड़क पर आने को मजबूर है। कारण नरेंद्र मोदी की सरकार आने से देश 'कांग्रेस मुक्त भारत' बनने की दिशा में कदम तो बढ़ाया पर असल में देश अभी भी कांग्रेस-नीत भारत ही है।
पिछले वर्ष ही छात्र-शिक्षक संघर्ष के दबाब में सरकार ने चार -साल के बेसिरपैर की पाठ्यक्रम (कोर्स) FYUP को दिल्ली विश्वविद्यालय से हटाया। अब फिर से तथाकथित "सुधार" के नाम पर उसी घटिया कोर्स को तीन वर्ष के ढाँचे में सीबीसीएस (CBCS) के नाम पर थोपा जा रहा है। इससे न विद्यार्थियों को बेहतर शिक्षा मिलेगी और न ही वे रोज़गार के लिए तैयार हो सकेंगें।
इस बार देश के सभी कॉलेज और विश्वविद्यालय में जुलाई 2015 से ही चॉइस बेस्ड क्रेडिट सीस्टम (CBCS) लागू करने की घोषणा की गयी है।
इस तरह से देश में उच्च शिक्षा के स्तर को बेहतर बंनाने की जगह इसे विदेशी और निजी हाथों में सौंपने की तैयारी की जा रही है जिससे देश की उच्च शिक्षा के साथ साथ छात्र-छात्राओं की भविष्य के साथ खिलवाड़ होगी।
सीबीसीएस (CBCS) क्या है ?
दरअसल अमेरिका में 12 वीं के बाद अक्सर माँ-बाप बच्चों की शिक्षा के लिए बच्चों को उन्हीं के हाल पर छोड़ देते हैं। बच्चे नौकरी करने के साथ साथ 6 महीने तक पैसे इकठ्ठा कर या लोन लेकर निजी संस्थाओं से क्रेडिट लेते हैं और कई वर्षों में क्रेडिट को इकठ्ठा कर डिग्री लेते हैं। नतीजा साधारण अमरीकी विद्यार्थी का स्तर भारत के आम विद्यार्थी से कहीं नीचे रहता है। इसकी एक झलक हम तब देखते हैं जब अमरीका में नासा (NASA) सहित अनेक वैज्ञानिक, मैनजमेंट, सामाजिक शास्त्र के संस्थानों में भारत से शिक्षित कार्यरत हैं। पर पिछली कांग्रेसी सरकार और अब कांग्रेस-नीत मोदी सरकार उच्च शिक्षा का श्रेष्ठ केंद्र दिल्ली विश्वविद्यालय पर इसलिए लगातार कुठाराघात कर रही है क्योंकि साधारण फीस में यहीं लाखों विद्यार्थी अच्छी शिक्षा प्राप्त करते हैं और लाखों फीस लेने वाले निजी संस्थानों की बिजनेस चल नहीं रही है। इधर भारत जैसे माहौल में जहाँ मंत्री भी फ़र्ज़ी डिग्री ले आते हैं, वहां कई वर्षों में घूम घूम कर तथाकथित "क्रेडिट" से क्या डिग्री का हश्र होगा यह हम समझ सकते हैं। साथ ही अमरीकी व्यवस्था की अंधी नक़ल शिक्षा के बाजारीकरण के अलावे पी चिदंबरम, कपिल सिबल, सुषमा स्वराज आदि के पुत्र-पुत्री, भतीजा-भतीजी के शिक्षा के "एडजस्टमेंट" के भी कारण है।
इसलिए चॉइस यानि मनपसंद कोर्स चुनने की सहूलियत दरअसल उन्हीं को मिल पायेगी जो ऊँची फीस दे सकेंगे।
इसलिए सीबीसीएस (CBCS) का मक़सद:
* चॉइस के नाम पर सरकारी संस्थानों को प्राइवेट संस्थानों के अधीन बनाना।
* सरकारी संस्थानों को बर्बाद करके छात्रों को प्राइवेट संस्थानों में जाने के लिए मज़बूर करना।
* उच्च शिक्षा का बाजारीकरण करके इसको धंधा-कारोबार में बदलने का मंसूबा।
* औने-पौने वेतन शिक्षकों को ठेकेदारी (contractual) पर बहाल करके और ऊंची फीस लेकर निजी संस्थानों को मुनाफे का अवसर देना।
* जनता से टैक्स उसूल कर देशी विदेशी मुनाफाखोरों को फायदा पहुँचाने की साज़िश।
इस तरह कांग्रेस-नीत सरकार पुराने कांग्रेसी सरकार के रास्ते चल कर, जिस तरह पहले सरकारी स्कूलों और सरकारी अस्पतालोंको बर्बाद किया गया है, वैसे ही अब इनका अगला निशाना उच्च शिक्षा है।
कुल मिला कर जो फटीचर शिक्षा के लिए भी लाखों की फीस से सकेंगे (मजेदार बात है इसके लिए शिक्षा लोन भी उपलब्ध करा देतें हैं), वही अब शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे।
गरीब, देहात के नौजवान, महिलाओं, पिछड़े, दलित को नतीजन शिक्षा से बाहर करने की विदेशी प्रायोजित इस साज़िश को नाकाम करना हर देशभक्त का कर्तव्य है। इसके विरुद्ध दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (DUTA) के आंदोलन को अपना सहयोग और समर्थन दने की हमारे अपील पर विचार करें।
जय हिन्द।
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