आज लोकपाल विधेयक लोक सभा में पेश किया गया तो प्रणब मुख़र्जी ने बयान दिया कि संसद की संप्रभुता का पूर्ण ख्याल रखा जायेगा और सभी संसदीय परम्पराओं का पालन किया जायेगा. इशारा है की बेकार में अन्ना और उनके साथी विधेयक की प्रतियाँ जला रहें हैं, इसका वो ही हस्र होगा जो पहले लोकपाल के कई विधेयेकों का हुआ.
दरअसल प्रथम लोकपाल विधेयक १९६८ में पेश किया गया और लोक सभा में पारित होने के बावजूद राज्य सभा में पारित नहीं होने पर कानून नहीं बन पाया. फिर १९७१, १९७७ में तत्कालीन कानून मंत्री और लोकपाल विधेयक समिति के वर्तमान सदस्य शांति भूषण द्वारा, १९८५, १९८९, १९९६, १९९८, २००१, २००५ तथा २००८ में प्रस्तुत किये गए. इस तरह प्रस्तुत होने के ४२ वर्ष बाद भी लोकपाल विधेयक कानून नहीं बन सका. अब अन्ना हजारे ने जन लोकपाल की मुहीम शुरू की तो विधेयक प्रस्तुत कर सरकार ने यह बताने की कोशिश की है कि ढाक के तीन पात. अब अगर यह कानून भी बन जायेगा तो क्या? यह एक शिखंडी लोकपाल होगा और भ्रष्ट नेताओं को चिंतित होने कि जरूरत नहीं.
संसदीय परंपरा में विधेयक को कानून बनने के लिए उसे संसद के दोनों सदनों - लोक सभा और राज्य सभा - में पारित होकर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हो जाने के बाद कानून का दर्जा मिल जाता है. साधारणतया संसद के दोनों सदनों में समान कार्यविधि की व्यवस्था होती है। प्रत्येक विधेयक को कानून बनने से पहले प्रत्येक सदन में अलग अलग पांच स्थितियों से गुजरना पड़ता है और उसके तीन वाचन (Reading) होते हैं। पाँचों स्थितियाँ इस प्रकार हैं पहला वाचन, दूसरा वाचन, प्रवर समिति की स्थिति, प्रतिवेदन काल (report stage) तथा तीसरा वाचन। जब दोनों सदनों में इन पाँचों स्थितियों से विधेयक गुजर कर बहुमत से प्रत्येक सदन में पारित हो जाता है तब विधेयक सर्वोच्च कार्यपालिका (राष्ट्रपति) के हस्ताक्षर के लिए भेजा जाता है. इस बीच में विधेयक संसदीय समिति (Standing Committee) के अवलोकन तथा आवश्यक सुधIर के लिए भी भेजा जाता है. तो समय बड़ा बलवान है, और कोई नहीं जनता कि इस लोक सभा कि कार्यकाल कब तक है, यानि सरकार कब तक रहे.
और प्रणब मुख़र्जी ने बराबर यह कतिपय शब्दों में स्पष्ट किया है कि सरकार भ्रष्टाचारियों और विदेशों में कला धन जमा करने वालों के साथ है. और संसदीय परंपरा के पक्षधर प्रणब बाबु जाने कितने बार बिना बहस किये विधेयेकों को कानून बनाये है, खास तौर से जब अमेरिका के साथ परमाणु संधि जैसे मसलें हों.
संसदीय व्यवस्था में गिरावट कोई शोध का विषय नहीं है, यह सर्व विदित है. गिरावट का निष्कर्ष इससे भी निकलता है कि पूर्व में संसद का ४९% समय कानून बनाने में जाता था और अब मात्र १३%. सदस्य उपस्थित ही नहीं रहते हैं. पिछले ३० वर्षों में सदस्यों का एक भी निजी बिल कानून नहीं बन पाया है और सरकारी बिल बिना सोचे-समझे और बहस के पारित होते रहें हैं. तो अन्ना के जन लोकपाल को सदस्यों के निजी बिल के तौर पर भी पारित होने के आसार नहीं है. और कौन सदस्य चाहेगे की भ्रष्टाचार मिटे, घाटा उन्हें भी हो सकता है.
अन्ना के सामने रास्ता कठिन है. एक दायरे (सिविल सोसाइटी) में रह कर कोई आन्दोलन नहीं हो सकता है. जे पी और वि पी , हाल में भ्रष्टाचार के विरूद्ध योद्धाओं ने, युवाओं के बीच जाकर ही हुंकार कर बढे और विजयी बने.सबसे महत्वपूर्ण विषय है की सिविल सोसाइटी द्वारा सामाजिक न्याय पक्ष को साथ नहीं ले सकने से एक बड़े तपके इस मुहीम से नदारद है और इसका फायदा सरकार ले रही है.
हम यह तहे दिल से चाहते हैं और हमारी इच्छा है की अन्ना की मुहीम कामयाब हो और एक सशक्त लोकपाल बने जिससे सुरसा जैसे मुह फाड़े भ्रष्टाचार पर लगाम लगे. इसके लिए आवश्यक है की या तो अन्ना अपने मुहीम को पैना बनाये या संसद सदस्यों के द्वारा प्रस्तुत बिल में व्यापक फेर बदल कर इसे शिखंडी के जगह अर्जुन का तीर बनाया जाये.
"There is equality only among equals. To equate unequals is to perpetuate inequality." ~ Bindheshwari Prasad Mandal "All epoch-making revolutionary events have been produced not by written but by spoken word."-~ADOLF HITLER.
About Me

- Suraj Yadav
- New Delhi, NCR of Delhi, India
- I am an Indian, a Yadav from (Madhepura) Bihar, a social and political activist, a College Professor at University of Delhi and a nationalist.,a fighter,dedicated to the cause of the downtrodden.....
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