About Me

My photo
New Delhi, NCR of Delhi, India
I am an Indian, a Yadav from (Madhepura) Bihar, a social and political activist, a College Professor at University of Delhi and a nationalist.,a fighter,dedicated to the cause of the downtrodden.....

Friday, February 13, 2015

रुक्मिणी सन्देश : Message of Rukmini::

रुक्मिणी सन्देश :
जिस वैलेंटाइन डे पर पश्चिम इतना इतराती है, उससे अलग प्रेम स्वरुप की एक झलक रुक्मिणी द्वारा १६ कलाओं में निपुण द्वारकाधीश श्री कृष्ण को उनके द्वारा लिखा गया प्रेम पत्र में नज़र आता है। द्वारका से लगभग ६ किलोमीटर दूर रुक्मिणी मंदिर में इसकी पत्र की प्रति आज भी वितरित होती है। भागवत पुराण के दशम स्कन्ध अध्याय ५२ में इस पत्र की चर्चा है जो रुक्मिणी जी द्वारा एक विश्वस्त विप्र के हाथ भिजवाया गया है | किन्तु क्यों भिजवाया ?
इसका उल्लेख भी वहीँ है |

वे श्रीकृष्ण के अनुपम रूप ,प्रभाव,भक्तवात्सल्य आदि गुण तथा अलौकिक संपत्ति की चर्चा अपने यहाँ आये नारदादि ऋषियों एवं अन्य लोगों से सुन
चुकी थीं | अतः उन्हें अपने अनुरूप समझकर पति रूप में मन ही मन वरण कर लिया --

" सोपश्रुत्य मुकुन्दस्य रूपवीर्यगुणश्रियः |
गृहागतैर्गीयमानास्तं मेने सदृशं पतिम् ||--भा.पु. १०/५२/२३,

उनकी इस भावना का सम्मान उनके माता पिता आदि ने भी किया,
किन्तु उनका भाई रुक्मी श्रीकृष्ण से द्वेष के कारण उन्हे रोककर
अयोग्य शिशुपाल के साथ उनका विवाह करना चाहा --

" बन्धूनामिच्छतां दातुं कृष्णाय भगिनीं नृप |
ततो निवार्य कृष्णद्विड्रुक्मी चैद्यममन्यत ||-१०/५२/२५,

इस बात से रुक्मिणी जी का मन बड़ा खिन्न हुआ और उन्होंने भगवान्
कृष्ण के पास पत्र देकर एक ब्राह्मण को भेजा --

" तदवेत्यासितापाङ्गी वैदर्भी दुर्मना भृशम् |
विचिन्तयाSSप्तं द्विजं कञ्चित् कृष्णाय प्राहिणोद्द्रुतम् ||१०/५२/२६,

रुक्मिणी जी अपने पत्र के ३९वें श्लोक में यह स्पष्ट लिखती हैं कि " हे
प्रभो ! मैंने पतिरूप में आपको वरण कर लिया है अपने आपको आपको समर्पित कर दिया है | आप आकर मुझे अपनी पत्नी बना लें, हे कमलनयन ! जैसे सिंह के भाग को सृगाल ( सियार ) नहीं स्पर्श कर सकता, वैसे ही मुझे सृगालवत् तुच्छ शिशुपाल स्पर्श न कर सके --

तन्मे भवान्खलु वृतः पतिरङ्ग जायामात्माSर्पितश्च भवतोSत्र विभो विधेहि | मा वीरभागमभिमर्शतु चैद्यआराद्गोमायुवन्मृगपतेर्बलिमम्बुजाक्ष ||
--१०/५२/३९,


Message of Rukmini
O the infallible and the most handsome One! Having heard Your qualities, which enter through the path of ears and absolve away the pains of life, and having heard about Your handsome appearance, which is the only asset of the eyes of living beings with eyes, my heart is accepting You as a consort leaving behind shyness.||1||
O Mukunda, the lion (best) among men! Given a chance, which composed girl from a good lineage will not wish for You as a consort; You, Who is the happiness of the minds of people, Who is the happiness of the world, and Who is incomparable from any viewpoint — be it lineage, nature, beauty, knowledge, energy, wealth, or abode.||2||
Therefore, O Lord! I have indeed accepted You as a consort and I have submitted myself to You. O lotus-eyed Krishna! Please arrive here [and accept me]; so that the prince of Cedi (Sisupala) does not takes away the property of brave You — just like a jackal should not take away the prey of a lion.||3||
If I have revered the all pervading Paramatman by social welfares (digging wells), oblations, obeying rules, penance, and serving demi-gods, saints, and preceptor, then O Gadagraja (Krishna)! You accept me after holding my hand — instead of anyone else like the son of Damaghosa (Sisupala).||4||
O Lord, Who is unconquered! Arrive secretly in Vidarbha one day before my marriage. Then after defeating all the army-commanders from the regions of Cedi and Magadha (Sisupala and Jarasandha), marry me with the ways of demons by showing Your valor and conquering power.||5||
If You are wondering that how will you conquer me without killing the women and relatives inside my palace, then I am telling You a way out. As per an old tradition, there is a grand fair before the marriage, during which the bride goes out to the temple of Girija for prayers.||6||
O lotus-eyed Krishna! If I don’t achieve the dust of Your feet, which is sought after by incomparable Ones like Umapati (Siva), then I will destroy my life. If the service of Your feet is not achieved in this life, then I will take hundreds of birth and do penance; I am sure I will achieve Your lotus feet some day.||7||
Notes:
¹This letter was sent to Krishna by Rukmini. It is a beautiful eulogy in which love for the divine is evident. The letter was carried by a Brahman, who was a trustee of Rukmini. The eulogy appears in tenth-book and fifty-second chapter of the Bhagavat Purana.
Poet: Rukmini
Source:Bhagavat Purana

श्रीकृष्ण जन्म महोत्सव की बात आती है तो उनके जीवन की एक प्रमुख लीला – रुक्मिणी हरण की लीला – की चर्चा तो होगी ही | श्रीकृष्ण चरित्र की एक प्रमुख लीला है रुक्मिणी हरण की लीला | रुक्मिणी हरण की लीला एक ओर सांसारिक दृष्टि से जहाँ एक घटना भर है, वहीं कृष्ण की अन्य लीलाओं के समान इस लीला का भी आध्यात्मिक रहस्य है | सबसे पहले चर्चा करते हैं इस लीला की |

विदर्भ देश में भीष्मक नामक एक परम तेजस्वी और सद्गुणी राजा थे । उनकी राजधानी थी कुण्डिनपुर । उनकी एक पुत्री थी – रुक्मिणी जो पाँच भाइयों के बाद उत्पन्न हुई थी इसलिये सभी की लाडली थी । उसके शरीर में लक्ष्मी के शरीर के समान ही लक्षण थे इसलिये लोग उसे लक्ष्मीस्वरूपा भी कहा करते थे । रुक्मिणी जब विवाह योग्य हुईं तो भीष्मक को उसके विवाह की चिंता हुई । रुक्मिणी के पास जो लोग आते-जाते थे वे श्रीकृष्ण की प्रशंसा किया करते थे कि श्रीकृष्ण अलौकिक पुरुष हैं तथा समस्त विश्व में उनके सदृश अन्य कोई पुरुष नहीं है । भगवान श्रीकृष्ण के गुणों और उनकी सुंदरता के विषय में सुनकर रुक्मिणी मन ही मन उन पर आसक्त हो गईं और उन्होंने मन में निश्चय कर लिए कि वे विवाह करेंगी तो श्री कृष्ण के साथ ही | उधर कृष्ण को भी नारद से यह बात ज्ञात हो चुकी थी तथा रुक्मिणी के सौन्दर्य के विषय में तथा उनके गुणसम्पन्न होने के विषय में भी नारद उन्हें बता चुके थे | रुक्मिणी का बड़ा भाई रुक्मी कृष्ण से शत्रुता रखता था | वह अपनी बहन रुक्मिणी का विवाह चेदि वंश के राजा तथा कृष्ण की बुआ के बेटे शिशुपाल के साथ करना चाहता था | इसका एक कारण यह भी था कि शिशुपाल भी रुक्मी के समान ही कृष्ण से शत्रुता रखता था | अपने पुत्र की भावनाओं का सम्मान करते हुए राजा भीष्मक ने शिशुपाल के साथ ही पुत्री के विवाह का निश्चय कर लिया और शिशुपाल के पास सन्देश भेजकर विवाह की तिथि भी निश्चित कर ली |

रुक्मिणी को इस बात का पता लगा तो उन्हें बहुत दुःख हुआ और उन्होंने एक ब्राह्मण को कृष्ण के लिये अपना सन्देश द्वारिका भेजा | अपने सन्देश में उन्होंने स्पष्ट रूप से अपना प्रणय कृष्ण के प्रति व्यक्त किया | साथ ही यह भी बताया था उनका विवाह उनकी इच्छा के विपरीत शिशुपाल के साथ किया जा रहा है | उन्होंने पत्र में लिखा कि “मैंने आपको ही पति रूप में वरण किया है । मैं आपको अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष के साथ विवाह नहीं कर सकती । मैं अपने कुल की प्रथा के अनुसार विवाह से पूर्व वधू के रूप में श्रृंगार करके नगर के बाहर स्थित गिरिजा देवी के मन्दिर में उनके दर्शन के लिए जाऊँगी | आपसे निवेदन है कृपया उसी समय आप मुझे वहाँ से भगा कर ले जाएँ और मुझे पत्नी रूप में स्वीकार करें | यदि ऐसा नहीं हुआ तो मैं अपने प्राण त्याग दूँगी |” रुक्मिणी का संदेश पाकर सन्देशवाहक ब्राह्मण को साथ ले भगवान श्रीकृष्ण रथ पर सवार होकर अकेले ही शीघ्र ही कुण्डिनपुर की ओर चल दिए । इधर बलराम को पूरी घटना का पता चला और यह भी ज्ञात हुआ कि कृष्ण अकेले ही चल दिए हैं रुक्मिणी को लाने तो युद्ध की आशंका हुई उन्हें और वे यादवों की सेना को लेकर कृष्ण की सहायता के लिये चल दिये | दूसरी ओर राजा भीष्मक का सन्देश पाकर शिशुपाल भी निश्चित तिथि पर दल बल के साथ बारात लेकर कुण्डिनपुर जा पहुँचा | शिशुपाल की बारात में जरासंध, शाल्व इत्यादि वे सभी राजा अपनी अपनी सेनाओं के साथ थे जो श्री कृष्ण से वैर रखते थे | सारा नगर शिशुपाल और रुक्मिणी के विवाह के लिये वन्दनवारों तथा तोरणों से सजा हुआ था तथा मंगल वाद्य बजाए जा रहे थे |

सन्ध्या समय रुक्मिणी विवाह के वस्त्रों में सज-धजकर गिरिजा देवी के मंदिर की ओर चल पड़ीं । उनके साथ उनकी सखियाँ तथा बहुत से अंगरक्षक भी थे । गिरिजा देवी की की पूजा करते हुए रुक्मिणी ने उनसे प्रार्थना की कि हे माँ, तुम तो समस्त जगत की माता हो, मेरी मनोकामना पूर्ण करो, आशीर्वाद दो मुझे कि श्रीकृष्ण मुझे यहाँ से ले जाएँ और पत्नी रूप में स्वीकार करें | पूजा अर्चना के बाद घर वापस लौटने के लिये रुक्मिणी अपने रथ पर बैठना ही चाहती थी कि वहाँ पहुँच चुके श्रीकृष्ण ने विद्युत गति से रुक्मिणी का हाथ पकड़ लिया और उन्हें खींचकर अपने रथ पर बैठा लिया और तीव्र गति से द्वारका की ओर चल पड़े । रुक्मिणी के हरण का समाचार तुरन्त राज्य भर में फ़ैल गया | क्रोधित शिशुपाल ने अपने मित्र राजाओं और उनकी सेनाओं के साथ कृष्ण का पीछा किया किन्तु बलराम और यदुवंशी सेनाओं ने उन सबको बीच में ही रोक लिया | भयंकर युद्ध हुआ | शिशुपाल तथा उसकी मित्र सेनाएँ पराजित और निराश होकर वापस अपने अपने राज्यों को लौट गईं | शिशुपाल को पराजित होकर भागते देख रुक्मी ने क्रोध में भरकर प्रतिज्ञा की या तो कृष्ण को बन्दी बनाकर लौटेगा, अन्यथा कुण्डिनपुर में मुँह नहीं दिखाएगा | रुक्मी और कृष्ण के मध्य युद्ध हुआ | रुक्मी पराजित हुआ | श्रीकृष्ण उसका वध करने ही वाले थे कि रुक्मिणी ने उन्हें रोक दिया और कहा कि आप अत्यन्त बलवान होने के साथ साथ कल्याण स्वरूप भी हैं | मेरे भाई का वध आपको शोभा नहीं देता | तब कृष्ण ने उसकी दाड़ी मूँछ काटकर और सर के बाल जगह जगह से उखाड़ कर उसे कुरूप बना दिया | बलराम को उस पर दया आई और उन्होंने कृष्ण को समझाया कि तुमने यह अच्छा नहीं किया । अपने सम्बन्धी को कुरूप बना देने जैसा निन्दित कार्य हम लोगों को शोभा नहीं देता | और बलराम ने स्वयं रुक्मी के बन्धन खोल दिए | अब बलराम को ध्यान आया कि जिस कन्या को वधू के रूप में ले जाया जा रहा है उसी के भाई के साथ इस प्रकार के आचरण से सम्भवतः उसे कष्ट होगा और हो सकता है वह अपने ह्रदय में कृष्ण के प्रति तथा उनके परिवार के प्रति कोई दुराग्रह पाल बैठे | यदि ऐसा हुआ तो कृष्ण का वैवाहिक जीवन सुखी नहीं रह पाएगा | अतः परिवार का ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते उन्होंने रुक्मिणी को समझाया कि तुम्हारे भाई के साथ जो कुछ कृष्ण ने किया उसके कारण मन में किसी प्रकार की दुर्भावना मत रखना, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को अपने किये कर्म का फल तो भोगना ही पड़ता है | और इस प्रकार भविष्य के लिये वातावरण को विषाक्त होने से बचा लिया | क्योंकि गृहस्थ जीवन में यदि आरम्भ में ही मनों में किसी प्रकार की कटुता उत्पन्न हो जाए तो उसके दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं होते | इस प्रकार रुक्मिणी हरण की घटना गृहस्थ जनों को यह सन्देश भी देती है कि अपने जीवन साथी के प्रति किसी प्रकार की कटुता अथवा दुराग्रह नहीं रखना चाहिये |

कृष्ण ने रुक्मिणी को द्वारिका ले जाकर उनके साथ विधिवत विवाह किया | रुक्मिणी के गर्भ से बाद में कामदेव के अवतार प्रद्युम्न का जन्म हुआ | शिवजी की तपस्या भंग करने पर जब शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था तो कामदेव की पत्नी रति ने अपने पति को जीवन दान देने की प्रार्थना शिव से की थी | और शिव ने उसे वरदान दिया था कि उसका पति कामदेव कृष्ण की सन्तान के रूप में पुनर्जन्म लेगा |

निम्बार्क सम्प्रदाय की पद्धति में रुक्मिणी को विशेष स्थान प्राप्त है | इस सम्प्रदाय में एक ओर तो गोलोकवासी राधा-कृष्ण की उपासना का विधान है तथा सुख विलास का स्थान अखण्ड वृंदावन को भी माना गया है, किन्तु दूसरी ओर द्वारिकापुरी को अपना धाम और रुक्मिणी जी को अपना इष्ट एवं गरुड़ जी को देवता माना गया है । इन दोनों बातों में सैद्धान्तिक विरोध है । किन्तु यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो स्पष्ट होता है कि एक ही श्री कृष्ण नाम के शरीर में तीन विभिन्न शक्तियों ने अलग-अलग प्रकार की लीला की । बृहत्सदाशिव संहिता में कहा गया है कि परब्रह्म की किशोर लीला का ऐश्वर्य वृंदावन में स्थित है । वह ही गोकुल में बाल रूप की लीला में स्थित है । वैकुण्ठ का वैभव मथुरा और द्वारिका में स्थित है । रास मण्डल में वेद ऋचाओं के द्वारा स्तुति किये जाने पर श्री कृष्ण जी ने उनके साथ लीला करने का वरदान दिया और उनके साथ वृंदावन में सात दिनों तक लीला करके वे मथुरा चले गये । वहाँ पहुँचकर उन्होंने कंस का वध किया | कृष्ण के विरह में व्याकुल वेद ऋचा सखियाँ गोलोक धाम को प्राप्त हुईं । पृथ्वी का भार हरण करने की इच्छा से चक्रधारी विष्णु भगवान कुछ वर्षों तक मथुरा में रहे । इसके बाद वे द्वारिका गये और बाद में वैकुण्ठ में विराजमान हो गये । बृहत्सदाशिव संहिता के इस कथन से यह सिद्ध होता है कि राधा-कृष्ण का अनन्य उपासक यदि रुक्मिणी जी को अपना इष्ट बनाये तो यही कहा जा सकता है कि उसने सार और असार को एक ही में मिला दिया है । अर्थात सांसारिक राग जब भगवत चिन्तन का माध्यम बन जाता है तो वह राग ही प्रेम रस के रूप में परिणत हो जाता है । किसी भी क्रिया में प्रेम और ज्ञान दोनों की संगति आवश्यक है । निम्बार्क के अनुसार श्री कृष्ण ब्रह्म हैं, रुक्मिणी ज्ञान शक्ति और सत्यभामा क्रियाशक्ति हैं । इन दोनों की समाविष्ट पराशक्ति श्री राधा हैं ।

रुक्मिणी वास्तव में भक्ति और प्रेम का सामंजस्य हैं । वह भगवान की भक्त भी हैं और प्रेमी भी । बिना देखे, बिना मिले, कृष्ण के गुणों से, उनके स्वरूप से प्रेम कर बैठीं । प्रेम भी इतना प्रगाढ़ कि मन ही मन उन्हें अपना सर्वस्व तक समर्पित कर दिया । जब प्रेम ऐसा हो जाए – निष्ठा ऐसी हो जाए – तो परमात्मा को खोजने के लिए – सत्य को खोजने के लिये भटकना नहीं पड़ता । वह परमात्मा तो स्वयं ही हमें ढूँढता चला आता है । अर्थात पूर्ण निष्ठावान होकर, एकाग्रचित्त होकर यदि सत्य की खोज की जाए, ज्ञान प्राप्ति की कामना की जाए तो वह सत्य, वह ज्ञान हमें बहुत सरलता से उपलब्ध हो सकता है | रुक्मिणी ने मन में भगवान को सर्वोच्च स्थान दिया अतः भगवान ने स्वयं उनके जीवन में प्रवेश किया | और इस ईश्वर प्राप्ति के लिये रुक्मिणी ने बहुत सोच विचारकर एक विश्वासपात्र ब्राह्मण को सन्देश देकर कृष्ण के पास भेजा | अर्थात ईश्वर की प्राप्ति के लिये माध्यम अर्थात सत्य की प्राप्ति के लिये गुरु किसी ऐसे व्यक्ति को ही बनाना चाहिये जिसे स्वयम् ईश्वर सत्ता का ज्ञान हो – सत्य का ज्ञान हो | सच्चे गुरु का चित्त सदा सन्तुष्ट रहता है | उसे अपने पूर्व पुरुषों द्वारा स्वीकृत धर्म का पालन करने में भी कोई कठिनाई नहीं होती । वह समस्त धर्मों, समस्त विचारों का मनन करना जानता है | तथा सत्यान्वेषण और सत्यप्राप्ति की दिशा में शिष्य का भली भांति तथा उचित विधि से मार्ग दर्शन करता है |

रुक्मिणी भक्त भी हैं और प्रेमी भी । भक्ति और प्रेम के समक्ष सबसे बड़ी कठिनाई यही आती है कि जब मन सत्य में लीन होना चाहता है तो अन्य इन्द्रियाँ उसे अनेक प्रकारों के विकारों में भटकाने का प्रयास करती हैं । किन्तु मन तटस्थ हो, ध्यानावस्थित हो तो कोई भी विकार उसे प्रभावित नहीं कर सकता | रुक्मिणी रूपी मन का परमात्मा अकेला है और शिशुपाल आदि विकार पूरी सेना हैं । किन्तु मन अर्थात रुक्मिणी को तो केवल शाश्वत सत्य अर्थात ईश्वर की ही लगन लगी है, उसी के ध्यान में पूर्ण निष्ठा तथा एकाग्रता के साथ अवस्थित हैं वे | यही कारण है कि सत्य अर्थात परमात्मा स्वयं उसके समक्ष उपस्थित हो गया |

इस प्रकार रुक्मिणी हरण की लीला केवल एक लौकिक लीला ही नहीं वरन् कृष्ण की अन्य लीलाओं के समान इसमें भी बहुत गहन रहस्य छिपे हुए हैं, बहुत गूढ़ सन्देश छिपे हुए हैं |

No comments:

Post a Comment