

भारतीय सैनिकों ने वीरतापूर्वक चीनी सेना का सामना किया, किंतु राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व की अक्षमता के कारण सैनिकों की बहादुरी व्यर्थ चली गई। हार के कारणों को जानने के लिए भारत सरकार ने युद्ध के तत्काल बाद ले. जनरल हेंडरसन ब्रुक्स और इंडियन मिलिट्री एकेडमी के तत्कालीन कमानडेंट ब्रिगेडियर पी एस भगत के नेतृत्व में एक समिति बनाई थी। दोनों सैन्य अधिकारियो द्वारा सौंपी गई रिपोर्ट को भारत सरकार अभी भी इसे गुप्त रिपोर्ट मानती है। दोनों अधिकारियों ने अपनी रिपोर्ट में हार के लिए प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को जिम्मेदार ठहराया था। साथ ही इस हार के जिम्मेदार रक्षा मंत्री वी के कृष्णमेनन और दूसरा नाम लेफ़्टिनेंट जनरल बीएम कौल का है, जिन पर कृष्ण मेनन की छत्रछाया थी। लेफ़्टिनेंट जनरल बीएम कौल को पूर्वोत्तर के पूरे युद्धक्षेत्र का कमांडर बनाया गया था। उस समय वो पूर्वोत्तर फ्रंटियर कहलाता था और अब इसे अरुणाचल प्रदेश कहा जाता है। बीएम कौल सैनिक नौकरशाह थे, लेकिन उन्हें युद्ध का कोई अनुभव नहीं था।
एक और प्रकरण जानने की ज़रुरत है। 1962 में चीन के हाथों हमारी हार का भारत ने पांच साल बाद बदला लिया। वो भी दो बार दो अलग अलग मोर्चों पर, पहले नाथुला मोर्चे की विजयगाथा।
भारत और चीन के बीच करीब 4 हजार किलोमीटर लंबी लाईन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल यानी एलएसी पर 1967 में भारतीय सेना ने चीन को मुंहतोड़ जवाब दिया था, वो जगह थी भारत चीन सीमा पर मौजूद ना-थुला पास। 11 सितंबर साल 1967 दोनों देशों की सेनाएं एक दूसरे के सामने आ गई थीं। चीन की सेना बाकायदा लाउडस्पीकर पर भारत की सेना को पीछे हटने की धमकी दिया करती थी कि पीछे हटो वरना 1962 की तरह कुचल दिया जाएगा। यही नहीं चीनियों ने भारतीय सीमा में घुसकर बंकर बनाने की कोशिश भी की थी।
चीन की इन हरकतों को रोकने के लिए 1967 में नाथुला पास पर तैनात मेजर जनरल सगत राय की अगुवाई में कंटीली बाड़ लगाने का फैसला किया। आज भी इस बाड़ के हिस्से ज्यों के त्यों मौजूद हैं। कंटीली बाड़ को लेकर खूनी लड़ाई तब शुरू हुई तब जुबानी झड़प के बाद चीन ने बाड़ लगा रही भारतीय सेना पर हमला कर दिया। बाड़ लगाने में जुटे इंजीनिरिंग यूनिट समेत भारतीय सेना के 67 जवान मारे गए।
1967 के चीनी हमले के बाद भारतीय सेना का खून खौल उठा। जवाबी हमला शुरू हुआ और चीन की मशीनगन यूनिट को पूरी तरह तबाह कर दिया गया।
1967 की उस लड़ाई में शहीद हुए भारतीय सैनिकों के लिए यहां अमर जवान स्मारक बनाया गया है। तब से इस इलाके में चीन ने कभी ना तो घुसपैठ की कोशिश की और ना ही भारतीय सेना से टकराने की हिम्मत की। यहां आज भी 48 साल पुराने हालात की तरह ही चौकियां मौजूद हैं जिनके बीच सिर्फ चंद कदमों का फासला है।
नाथुला में मुंह की खाने के सिर्फ 15 दिन बाद एक और जंग हुई पास के ही चोला इलाके में।
भारत चीन सीमा में नाथुला के पास ही है चोला इलाका जहां पिछले साल बनाया गया है चोला विजय का स्मारक। यहां दर्ज है चोला की विजयगाथा। यहाँ एक लाल रंग का पत्थर है जिस पर कब्जे को लेकर भारत और चीन में बारूदी जंग शुरू हुई थी।
यहां दर्ज भारत की जीत की कहानी स्मारक की शक्ल में हमेशा के लिए अमर बना दिया गया है।
No comments:
Post a Comment