जिस `मेरिट` की धार से अक्सर सामाजिक न्याय के सिद्धांत को काटा जाता है, और जिसे आम तौर पर पत्रकारों का भरपूर समर्थन भी मिलता रहा है, उसी तलवार से लगभग 300 पत्रकारों को नौकरी से निकालने का अन्याय किया गया है और नेता- जनता, पक्ष-विपक्ष चुप है। चिढाने के लिए अजय माकन जैसे कांग्रेस के नेता घरियाली आंसू बहते हुए ट्वीट करते हैं - Regular mtng with journos in my room at AICC.Sad not to see many regular faces.They were frm TV18.Good hardworking journos.Feel bad for them; और दिखाते हैं कि सरकार में रहते हुए भी वे कॉर्पोरेट के आगे कितने बेबस हैं।
दरअसल एक-दो दिन पूर्व टीवी 18 ब्रॉडकास्ट, सीएनएन-आईबीएन, आईबीएन 7 से करीब 300 स्टाफ-कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया गया है। नौकरी से निकाले गए में कुछ वरिष्ट पत्रकार और एंकर भी शामिल हैं। खबर है की और छटनी होने की आशंका है। टीवी 18 NBC Universal और मुंबई में आधारित नेटवर्क 18 समूह के बीच भारत में 50/50 के आधार पर संयुक्त उद्यम आपरेशन है।
तो जब यह समाचार चल रहा था ... ''ब्लडबॉथ इन दलाल स्ट्रीट... ब्लैक फ्राइडे...'' तो उससे भी बुरा हाल हो था सीएनबीसी आवाज टीवी चैनल में काम करने वाले कर्मचारियों का।
ध्यान देने की बात है कि हर अन्याय का विरोध करने वाले प्रेस में काम करने वाले पत्रकारों की ओर से कोई खास विरोध नहीं हुआ है। कारण स्पष्ट है की अधिकांश मीडिया कॉर्पोरेट के हाथों में है। और भारत में कानून कॉर्पोरेट पर लागू नहीं होता, बल्कि कॉर्पोरेट के लिए कानून बनते हैं। उदाहरण के रूप में जो सरकार मानती है की मार्केट फोर्सेज (बाजारी ताक़तों) पर देश को छोड़ देना चाहिए, वह सरकार गैरकानूनी और असंवैधानिक तरीके से मीडिया की भरपूर कमाई और लोगों के पॉकेट से जबरन रुपये निकालने के लिए अनिवार्य सेट टॉप बॉक्स का कानून बना कर लागू कर दिया और पक्ष-विपक्ष मेज थप-थपाते रह गए। तो क्या पत्रकारों के हक के लिए कोई कानून नहीं बन सकता है? खास तौर से जब एक कांग्रेसी कॉर्पोरेट सांसद नवीन जिन्दल के कोयला घोटाले में भूमिका के उजागर को रोकने के लिए जी ग्रुप के चेयरमैन सहित अन्य पत्रकारों पर मुक़दमा ठोक दिया गया और जलील किया गया।
और रेगुलेटर के दौर में, क्या मीडिया रेगुलेटर को पत्रकारों के हित की रक्षा का भार सौंपा नहीं जा सकता है। इस सरकार ने, या यूं कहें की NDA सरकार के समय से, शासन का भर रेगुलेटर को दिया जा रहा है। तो फोन का रेट टेलिकॉम रेगुलेटर तय करेगा, रेल भाडा और बाद में रेलकर्मियों का वेतन आदि रेगुलेटर तय करेंगे। तो मंत्री और मंत्रालयों का क्या काम? जनता का धन दो सत्ता के केन्द्रों पर क्यों खर्च हो? क्यों नहीं PM और रेगुलेटर सभी कुछ तय करें और कॉर्पोरेट संसद की सदस्यता को नीलामी से प्राप्त कर लें। खैर यह अलग मुद्दा है।
पत्रकारों का असल शोषण और दोहन तो छोटे स्तर पर होता है। हिंदुस्तान जैसे अख़बार का एक संवाददाता को 4-5 हज़ार रुपये और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार के समाचार पर सौ-दो सौ रुपये देकर उन्हें मजबूर किया जाता है की वे अपने व्यवसाय के साथ धोखा करे या उसकी बोली लगवाएं। क्या वरिष्ठ पत्रकारों का इनके लिए कोई कर्त्यव्य नहीं है?
इतने पत्रकारों के साथ हुए अन्याय पर हर बात पर बोलने वाले प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया के अध्यक्ष जस्टिस काटजू कहा चुप हैं? जिस सिद्दत से वे नरेन्द्र मोदी की कमियां गिनातें हैं, इस विषय पर वे उसी सिद्दत से क्यों नहीं सरकार पर दवाब बनाते हैं?
तो दिक्कत निजीकरण की निति में ही है और सरकार के अप्रभावी और कॉर्पोरेट के रखैल बनने में ही है। मैं आव्हान करता हूँ अपने पत्रकार साथियों से जहाँ भी मुझ जैसे छोटे कार्यकर्त्ता भी अगर कॉर्पोरेट के दखलंदाज़ी का विरोध करें, तो ज़रूर साथ दें।
और मैं अपने पत्रकार साथियों से यह भी कहना चाहूँगा की इस अन्याय का विरोध ज़रूर करें और हम जैसे कार्यकर्ता आपके साथ हैं। हम विपक्ष से, और खास तौर से श्री नरेन्द्र मोदी से, अपील करते हैं की इस अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठायें।
जय हिन्द।
No comments:
Post a Comment