

मुहाजिर हैं मगर एक दुनिया छोड़ आए हैं
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं
अब अपनी जल्दबाजी पर बोहत अफ़सोस होता है
कि एक खोली की खातिर राजवाड़ा छोड़ आए हैं
भूमि अधिग्रहण से जुड़े किसानो की समस्या और डर को मैं बखूबी समझता हूँ , और जब मुझे राष्ट्रीय जनता दल के कुछ साथियों से पता चला की रेल मंत्री के हैसियत से लालू प्रसाद जी मधेपुरा के नकदीक मेरे पैत्रिक गाँव मुरहो में ही एक रेल फैक्ट्री बनाये जाने की घोषणा करेंगे तो मुझे ख़ुशी से ज्यादा शंकाओं ने घेर लिया. एक तो यह इलाका सघन बस्तियों से भरा हुआ है और ज़मीन उपजाऊ है. मधेपुरा के आस पास ही ऐसे इलाके थे जहाँ ज़मीन भी कम उपजाऊ है और जहाँ एक बड़े इलाके में ईट भट्टियों का बहुतायत है. वैसे यह ध्यान देने योग्य है की मेरा गाँव मुरहो यादवों के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है. मेरे परदादा जी स्व रासबिहारी लाल मंडल ने सन १९११ में येहीं से अखिल भारतीय गोप जातीय (बाद में यादव) महासभा की स्थापना की थी जिसमें पूरे हिंदुस्तान से कई प्रमुख यादव नेताओं ने हिस्सा लिया था. स्व रासबिहारी लाल मंडल के बड़े पुत्र भुब्नेश्वरी प्रसाद मंडल १९२४ में भागलपुर क्षेत्र से बिहार-उड़ीसा विधान परिषद् के सदस्य थे और १९४८ में मृत्यु तक भागलपुर लोकल बोर्ड के अध्यक्ष थे. दुसरे पुत्र कमलेश्वरी प्रसाद मंडल १९३७ में बिहार विधान परिषद् के सदस्य थे और स्वंतंत्रता संग्राम में अपना योगदान देते हुए जयप्रकाश नारायण के साथ हज़Iरीबाघ जेल में कई दिनों तक बंद थे. सबसे छोटे पुत्र बी पी मंडल बिहार के मुख्य मंत्री एवं भारत सरकार के पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष थे जिसे मंडल आयोग भी कहा जाता है. और भी कई लोगों का योगदान कई तरह से है. मुझे यह शंका था की यहाँ फैक्ट्री लगाने का मतलब था की गाँव के वजूद ही समाप्त हो जाता. साथ ही कई लोगों का घर-द्वार, मंदिर-मस्जिद, और खेत-खलियान सभी समाप्त हो जाते. दुःख की बात थी की सामाजिक न्याय के प्रणेता स्व बी पी मंडल की समाधी भी अधिग्रहित होती और पिछड़े वर्गों के सम्मान का एक प्रतीक मटिया-मेट हो जाता.
मैं और मेरे साथियों ने बैठक कर लालू प्रसाद जी को ज्ञापन दिया की फैक्ट्री के स्थान में परिवर्तन किया जाय. इधर सूचना के अधिकार से रेल मंत्रालय से मुझे जानकारी मिली की मेरे शंका निराधार नहीं थे. मुरहो गाँव के लगभग सभी क्षेत्र का अधिग्रहण होना था, और जून २००७ को हमIरे धरना के बाद स्व बी पी मंडल जी का समाधी स्थल को छोड़ दिया गया था. यह भी एक संयोग था की इस नक़्शे के अनुसार मेरा घर व ज़मीन अधिग्रहण क्षेत्र में नहीं थे. फिर आन्दोलन का दौर शुरू हुआ. मैं बार बार यह कह रहा था कि रेल मंत्रालय भूमि अधिग्रहण करेगा और उसे निजी हांथों में सौंप देगा, फिर फैक्ट्री बने या नए ज़मींदारों कि जागीर वे जाने!(मेरी यह आशंका भी अब सही साबित हो रही है). इधर अफवाह यह थी क़ी सरकार २७ लाख प्रति एकड़ का भुगतान करेगी, जबकि सच्चाई यह थी क़ी २लIख ७० हज़ार रूपये प्रति एकड़ ही दिया जाना था. पूरे प्रकरण में मीडिया का साथ रहा. सहारा समय टी वी ने मुरहो से भूमि अधिग्रहण पर ३० जनवरी,२००८ को एक ज़ोरदार कार्यक्रम का सीधा प्रसारण किया, जिसका शीर्षक था - 'मंडल पर वार'. इस कार्यक्रम में लगभग १५० ग्रामीण ने हिस्सा लिया और सभी ने एक स्वर में इस अधिग्रहण का विरोध किया. शायद लालू जी तक मेसेज पहुँच गया. अंततः रेल मंत्रालय ने अधिग्रहण क्षेत्र दूसरे जगह बदले जाने की घोषणा क़ी.
दिनांक १४ जुलाई,2008 को इस फैसले पर मैंने लालू प्रसाद जी को धन्यवाद् देते हुए कुछ सुझाव प्रस्तुत किये. मैंने अपने ज्ञापन में लिखा -
"आपसे सादर निम्नलिखित निवेदन कर रहा हूँ, जिस पर आशा करता हूँ क़ी सहानुभूतिपूर्वक विचार करेंगे -
१. रेल इंजन कारखाना हेतु भूमि अधिग्रहण को कम से कम किये जाने का प्रावधान करने क़ी कृपा जाये.(९०० एकड़ का प्रस्ताव था).
२. भूमि अधिग्रहण के कवायद में कम से कम कृषि योग्य भूमि, घरों, मंदिर, मस्जिद को नुकसान पहुंचे.
३. अधिग्रहण किये गए भूमि का अधिक से अधिक बाज़ार भाव के मूल्य पर मुआवजा दिया जाये. मुआवजा पूर्णतः नगद न होकर बांड के माध्यम से किये जाने का प्रावधान किया जाये.
४. जिनकी भूमि का अधिग्रहण हो उनके परिवार जनों को उनके योग्यता के अनुरूप रेलवे द्वारा नौकरी दिया जाये.
५. अगर किसी कारण वस् कारखाना शुरू न हो सके अथवा किसी समय बंद हो तो इसे वापस भूस्वामियों को देने का एकरारनामा किया जाये.
......................................सेज के अंतर्गत किसानो के कृषि योग्य भूमि अधिग्रहण किये जाने के विवाद में भी एक उचित दिशा-निर्देश देंगे."
लालू जी तो मेरी बातों पर ध्यान नहीं दिए थे परन्तु मायावती जी के राज में उत्तर प्रदेश शासन ने अपने प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून में इन बातों को रखा है.
किसानो के लिए न कोई दल न तथाकथित सिविल सोसाइटी के स्वयंभू नुमाइंदे कोई अव्वाज़ उठा रहे हैं. दरअसल राजनीति में उद्योग जगत के दलालों का बोल-बाला है और राजनीती दलालों का अड्डा बन गया है. ऐसी स्तिथि में आगे क्या होता है, क्या केंद्र सरकार १८९४ के भूमि अधिग्रहण कानून के जगह नई कानून संसद के अगले सत्र में लाते हैं कि नहीं और उसका स्वरुप क्या होगा, यह देखनI दिलचस्प होगा.
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