




मामला 1971 में हुए लोकसभा चुनाव का था, जिसमें उन्होंने अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी राज नारायण को पराजित किया था। लेकिन चुनाव परिणाम आने के चार साल बाद राज नारायण ने इलाहबाद हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी। उनकी दलील थी कि इंदिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग किया, तय सीमा से अधिक खर्च किए और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए ग़लत तरीकों का इस्तेमाल किय। अदालत ने इन आरोपों को सही ठहराया। इंदिरा हगंधी की इस्तीफे की मांग उठ गयी और कानूनन उन्हें ऐसा ही करना चाहिए था। फैसले में इंदिरा गांधी को चुनाव में धांधली करने का दोषी पाया गया और उन पर छह वर्षों तक कोई भी पद संभालने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। परन्तु इसके बावजूद इंदिरा गांधी टस से मस नहीं हुईं और इस फ़ैसले को मानने से इनकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की घोषणा की। 26 जून को आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी गई। तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान की धारा 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा कर दी। यहाँ तक कि कांग्रेस पार्टी ने खुले आम कहने लगी कि इंदिरा का नेतृत्व पार्टी के लिए अपरिहार्य है।
इस तरह 26 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक का 21 मास की अवधि में भारत में आपातकाल घोषित था। स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक काल था। आपातकाल में चुनाव स्थगित हो गए तथा नागरिक अधिकारों को समाप्त करके मनमानी की गई। इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधियों को कैद कर लिया गया और प्रेस पर प्रतिबंधित कर दिया गया। प्रधानमंत्री के बेटे संजय गांधी के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर नसबंदी अभियान चलाया गया। जयप्रकाश नारायण ने इसे भारतीय इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि' कहा था।
आपातकाल लागू होते ही आंतरिक सुरक्षा क़ानून (मीसा) के तहत राजनीतिक विरोधियों की गिरफ़्तारी की गई, इनमें जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, जॉर्ज फ़र्नांडिस, अटल बिहारी वाजपेयी आदि भी शामिल थे।
जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर सम्पूर्ण क्रांति के नारे को लेकर छात्र संघर्ष समिति का गठन हुआ। पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष लालू प्रसाद और सचिव सुशील मोदी, छात्र नेता रामविलास पासवान, दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ अध्यक्ष अरुण जेटली आदि ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
18 मार्च 1974 को छात्र संघर्ष समिति ने बिहार विधान सभा का घेराव किया। फिर छात्र संघर्ष समिति ने बिहार विधान सभा के सभी सदस्यों से इस्तीफा देने आह्वान किया। उन्होंने मांग की मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर को बर्खास्त किया जाए।
उस समय 318 सदस्यीय बिहार विधान सभा में मुख्य पार्टियों की संख्या इस प्रकार थी : कांग्रेस (इंदिरा) 167, सी पी आई 35, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी 33, भारतीय जान संघ 25, कांग्रेस (ओ) 30, निर्दलीय 17, हिंदुस्तानी शोषित दल 3, झारखण्ड 1, झारखण्ड पार्टी 3, बिहार प्रान्त झारखण्ड पार्टी 2 आदि।
कर्पूरी ठाकुर और बी पी मंडल संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में थे। विधायक बदलते हुए राजनैतिक परिस्थितियों में धीरे-धीरे इस्तीफा देने लगे। भारतीय जन संघ में इस्तीफे के प्रश्न पर दो फाड़ हो गए। इसी तरह संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के अधिकांश विधायक कर्पूरी ठाकुर के इस्तीफा बाद बी पी मंडल को नेता मान लिए।
मधेपुरा में राजनैतिक आंदोलन हो रहे थे और छात्र संघर्ष समिति के स्थानीय टी पी कॉलेज के नेता बी पी मंडल के इस्तीफा देने की मांग को लेकर एस डी ओ कंपाउंड (SDO Compound) में "यज्ञ आंदोलन" करते हुए इंदिरा - अब्दुल गफूर विरोधी अन्य मन्त्रों के साथ साथ "बी पी मंडल स्वाहा" कह कर आहुति दे रहे थे। मैं भी यह मंजर देखने वहां पहुंचा था। उसी दौरान विरोध प्रदर्शन में शामिल युवक सदानंद पुलिस की गोली का शिकार हो गए।
आपातकाल घोषणा एवं मधेपुरा में हुए इन घटनाओं के समय ही लगभग जय प्रकाश बाबू के आग्रह पर बी पी मंडल और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के लहभग सभी सदस्य बिहार विधान सभा से इस्तीफा दे दिए।
अब बिहार के कांग्रेस विरोधी नेताओं की भी धड़-पकड़ शुरू हो गयी। बी पी मंडल अपने गॉव मुरहो में थे। पर मंडल परिवार के पुराने रुतबे के कारण और मुरहो में तब जल्दी पुलिस का पदार्पण नहीं होने की परंपरा से संभवतः पुलिस इस ताक में रहती थी कब मंडल जी मधेपुरा आएं और कोई कार्यवाई हो। इस दौरान लगभग डेढ़ महीने तक दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री चौधरी ब्रह्म प्रकाश भी गिरफ़्तारी से परहेज रखने के लिए मंडल जी के साथ ही मुरहो में थे। कुछ दिनों तक चौधरी ब्रह्म प्रकाश मंडल जी के मधेपुरा आवास पर भी बतौर मेहमान रहें। (स्व बी पी मंडल और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री राव बिरेन्द्र सिंह भी अभिन्न मित्र थे)।
आपातकाल लागू करने के लगभग दो साल बाद 1977 में अपने पक्ष में ख़ुफ़िया रिपोर्ट के मद्देनज़र प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर चुनाव कराने की सिफारिश कर दी। आपातकाल समाप्त कर दिया गया। चुनाव में आपातकाल लागू करने का फ़ैसला कांग्रेस के लिए घातक साबित हुआ। ख़ुद इंदिरा गांधी अपने गढ़ रायबरेली से चुनाव हार गईं। जनता पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। संसद में कांग्रेस के सदस्यों की संख्या 350 से घट कर 153 पर सिमट गई और 30 वर्षों के बाद केंद्र में किसी ग़ैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ।
बिहार में जनता पार्टी के सांसदीय समिति के अध्यक्ष होने के नाते, और जय प्रकाश बाबू के आग्रह पर, कर्पूरी ठाकुर और सत्येन्द्र बाबू के आपत्ति बावजूद, बी पी मंडल ने लालू प्रसाद को छपरा से लोक सभा टिकट के लिए अनुमोदन किए।
1977 में बिहार के 54 सीट में से 52 जनता पार्टी के पक्ष में थे और एक एक सीट निर्दलीय और झारखण्ड पार्टी को मिली।
बिहार से जीतने वाले दिग्गजों में बी पी मंडल के अलावे बाबू जगजीवन राम (कांग्रेस छोड़ कर कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी बनाए थे), सत्येन्द्र नारायण सिंह, कर्पूरी ठाकुर, मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडिस, हुकुमदेव नारायण यादव और पहली बार जीतने वालों में कम उम्र के लालू प्रसाद और रिकार्ड वोट के साथ राम विलास थे।
विडम्बना यह है की लालू प्रसाद आज भी अपने टिकट के लिए बी पी मंडल की स्मृति के प्रति अहसानमंद होने की जगह उनके प्रति उपेक्षा का भाव रखते हैं।
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