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New Delhi, NCR of Delhi, India
I am an Indian, a Yadav from (Madhepura) Bihar, a social and political activist, a College Professor at University of Delhi and a nationalist.,a fighter,dedicated to the cause of the downtrodden.....

Thursday, December 24, 2015

इंटरनेट बचाएँ : नेट न्यूट्रेलिटी : #SaveTheInternet

इंटरनेट घोटाला:
इंटरनेट बचाएँ : नेट न्यूट्रेलिटी : फेसबुक के फ्री बेसिक्स अनुमोदन से बचें और उसके व्यवस्था के पक्ष में कमेंट्स दें- बजाए www.mygov.in पर या www.savetheinternet.in पर लॉग करें और वर्तमान
जब सरकार के विभाग रहते "रेगुलेटरी अथॉरिटी" बनाए गए तो दरअसल यह देसी विदेशी कंपनियों के पैसे बनाने के संसद और जनाधिकारों के अंकुश से बचने के उपाय के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है।
इसी क्रम में ट्राई (TRAI) है, जिसका काम सरकार के इशारे पर कंपनियों के लिए दलाली का है, ने नेट न्यूट्रेलिटी पर विचार मांगे हैं। ट्राई जैसे असंवैधानिक संस्थाओं किसी भी पार्टी द्वारा विरोध ही नहीं होता है। यह जबरन देश में टेलीविजन देखने वालों को सेट टॉप बॉक्स लगाने और बिना उचित जाँच के बिजली बिल बढ़ाने के आदेश देती है और संसद, न्यायालय इस संविधान-इतर संस्था को अनुमोदन देती है। सेट टॉप बॉक्स के माध्यम से उपभोक्ताओं से पैसे उसूलने का जहाँ पूरा इंतज़ाम है वहीँ चैनलों के बेहिसाब वाजिब गैरवाजिब कमाई पर कोई लेख जोखा नहीं।
इसी तरह फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग नरेंद्र मोदी को अहमियत देते हैं या अगर कहते कि उनकी कंपनी नेट निरपेक्षता के लिए प्रतिबद्ध है, तो किसी को यह संशय न रहें की अपना बिज़नेस बढ़ाने के लिए या एकाधिकार बरकरार रखने के लिए ऐसा कह या कर रहें हैं। हालांकि इसके साथ ही उन्होंने इंटरनेट सेवा कंपनियों की तथाकथित जीरो-रेटिंग प्लान का भी समर्थन किया, जिन्हें कई आलोचक इंटरनेट की निरपेक्षता के सिद्धान्त के खिलाफ मानते हैं।इस तरह फेसबुक भी 'फ्री बेसिक्स' के नाम पर इसी मुहीम में लग गया है। फेसबुक के झांसे में न आएँ।
इसी दिशा में सभी इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर को लग रहा है कि इंटरनेट के 'सेवा' (पढ़िए बिज़नेस) के पूरे पैसे नहीं मिल रहे हैं। तब सरकार की ओर से TRAI, जिसके लिए व्यापारियों का हित परम धर्म है, ने नेट न्यूट्रेलिटी की बहस शुरू की है।
एक सरकारी रिपोर्ट में कहा गया है कि व्हॉट्सऐप, स्काइप और वाइबर जैसी इंटरनेट-आधारित सेवाओं से भारत के भीतर की जाने वाली कॉलों को उसी तरह 'नियंत्रित' किया जाना चाहिए, जैसे 'परंपरागत' फोन कॉलों को किया जाता है। इसी दिशा में तीन प्राइवेट सर्विस प्रोवाइडर्स एयरटेल, वोडाफोन और आईडिया सेल्‍यूलर ने कॉल ड्रॉप्स और नेट न्यूट्रैलिटी पर अपना स्टैंड आईटी पर संसद की स्थायी समिति के सामने रख दिया है।
यह तमाशा है क्या ?
अभी :
सभी वेबसाइट्स और ऐप को बराबरी का दर्जा दिया जाता है।
प्रत्येक यूजर की किसी भी वेब-बेस्ड सर्विस तक पहुंच बनी रहती है।
कोई भी वेबसाइट या ऐप ब्लॉक नहीं होता।
हर वेबसाइट के लिए एक समान स्पीड मिलती है।
इसके तहत विकल्प असीमित रहेंगे, बिल नियंत्रण में रहेगा।
यदि इसे ख़त्म किया गया तो?
अलग-अलग वेबसाइट के लिए अलग-अलग स्पीड मिलेगी।
टेलीकॉम कंपनी से जुड़े ऐप और वेबसाइट ही फ्री होंगे।
जिन ऐप, वेबसाइटों के साथ करार नहीं, उनके लिए अतिरिक्त पैसे देने होंगे।
अच्छी स्पीड के लिए भी अलग से भुगतान करना होगा।
ग्राहकों का फोन बिल बढ़ेगा।
इंटरनेट की वर्तमान व्यवस्था बनाए रखने के लिए, और जो अमेरिका, इंग्लैंड, फ़्रांस, जापान में भी है,
आपसे अनुरोध है www.mygov.in पर वर्तमान व्यवस्था के पक्ष में कमेंट्स दें।
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Saturday, December 19, 2015

मस्तानी और बाजीराव : एक ऐतिहासिक रोमांचक प्रेम कहानी। Mastani and Bajirao First.

इतिहास के कुछ रोमांचक पल : बाजीराव पेशवा प्रथम और मस्तानी।
18वीं शताब्दी के पूर्व मध्यकाल में मराठा इतिहास में मस्तानी का विशेष उल्लेख मिलता है। बखर और लेखों से मालूम पड़ता है कि मस्तानी अफ़गान और गूजर जाति की थी। इनका जन्म नृत्य करनेवाली जाति में हुआ था। गुजरात के गीतों में इन्हें 'नृत्यांगना' या 'यवन कांचनी' के नाम से संबोधित किया गया है।
कहानी राजा छत्रसाल के राज्य पर मुगल दरबार के मुहम्मद खान बंगश के हमले के साथ शुरू होता है।
छत्रसाल, अमर सम्राट शिवाजी महाराज से प्रेरणा प्राप्त करने के बाद (दिल्ली के लिए दक्षिण पूर्व) बुंदेलखंड में अपने राज्य की स्थापना की थी। खान बंगश ने उसके राज्य पर हमला किया, और छत्रसाल ने सहायता के लिए बाजीराव के लिए एक संदेश भेजा।
छत्रसाल जो खुद एक अच्छा कवि था, अपने संदेश में लिखा -
"जो बीती गज-राज पर, सो गति भायी है आज, बाजी जात बुन्देल की रक्खो, बाजी लाज"
(हम 'बुंदेले' नदी में पानी पीने गए उस गजराज की तरह भयानक स्थिति में हैं, जिसका पैर एक मगरमच्छ द्वारा पकड़ा लिया गया है, जब ... तो, ओह बाजी हमें और हमारे सम्मान की रक्षा करने के लिए कृपया मदद के लिए आएं..)
इस पुकार का जवाब देते हुए बाजीराव बुंदेलखंड के पास गए और जैतपुर की युद्ध में बंगश को पराजित किया। बंगश को पीछे हटाने के बाद बाजीराव और छत्रसाल भरतपुर में मिले, और इस ख़ुशी में छत्रसाल ने बाजीराव को अपने तीसरे बेटे के रूप में घोषित किया और अपने राज्य के एक तिहाई हिस्से से सम्मानित किया।
दरबार में अपने इस स्वागत में हो रहे पारंपरिक नृत्य के दौरान बाजीराव और मस्तानी ने पहली बार एक दूसरे को देखा।
इसको बेहतर समझने के लिए मराठा इतिहास के कुछ महत्वपूर्ण शासक और उनके प्रधान मंत्री (पेशवा) के बारे में जानना ज़रूरी है।
महाराज शिवाजी ने सतारा वंश और मराठा साम्राज्य की नीवं 1674 में रखी। मराठा साम्राज्य या मराठा महासंघ 1674 से 1818 तक अस्तित्व में रही। यह साम्राज्य 1818 तक चला और लगभग पूरे भारत में फैल गया।
छत्रपति शिवाजी (1627-1680)
छत्रपति सम्भाजी (1657-1689)
छत्रपति राजाराम (1670-1700) कोल्हापुर वंश।
महारनी ताराबाई (1675-1761)
छत्रपति शाहू (1682-1749) उर्फ शिवाजी द्वितीय, छत्रपति संभाजी का बेटा
छत्रपति रामराज (छत्रपति राजाराम और महारानी ताराबाई का पौत्र)।
मराठा साम्राज्य के प्रधानमंत्रियों को पेशवा (मराठी: पेशवा) कहते थे। ये राजा के सलाहकार परिषद अष्टप्रधान के सबसे प्रमुख होते थे। राजा के बाद इन्हीं का स्थान आता था। शिवाजी के अष्टप्रधान मंत्रिमंडल में प्रधान मंत्री अथवा वजीर का पर्यायवाची पद था। 'पेशवा' फारसी शब्द है जिसका अर्थ 'अग्रणी' है।
पेशवा का पद वंशानुगत नहीं था। आरंभ में, संभवत: पेशवा मर्यादा में अन्य सदस्यों के बराबर ही माना जाता था। छत्रपति राजाराम के समय में पंत-प्रतिनिधि का नवनिर्मित पद, राजा का प्रतिनिधि होने के नाते पेशवा से ज्येष्ठ ठहराया गया था। पेशवाई सत्ता के वास्तविक संस्थापन का, तथा पेशवा पद को वंशपरंपरागत रूप देने का श्रेय ऐतिहासिक क्रम से सातवें पेशवा, बालाजी विश्वनाथ को है। किंतु, यह परिवर्तन छत्रपति शाहू के सहयोग और सहमति द्वारा ही संपन्न हुआ, उसकी असमर्थता के कारण नहीं। यद्यपि बालाजी विश्वनाथ के उत्तराधिकारी बाजीराव ने मराठा साम्राज्य के सीमाविस्तार के साथ साथ अपनी सत्ता को भी सर्वोपरि बना दिया, तथापि वैधानिक रूप से पेशवा की स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन शाहू की मृत्यु के बाद, बाजीराव के पुत्र बालाजी के समय में हुआ। अल्पवयस्क छत्रपति रामराजा की अयोग्यता के कारण समस्त राजकीय शक्ति संगोला के समझौते (25 सितंबर 1750) के अनुसार, पेशवा को हस्तांतरित हो गई, तथा शासकीय केंद्र सातारा की अपेक्षा पुणे निर्धारित किया गया। किंतु पेशवा माधवराव के मृत्युपरांत जैसा सातारा राजवंश के साथ हुआ, वैसा ही पेशवा वंश के साथ हुआ। माधवराज के उत्तराधिकारियों की नितांत अयोग्यता के कारण राजकीय सत्ता उनके अभिभावक नाना फड़नवीस के हाथों में केंद्रित हो गई। किंतु आँग्ल शक्ति के उत्कर्ष के कारण इस स्थिति में भी शीघ्र ही महान परिवर्तन हुआ। अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय को वसई की संधि के अनुसार (31 दिसम्बर 1802) अंग्रेजों का प्रभुत्व स्वीकार करना पड़ा; 13 जून 1817, की संधि के अनुसार मराठा संघ पर उसे अपना अधिकार छोड़ना पड़ा; तथा अंत में तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध की समाप्ति पर, मराठा साम्राज्य के विसर्जन के बाद, पदच्युत होकर अंग्रेजों की पेंशन ग्रहण करने के लिये विवश होना पड़ा।
पेशवाओं का काल-
बाळाजी विश्वनाथ पेशवा (1714-1720)
बाजीराव पेशवा प्रथम (1720-1740)
बाळाजी बाजीराव पेशवा ऊर्फ नानासाहेब पेशवा (1740-1761)
माधवराव बल्लाळ पेशवा ऊर्फ थोरले माधवराव पेशवा (1761-1772)
नारायणराव पेशवा (1772-1774)
रघुनाथराव पेशवा (अल्पकाल)
सवाई माधवराव पेशवा (1774-1795)
दूसरे बाजीराव पेशवा (1796-1818)
दूसरे नानासाहेब पेशवा (सिंहासन पर नहीं बैठ पाए)।
बाजीराव प्रथम के बारे में कुछ तथ्य :
जन्म 1700 ई. : मृत्यु 1740। जब महाराज शाहू ने १७२० में बालाजी विश्वनाथ के मृत्यूपरांत उसके 19 वर्षीय ज्येष्ठपुत्र बाजीराव को पेशवा नियुक्त किया तो पेशवा पद वंशपरंपरागत बन गया। अल्पव्यस्क होते हुए भी बाजीराव ने असाधारण योग्यता प्रदर्शित की। उसका व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावशाली था; तथा उसमें जन्मजात नेतृत्वशक्ति थी। अपने अद्भुत रणकौशल, अदम्य साहस और अपूर्व संलग्नता से, तथा प्रतिभासंपन्न अनुज चिमाजी अप्पा के सहयोग द्वारा शीघ्र ही उसने मराठा साम्राज्य को भारत में सर्वशक्तिमान् बना दिया। शकरलेडला (Shakarkhedla) में उसने मुबारिज़खाँ को परास्त किया। (1724)। मालवा तथा कर्नाटक पर प्रभुत्व स्थापित किया (1724-1726)। पालखेड़ में महाराष्ट्र के परम शत्रु निजामउलमुल्क को पराजित कर (1728) उससे चौथ तथा सरदेशमुखी वसूली। फिर मालवा और बुंदेलखंड पर आक्रमण कर मुगल सेनानायक गिरधरबहादुर तथा दयाबहादुर पर विजय प्राप्त की (1729)। तदनंतर मुहम्मद खाँ बंगश (Bangash) को परास्त किया (1729)। दभोई में त्रिंबकराव को नतमस्तक कर (1731) उसने आंतरिक विरोध का दमन किया। सीदी, आंग्रिया तथा पुर्तगालियों को भी विजित किया। दिल्ली का अभियान (1737) उसकी सैन्यशक्ति का चरमोत्कर्ष था। उसी वर्ष भोपाल में उसने फिरसे निजाम को पराजय दी। अंतत:1739 में उसने नासिरजंग पर विजय प्राप्त की। अपने यशोसूर्य के मध्य्ह्राकाल में ही 28 अप्रैल 1740 को अचानक रोग के कारण उसकी असामयिक मृत्यु हुई।

मस्तानी:
18 वीं शताब्दी के पूर्व मध्यकाल में मराठा इतिहास में मस्तानी का विशेष उल्लेख मिलता है। बखर और लेखों से मालूम पड़ता है कि मस्तानी अफ़गान और गूजर जाति की थी। इनका जन्म नृत्य करनेवाली जाति में हुआ था। गुजरात के गीतों में इन्हें 'नृत्यांगना' या 'यवन कांचनी' के नाम से संबोधित किया गया है।
मस्तानी अपने समय की अद्वितीय सुंदरी एवं संगीत कला में प्रवीण थी। इन्होंने घुड़सवारी और तीरंदाजी में भी शिक्षा प्राप्त की थी। गुजरात के नायब सूबेदार शुजाअत खाँ और मस्तानी की प्रथम भेंट 1724 ई० के लगभग हुई। चिमाजी अप्पा ने उसी वर्ष शुजाअत-खान पर आक्रमण किया। युद्ध क्षेत्र में ही शुजाअत खाँ की मृत्यु हुई। लूटी हुई सामग्री के साथ मस्तानी भी चिमाजी अप्पा को प्राप्त हुई। चिमाजी अप्पा ने उन्हें बाजीराव के पास पहुँचा दिया। तदुपरांत मस्तानी और बाजीराव एक दूसरे के लिए ही जीवित रहे।
1727 ई० में प्रयाग के सूबेदार मोहम्मद खान बंगश ने राजा छत्रसाल (बुंदेलखंड) पर चढ़ाई की। राजा छत्रसाल ने तुरंत ही पेशवा बाजीराव से सहायता माँगी। बाजीराव अपनी सेना सहित बुंदेलखंड की ओर बढ़े। मस्तानी भी बाजीराव के साथ गई। मराठे और मुगल दो बर्षों तक युद्ध करते रहे। तत्पश्चात् बाजीराव जीते। छत्रसाल अत्यंत आनंदित हुए। उन्होंने मस्तानी को अपनी पुत्री के समान माना। बाजीराव ने जहाँ मस्तानी के रहने का प्रबंध किया उसे 'मस्तानी महल' और 'मस्तानी दरवाजा' का नाम दिया।
मस्तानी ने पेशवा के हृदय में एक विशेष स्थान बना लिया था। उसने अपने जीवन में हिंदू स्त्रियों के रीति रिवाजों को अपना लिया था। बाजीराव से संबंध के कारण मस्तानी को भी अनेक दु:ख झेलने पड़े पर बाजीराव के प्रति उसका प्रेम अटूट था। मस्तानी के 1734 ई० में एक पुत्र हुआ। उसका नाम शमशेर बहादुर रखा गया। बाजीराव ने काल्पी और बाँदा की सूबेदारी उसे दी, शमशेर बहादुर ने पेशवा परिवार की बड़े लगन और परिश्रम से सेवा की। 1761 ई० में शमशेर बहादुर मराठों की ओर से लड़ते हुए पानीपत के मैदान में मारा गया।
1739 ई० के आरंभ में पेशवा बाजीराव और मस्तानी का संबंध विच्छेद कराने के असफल प्रयत्न किए गए। 1739 ई० के अंतिम दिनों में बाजीराव को आवश्यक कार्य से पूना छोड़ना पड़ा। मस्तानी पेशवा के साथ न जा सकी। चिमाजी अप्पा और नाना साहब ने मस्तानी के प्रति कठोर योजना बनाई। उन्होंने मस्तानी को पर्वती बाग में (पूना में) कैद किया। बाजीराव को जब यह समाचार मिला, वे अत्यंत दु:खित हुए। वे बीमार पड़ गए। इसी बीच अवसर पा मस्तानी कैद से बचकर बाजीराव के पास 4 नवम्बर 1739 ई० को पटास पहुँची। बाजीराव निश्चिंत हुए पर यह स्थिति अधिक दिनों तक न रह सकी। शीघ्र ही पुरंदरे, काका मोरशेट तथा अन्य व्यक्ति पटास पहुँचे। उनके साथ पेशवा बाजीराव की माँ राधाबाई और उनकी पत्नी काशीबाई भी वहाँ पहुँची। उन्होंने मस्तानी को समझा बुझाकर लाना आवश्यक समझा। मस्तानी पूना लौटी। १७४० ई० के आरंभ में बाजीराव नासिरजंग से लड़ने के लिए निकल पड़े और गोदावरी नदी को पारकर शत्रु को हरा दिया। बाजीराव बीमार बड़े और 28 अप्रैल 1740 को उनकी मृत्यु हो गई।
मस्तानी बाजीराव की मृत्यु का समाचार पाकर बहुत दु:खित हुई और उसके बाद अधिक दिनों तक जीवित न रह सकी। आज भी पूना से २० मील दूर पाबल गाँव में मस्तानी का मकबरा उनके त्याग दृढ़ता तथा अटूट प्रेम का स्मरण दिलाता है।
बाजीराव के निरंतर अभियानों के परिणामस्वरूप निस्संदेह, मराठा शासन को अत्याधिक भार वहन करना पड़ा, मराठा साम्राज्य सीमतीत विस्तृत होने के कारण असंगठित रह गया, मराठा संघ में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ प्रस्फुटित हुई, तथा मराठा सेनाएँ विजित प्रदेशों में असंतुष्टिकारक प्रमाणित हुई; तथापि बाजीराव की लौह लेखनी ने निश्चय ही महाराष्ट्रीय इतिहास का गौरवपूर्ण परिच्छेद रचा।

Friday, December 18, 2015

हार की जीत (कथा-कहानी) : रचनाकार: सुदर्शन | Sudershan

माँ को अपने बेटे और किसान को अपने लहलहाते खेत देखकर जो आनंद आता है, वही आनंद बाबा भारती को अपना घोड़ा देखकर आता था। भगवद्-भजन से जो समय बचता, वह घोड़े को अर्पण हो जाता। वह घोड़ा बड़ा सुंदर था, बड़ा बलवान। उसके जोड़ का घोड़ा सारे इलाके में न था। बाबा भारती उसे 'सुल्तान' कह कर पुकारते, अपने हाथ से खरहरा करते, खुद दाना खिलाते और देख-देखकर प्रसन्न होते थे। उन्होंने रूपया, माल, असबाब, ज़मीन आदि अपना सब-कुछ छोड़ दिया था, यहाँ तक कि उन्हें नगर के जीवन से भी घृणा थी। अब गाँव से बाहर एक छोटे-से मन्दिर में रहते और भगवान का भजन करते थे। "मैं सुलतान के बिना नहीं रह सकूँगा", उन्हें ऐसी भ्रान्ति सी हो गई थी। वे उसकी चाल पर लट्टू थे। कहते, "ऐसे चलता है जैसे मोर घटा को देखकर नाच रहा हो।" जब तक संध्या समय सुलतान पर चढ़कर आठ-दस मील का चक्कर न लगा लेते, उन्हें चैन न आता।
खड़गसिंह उस इलाके का प्रसिद्ध डाकू था। लोग उसका नाम सुनकर काँपते थे। होते-होते सुल्तान की कीर्ति उसके कानों तक भी पहुँची। उसका हृदय उसे देखने के लिए अधीर हो उठा। वह एक दिन दोपहर के समय बाबा भारती के पास पहुँचा और नमस्कार करके बैठ गया। बाबा भारती ने पूछा, "खडगसिंह, क्या हाल है?"
खडगसिंह ने सिर झुकाकर उत्तर दिया, "आपकी दया है।"
"कहो, इधर कैसे आ गए?"
"सुलतान की चाह खींच लाई।"
"विचित्र जानवर है। देखोगे तो प्रसन्न हो जाओगे।"
"मैंने भी बड़ी प्रशंसा सुनी है।"
"उसकी चाल तुम्हारा मन मोह लेगी!"
"कहते हैं देखने में भी बहुत सुँदर है।"
"क्या कहना! जो उसे एक बार देख लेता है, उसके हृदय पर उसकी छवि अंकित हो जाती है।"
"बहुत दिनों से अभिलाषा थी, आज उपस्थित हो सका हूँ।"
बाबा भारती और खड़गसिंह अस्तबल में पहुँचे। बाबा ने घोड़ा दिखाया घमंड से, खड़गसिंह ने देखा आश्चर्य से। उसने सैंकड़ो घोड़े देखे थे, परन्तु ऐसा बाँका घोड़ा उसकी आँखों से कभी न गुजरा था। सोचने लगा, भाग्य की बात है। ऐसा घोड़ा खड़गसिंह के पास होना चाहिए था। इस साधु को ऐसी चीज़ों से क्या लाभ? कुछ देर तक आश्चर्य से चुपचाप खड़ा रहा। इसके पश्चात् उसके हृदय में हलचल होने लगी। बालकों की-सी अधीरता से बोला, "परंतु बाबाजी, इसकी चाल न देखी तो क्या?"
दूसरे के मुख से सुनने के लिए उनका हृदय अधीर हो गया। घोड़े को खोलकर बाहर गए। घोड़ा वायु-वेग से उडने लगा। उसकी चाल को देखकर खड़गसिंह के हृदय पर साँप लोट गया। वह डाकू था और जो वस्तु उसे पसंद आ जाए उस पर वह अपना अधिकार समझता था। उसके पास बाहुबल था और आदमी भी। जाते-जाते उसने कहा, "बाबाजी, मैं यह घोड़ा आपके पास न रहने दूँगा।"
बाबा भारती डर गए। अब उन्हें रात को नींद न आती। सारी रात अस्तबल की रखवाली में कटने लगी। प्रति क्षण खड़गसिंह का भय लगा रहता, परंतु कई मास बीत गए और वह न आया। यहाँ तक कि बाबा भारती कुछ असावधान हो गए और इस भय को स्वप्न के भय की नाईं मिथ्या समझने लगे। संध्या का समय था। बाबा भारती सुल्तान की पीठ पर सवार होकर घूमने जा रहे थे। इस समय उनकी आँखों में चमक थी, मुख पर प्रसन्नता। कभी घोड़े के शरीर को देखते, कभी उसके रंग को और मन में फूले न समाते थे। सहसा एक ओर से आवाज़ आई, "ओ बाबा, इस कंगले की सुनते जाना।"
आवाज़ में करूणा थी। बाबा ने घोड़े को रोक लिया। देखा, एक अपाहिज वृक्ष की छाया में पड़ा कराह रहा है। बोले, "क्यों तुम्हें क्या कष्ट है?"
अपाहिज ने हाथ जोड़कर कहा, "बाबा, मैं दुखियारा हूँ। मुझ पर दया करो। रामावाला यहाँ से तीन मील है, मुझे वहाँ जाना है। घोड़े पर चढ़ा लो, परमात्मा भला करेगा।"
"वहाँ तुम्हारा कौन है?"
"दुगार्दत्त वैद्य का नाम आपने सुना होगा। मैं उनका सौतेला भाई हूँ।"
बाबा भारती ने घोड़े से उतरकर अपाहिज को घोड़े पर सवार किया और स्वयं उसकी लगाम पकड़कर धीरे-धीरे चलने लगे। सहसा उन्हें एक झटका-सा लगा और लगाम हाथ से छूट गई। उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने देखा कि अपाहिज घोड़े की पीठ पर तनकर बैठा है और घोड़े को दौड़ाए लिए जा रहा है। उनके मुख से भय, विस्मय और निराशा से मिली हुई चीख निकल गई। वह अपाहिज डाकू खड़गसिंह था।बाबा भारती कुछ देर तक चुप रहे और कुछ समय पश्चात् कुछ निश्चय करके पूरे बल से चिल्लाकर बोले, "ज़रा ठहर जाओ।"
खड़गसिंह ने यह आवाज़ सुनकर घोड़ा रोक लिया और उसकी गरदन पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, "बाबाजी, यह घोड़ा अब न दूँगा।"
"परंतु एक बात सुनते जाओ।" खड़गसिंह ठहर गया।
बाबा भारती ने निकट जाकर उसकी ओर ऐसी आँखों से देखा जैसे बकरा कसाई की ओर देखता है और कहा, "यह घोड़ा तुम्हारा हो चुका है। मैं तुमसे इसे वापस करने के लिए न कहूँगा। परंतु खड़गसिंह, केवल एक प्रार्थना करता हूँ। इसे अस्वीकार न करना, नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा।"
"बाबाजी, आज्ञा कीजिए। मैं आपका दास हूँ, केवल घोड़ा न दूँगा।"
"अब घोड़े का नाम न लो। मैं तुमसे इस विषय में कुछ न कहूँगा। मेरी प्रार्थना केवल यह है कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना।"
खड़गसिंह का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया। उसका विचार था कि उसे घोड़े को लेकर यहाँ से भागना पड़ेगा, परंतु बाबा भारती ने स्वयं उसे कहा कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना। इससे क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है? खड़गसिंह ने बहुत सोचा, बहुत सिर मारा, परंतु कुछ समझ न सका। हारकर उसने अपनी आँखें बाबा भारती के मुख पर गड़ा दीं और पूछा, "बाबाजी इसमें आपको क्या डर है?"
सुनकर बाबा भारती ने उत्तर दिया, "लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन-दुखियों पर विश्वास न करेंगे।" यह कहते-कहते उन्होंने सुल्तान की ओर से इस तरह मुँह मोड़ लिया जैसे उनका उससे कभी कोई संबंध ही नहीं रहा हो।
बाबा भारती चले गए। परंतु उनके शब्द खड़गसिंह के कानों में उसी प्रकार गूँज रहे थे। सोचता था, कैसे ऊँचे विचार हैं, कैसा पवित्र भाव है! उन्हें इस घोड़े से प्रेम था, इसे देखकर उनका मुख फूल की नाईं खिल जाता था। कहते थे, "इसके बिना मैं रह न सकूँगा।" इसकी रखवाली में वे कई रात सोए नहीं। भजन-भक्ति न कर रखवाली करते रहे। परंतु आज उनके मुख पर दुख की रेखा तक दिखाई न पड़ती थी। उन्हें केवल यह ख्याल था कि कहीं लोग दीन-दुखियों पर विश्वास करना न छोड़ दे। ऐसा मनुष्य, मनुष्य नहीं देवता है।
रात्रि के अंधकार में खड़गसिंह बाबा भारती के मंदिर पहुँचा। चारों ओर सन्नाटा था। आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे। थोड़ी दूर पर गाँवों के कुत्ते भौंक रहे थे। मंदिर के अंदर कोई शब्द सुनाई न देता था। खड़गसिंह सुल्तान की बाग पकड़े हुए था। वह धीरे-धीरे अस्तबल के फाटक पर पहुँचा। फाटक खुला पड़ा था। किसी समय वहाँ बाबा भारती स्वयं लाठी लेकर पहरा देते थे, परंतु आज उन्हें किसी चोरी, किसी डाके का भय न था। खड़गसिंह ने आगे बढ़कर सुलतान को उसके स्थान पर बाँध दिया और बाहर निकलकर सावधानी से फाटक बंद कर दिया। इस समय उसकी आँखों में नेकी के आँसू थे। रात्रि का तीसरा पहर बीत चुका था। चौथा पहर आरंभ होते ही बाबा भारती ने अपनी कुटिया से बाहर निकल ठंडे जल से स्नान किया। उसके पश्चात्, इस प्रकार जैसे कोई स्वप्न में चल रहा हो, उनके पाँव अस्तबल की ओर बढ़े। परंतु फाटक पर पहुँचकर उनको अपनी भूल प्रतीत हुई। साथ ही घोर निराशा ने पाँव को मन-मन भर का भारी बना दिया। वे वहीं रूक गए। घोड़े ने अपने स्वामी के पाँवों की चाप को पहचान लिया और ज़ोर से हिनहिनाया। अब बाबा भारती आश्चर्य और प्रसन्नता से दौड़ते हुए अंदर घुसे और अपने प्यारे घोड़े के गले से लिपटकर इस प्रकार रोने लगे मानो कोई पिता बहुत दिन से बिछड़े हुए पुत्र से मिल रहा हो। बार-बार उसकी पीठपर हाथ फेरते, बार-बार उसके मुँह पर थपकियाँ देते। फिर वे संतोष से बोले, "अब कोई दीन-दुखियों से मुँह न मोड़ेगा।"

Wednesday, December 16, 2015

निर्भया : 2012 की राजधानी दिल्ली का युवती से निर्शंस मामला: Nirbhaya .


भारत की राजधानी नई दिल्ली में भौतिक चिकित्सा की प्रशिक्षण कर रही एक युवती पर दक्षिण दिल्ली में लिफ्ट देकर बस में सफर के दौरान 16 दिसम्बर 2012 की रात में बस के ड्राइवर, कंडक्टर एवं अन्य दो ने उस युवती और उसके मित्र के साथ अभद्र व्यवहार शुरू की और जब दोनों ने इसका विरोध किया तो उन्हें बुरी तरह पीटा गया। जब उसका पुरुष दोस्त बेहोश हो गया तो उस युवती के साथ उन ने बलात्कार करने की कोशिश की। उस युवती ने उनका डटकर विरोध किया परन्तु जब वह संघर्ष करते-करते थक गयी तो उन्होंने पहले तो उससे बेहोशी की हालत में बलात्कार करने की कोशिश की परन्तु सफल न होने पर उसके साथ वीभत्स और निर्शंस व्यवहार किया गया। बाद में वे सभी उन दोनों को एक निर्जन स्थान पर बस से नीचे फेंककर भाग गये। किसी तरह उन्हें दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल ले जाया गया। वहाँ बलात्कृत युवती की शल्य चिकित्सा की गयी। परन्तु हालत में कोई सुधार न होता देख उसे 26 दिसम्बर 2012 को सिंगापुर के माउन्ट एलिजाबेथ अस्पताल ले जाया गया जहाँ उस युवती की 29 दिसम्बर 2012 को दुखद मृत्यु हो गयी।
घटना के विरोध में अगले ही दिन कई लोगों ने सोशल नेटवर्किंग साइट्स फेसबुक और ट्विटर के जरिए अपना गुस्सा ज़ाहिर करना शुरु किया। दिल्ली पुलिस ने कहा कि बस के ड्राइवर को सोमवार देर रात गिरफ्तार कर लिया और उसका नाम राम सिंह बताया गया। सामूहिक बलात्कार की घटना के क़रीब दो दिन बाद दिल्ली पुलिस आयुक्त नीरज कुमार ने मीडिया को संबोधित किया और जानकारी दी कि इस मामले में चार अभियुक्तों को गिरफ़्तार कर लिया गया है।
ड्राइवर राम सिंह ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया और उसकी निशानदेही पर उसके भाई मुकेश, एक जिम इंस्ट्रक्टर विनय गुप्ता और फल बेचने वाले पवन गुप्ता को गिरफ़्तार किया गया।
मंगलवार 18 दिसम्बर को इस मामले की गूंज संसद में सुनाई पड़ी जहां आक्रोशित सांसदों ने बलात्कारियों के लिए मृत्युदंड की मांग की। गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने संसद को आश्वासन दिलाया कि राजधानी में महिलाओं की सुरक्षा के लिए सभी ज़रूरी कदम उठाए जाएंगे।
सड़कों और सोशल मीडिया से उठी आवाज़ संसद के रास्ते सड़कों पर पहले से कहीं अधिक बुलंद आवाज के साथ सड़कों पर उतरी और दिल्ली में जगह-जगह प्रदर्शन होने लगे।
दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कहा कि उनमें इतनी हिम्मत नहीं कि वो अस्पताल जाकर बस में बर्बर सामूहिक बलात्कार की शिकार हुई उस पीड़ित लड़की को देखने जा सकें। हालांकि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सफदरजंग अस्पताल जाकर पीड़ित लड़की का हालचाल जाना। शीला दीक्षित ने ये भी कहा कि ज़रूरत पड़ने पर पीड़ित लड़की को इलाज के लिए विदेश ले जाया जाएगा।
दिल्ली पुलिस ने दावा किया कि उसने इस मामले में सभी अभियुक्तों को गिरफ्तार कर लिया है। लेकिन इससे आम लोगों का आक्रोश कम नहीं हुआ और शनिवार को रायसीना हिल्स पर हज़ारों लोग एकजुट हुए जिन्हें पुलिस ने तितर-बितर करने के लिए बल-प्रयोग किया।
शनिवार की घटना से सबक लेते हुए दिल्ली पुलिस ने रविवार के लिए पहले से ही तैयारी कर रखी थी और निषेधाज्ञा लगाकर रोकने की कोशिश की। कड़कड़ाती सर्दी और कुछ मेट्रो स्टेशनों के बंद होने के बाद भी लोग रविवार को बड़ी संख्या में एक बार फिर इंडिया गेट पर जुटे। पुलिस ने एक बार फिर बल प्रयोग करके प्रदर्शनकारियों के हटाने का प्रयास किया लेकिन विरोध का सिलसिला जारी रहा।
11 मार्च 2013 राम सिंह नामक मुख्य आरोपी ने सुबह तिहाड़ जेल में आत्म-हत्या कर लिया।हालाँकि राम सिंह के परिवार वालों तथा उसके वकील का मानना है की उसकी जेल में हत्या की गयी है।
14 सितम्बर 2013 को इस मामले के लिये विशेष तौर पर गठित त्वरित अदालत ने चारो वयस्क दोषियों को फाँसी की सज़ा सुनायी।पांचवें नाबालिग आरोपी को मामूली सजा सुनाई गयी जबकि मृतका के माता -पिता का मानना है सबसे वीभत्स कुकर्म उसी ने किया और सर्वोच्च न्यायलय में गुहार लगायी है।

Tuesday, December 15, 2015

स्व भुवनेश्वरी प्रसाद मंडल की पुण्यतिथि 15 December, 1948

दादाजी स्व भुवनेश्वरी प्रसाद मंडल की पुण्यतिथि 15 December, 1948 :
महान स्वतंत्रता सेनानी व देशभक्त, बिहार कांग्रेस के संस्थापक नेता, सामाजिक न्याय के प्रणेता, यादव शिरोमणि, मुरहो एस्टेट के ज़मींदार स्व रासबिहारी लाल मंडल के ज्येष्ठ पुत्र 1924 में बिहार उड़ीसा विधान परिषद में चुने गए तथा अपने मृत्यु 1948 तक भागलपुर लोकल बोर्ड के चेयरमैन बाबू भुवनेश्वरी प्रसाद मंडल थे, जिनसे छोटे दो भाई 1937 में निर्वाचित बिहार विधान परिषद के सदस्य स्व कमलेश्वरी प्रसाद मंडल व बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री व पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष स्व बीपी मंडल थे।
बाबू भुवनेश्वरी प्रसाद मंडल की मृत्यु मधेपुरा स्थित अपने आवास "भुवनेश्वरी हवेली", वार्ड संख्या 18 पर 15 दिसंबर 1948 को हुई। वे अपनी डायरी लिखते थे, जिसमें श्री हनुमान जी / बजरंगबली जी को "महावीर स्वामी" लिखते थे। आखिर समय पर उनके बड़े पुत्र पटना हाई कोर्ट के जज जस्टिस राजेश्वर प्रसाद मंडल ने उनके बीमार हालत के बारे में लिखे हैं। फिर 15 दिसंबर को मझले पुत्र पूर्व विधायक स्व श्री सुरेश चन्द्र यादव ने उनके मृत्यु के बारे में लिखे हैं। छोटे पुत्र स्व रमेश चन्द्र यादव उस समय सिर्फ 7 - 8 वर्ष के थे।
Pages of Diary :
29 नवम्बर,1948, सोमवार :
From Madhipura at 6 A.M. to Baijnathpur 10A.M. with Sumrit to Mansi to Bihpur to Bhagalpur 11 P.M..
Halt at Mundichak Lodge."
मधेपुरा से 6 बजे प्रातः बैजनाथपुर के लिए सुमरित (उनका निजी स्टाफ) के साथ प्रस्थान, फिर मानसी से बिहपुर से भागलपुर 11 बजे रात्रि को पहुंचे। वहां मुंदीचक में अपने निज आवास ( 2 तल्ले की हवेली थी, जिसे बासा कहते थे) पर आराम।
30 नवम्बर, 1948, मंगलवार :
Mundichak, Bhagalpur : Attended District Board Meeting.
Suresh to (TNB) College. Halt at Mundichak Lodge.
मुंदीचक, भागलपुर : जिला परिषद की बैठक में शरीक हुआ।
सुरेश (द्वितीय पुत्र) को कॉलेज (टीएनबी कॉलेज) भेजा। रात्रि विश्राम मुंदीचक बासा पर।
Mundichak, Bhagalpur : Sent Sumrita to College to see and give Ghee to Suresh. Weather bad. Feeling feverish.
मुंदीचक, भागलपुर : सुमरित को सुरेश को देखने व घी देने के लिए कॉलेज भेजा। मौसम ख़राब। बुखार जैसा लग रहा है।
11 दिसंबर, 1948, शनिवार :
"I reached Madhipura at about 11 P.M. I saw father lying. He saw me and bowed his head towards Lord Shiva, whose photo was hanging just beside his bed.
- Rajeshwar."
" मैं लगभग 11 बजे रात्रि को मधेपुरा पहुंचा। मैंने देखा की पिताजी लेते हुए थे। वे मुझे देखे और उनके बिस्तर के ठीक बगल में टंगे भगवान शिव जी के फोटो की ओर अपना शीश नवाए।
- राजेश्वर। "
15 दिसंबर, 1948 बुधवार।
"Father expired today at 12-47 A.M. and left us in the vast ocean of sorrow.
:-Suresh."
"पिताजी आज 12-47 प्रातः को मृत्यु को प्राप्त हो गए और हमें दुःख के अथाह सागर में छोड़ गए।
:-सुरेश। "
"The End".
"इतिश्री" .

Sunday, December 13, 2015

बाबू कमलेश्वरी प्रसाद यादव : सदस्य, भारत का संविधान सभा (1946).

बाबू कमलेश्वरी प्रसाद यादव,

द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद जुलाई 1945 में ब्रिटेन में एक नयी सरकार बनी। इस नयी सरकार ने भारत संबन्धी अपनी नई नीति की घोषणा की तथा एक संविधान निर्माण करने वाली समिति बनाने का निर्णय लिया। भारत की आज़ादी के सवाल का हल निकालने के लिए ब्रिटिश कैबिनेट के तीन मंत्री भारत भेजे गए। मंत्रियों के इस दल को कैबिनेट मिशन के नाम से जाना जाता है। 15 अगस्त 1947 को भारत के आज़ाद हो जाने के बाद यह संविधान सभा पूर्णतः प्रभुतासंपन्न हो गई। इस सभा ने अपना कार्य 9 दिसम्बर 1947 से आरम्भ कर दिया। संविधान सभा के सदस्य भारत के राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के द्वारा चुने गए थे।
भारत की संविधान सभा का चुनाव भारतीय संविधान की रचना के लिए किया गया था। ग्रेट ब्रिटेन से स्वतंत्र होने के बाद संविधान सभा के सदस्य ही प्रथम संसद के सदस्य बने।जवाहरलाल नेहरू, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि इस सभा के प्रमुख सदस्य थे। अनुसूचित वर्गों से 30 से ज्यादा सदस्य इस सभा में शामिल थे। सच्चिदानन्द सिन्हा इस सभा के प्रथम सभापति थे। किन्तु बाद में डॉ राजेन्द्र प्रसाद को सभापति निर्वाचित किया गया। भीमराव रामजी आंबेडकर को निर्मात्री सिमित का अध्यक्ष चुना गया था। संविधान सभा ने 2 वर्ष, 11 माह, 19 दिन में कुल 166 दिन बैठक की। इसकी बैठकों में प्रेस और जनता को भाग लेने की स्वतन्त्रता थी।
बिहार से निर्वाचित सदस्यों में अमियो कुमार घोष, अनुग्रह नारायण सिन्हा, बनारसी प्रसाद झुनझुनवाला, भागवत प्रसाद, बोनिफेस लाकड़ा, ब्रजेश्वर प्रसाद, चंडिका राम, लालकृष्ण टी. शाह, देवेंद्र नाथ सामंत, डुबकी नारायण सिन्हा, गोपीनाथ सिंह, जदुबंस सहाय, जगत नारायण लाल, जगजीवन राम, जयपाल सिंह, दरभंगा के कामेश्वर सिंह, महेश प्रसाद सिन्हा, कृष्ण वल्लभ सहाय, रघुनंदन प्रसाद, राजेन्द्र प्रसाद, रामेश्वर प्रसाद सिन्हा, रामनारायण सिंह, सच्चिदानंद सिन्हा, सारंगधर सिन्हा, सत्यनारायण सिन्हा, बिनोदानन्द झा, पी. लालकृष्ण सेन, श्रीकृष्ण सिंह, श्री नारायण महथा, श्यामानन्द सहाय, हुसैन इमाम, सैयद जफर इमाम, लतीफुर रहमान, मोहम्मद ताहिर, ताजमुल हुसैन, चौधरी आबिद हुसैन, पंडित हरगोविन्द मिश्रा.सहित मधेपुरा के कमलेश्वरी प्रसाद यादव थे।
कमलेश्वरी बाबू चतरा (मधेपुरा) के जमींदार श्री राम लाल मंडल के पुत्र थे जिनका परिवार मधेपुरा के प्रतिष्ठित परिवारों में था।
कमलेश्वरी बाबू के ताऊ (बड़े बाबूजी) श्री राम लाल मंडल के बड़े भाई श्री संत लाल मंडल का विवाह कुमारखंड के पास कोरलाही - सुखसान के श्री गर्जुमन यादव की बहन यशोदा देवी से हुआ था। यशोदा देवी की बड़ी बहन श्रीमति सुमित्रा देवी का विवाह मुरहो एस्टेट के बाबू भुवनेश्वरी प्रसाद मंडल, ज्येष्ठ पुत्र बाबू रासबिहारी लाल मंडल से हुआ था।
बाबू कमलेश्वरी प्रसाद यादव संविधान सभा के लिए खगडिया क्षेत्र से निर्वाचित हुए थे। इस चुनाव में निर्वाचित होने के बाद संविधान सभा के सभी बैठकों में महत्वपूर्ण सुझाओं के साथ शामिल हुए और उनके भाषण प्रोसीडिंग्स में शामिल हैं। फिर चुकी यह सभा आज़ाद भारत के संसद के तौर पर मान लिया गया, तो बतौर मधेपुरा -खगडिया क्षेत्र का प्रतिनिधित्व उन्होंने बखूबी किया।
1952 के बिहार विधान सभा चुनाव में कमलेश्वरी बाबू उदा-किशनगंज क्षेत्र से विधायक बने और क्षेत्र के समस्याओं को पूरी जिम्मेदारी के साथ उठाये। इस समय 1952 में मधेपुरा के विधायक मुरहो एस्टेट के यादव शिरोमणि स्व रासबिहारी लाल मंडल के सबसे छोटे सुपुत्र स्व बी पी मंडल थे।
कमलेश्वरी बाबू फिर 1972 में भी निर्वाचित हुए।
बाबू कमलेश्वरी प्रसाद यादव पटना विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र (Political Science) और बी एच यू (बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय) से हिंदी में डबल एम ए किए थे। वे पटना विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री भी प्राप्त किए थे।
पहले ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय और अब बी एन मंडल विश्वविद्यालय से मुरलीगंज (मधेपुरा) के पास कमलेश्वरी प्रसाद कॉलेज (www.kpcollege.co.in) आज भी शिक्षा से उनकी स्मृति के जुड़ाव को दर्शाता है।
1902 के लगभग में जन्म लिए बाबू कमलेश्वरी प्रसाद मंडल की मृत्यु 15 नवम्बर, 1989 को हुई।
उनका पुत्र श्री अभय कुमार यादव चतरा - मधेपुरा के राजनैतिक - सामाजिक जीवन में सक्रीय हैं।