बात १९९९ लोक सभा चुनाव की है. मधेपुरा लोक सभा चुनाव क्षेत्र से मैं नव-गठित पार्टी एन सी पी से रा ज द अध्यक्ष लालू प्रसाद व जद(यु) अध्यक्ष शरद यादव के मुकाबले खड़ा था. दरअसल कुछ वर्षों से मेरे साथी और मैं, "मधेपुरा युवा मोर्चा" के तत्वाधान में 'बहरी नेता भगाओ - मधेपुरा बचाओ' मुहीम पर थे. हमारा कहना था की लालू प्रसाद और शरद यादव दोनों मधेपुरा के नहीं हैं, और राजनैतिक मलाई खाने के लिए मधेपुरा से चुनाव लड़ते है, जिससे मधेपुरा की अस्मिता को ठेस पहुंची है और स्थानीय नेतृत्व पूरी तरह कुंठित हो गयी है. सांसद के तौर पर इन दोनों ने मधेपुरा और उसके लोगों की अवहेलना ही की है.
दो राजनैतिक सांढ़ जब लड़ते थे तो तर्क और मुद्दे उस धूल मैं खो जाते थे और इनके निजी समर्थन पर सभी बहस सिमट कर रह जाती थी. उनके बीच अपनी बात को मैं एक वाकया सुना कर कहता था.
उन दिनों कोसी क्षेत्र के लोग गंगा-स्नान के लिए मानसी जाते थे. मानसी खगडिया के पास एक प्रमुख रेल जंक्सन है. गंगा-स्नान के बाद लोग चुडा- दही खाने के लिए प्लेटफार्म पर बैठते थे. चुडा- दही पडोसने के साथ ही कहीं से दो कुत्ते आस-पास बैठ जाते थे. अब जब तक ये चुप-चाप थे तो खाने वालों को क्या आपत्ति हो सकती थी. परन्तु पहला कौड़ लेने के साथ ही कुत्ते एक दूसरे पर गुर्राने लगते थे. गुर्राते-गुर्राते दोनों एक दुसरे से भिड जाते थे, और कुछ पलों में गुथम-गुथ हो जाते थे. उसके बाद लड़ते-लड़ते वे चुडा-दही पर गिर जाते थे.
कुत्ता से ख़राब किया हुआ चुडा-दही कौन खायेगा! गलियां देते हुए लोग चुडा-दही को छोड़ कर हट जाते थे. जैसे लोग चुडा-दही को छोड़ कर हटते थे, दोनों कुत्ते बिना किसी झगडे के मिल-बाँट कर चुडा-दही खा लेते थे, और सिल-सिला चलता रहता था.
मैं यही समझाने की कोशिश करता था कि मधेपुरा के लोग जानें कि अगर चुडा-दही मधेपुरा था तो वे कुत्ते कौन हैं?
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