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New Delhi, NCR of Delhi, India
I am an Indian, a Yadav from (Madhepura) Bihar, a social and political activist, a College Professor at University of Delhi and a nationalist.,a fighter,dedicated to the cause of the downtrodden.....

Tuesday, December 10, 2013

संघ लोक सेवा आयोग की मनमानी और अभ्यर्थियों का जायज विरोध -


भारत के संविधान द्वारा स्थापित संघ लोक सेवा आयोग का एक महत्व्पूर्ण कार्य देश की प्रशासनिक व्यवस्था के लिए सिविल सेवा परीक्षा के द्वारा आईएस, आईपीएस, इनकम टैक्स अधिकारी आदि उच्च पदो पर नियुक्तियों की अनुशंसा करती है।

विगत एक-दो वर्षों से संघ लोक सेवा आयोग के काम काज पर लगातार प्रश्न-चिन्ह लग रहे हैं और नवन्युक्त एक-दो सदस्यों के क्रियाकलाप तो बहुत संदिग्ध है. देश के सर्वोच्च सेवा की नियुक्तिओं में धांधली से सिर्फ परीक्षार्थियों का मनोबल ही नहीं गिर रहा है, बल्कि देश के प्रशासन के भविष्व पर भी सवालिया निशान लग चुका है. अपनी गलतियों को छुपाने के लिए संघ लोक सेवा आयोग बेवजह गोपिनियता को अपना हथियार बनाते हैं, जिसे देश के सर्वोच्च न्यायलय द्वारा ख़ारिज किया जा चुका है।
संघ लोक सेवा आयोग, सिविल सेवा परीक्षा में बारबार परिवर्तन कर ग्रामीण और पिछड़े प्रतियोगियों के लिए बाधाएं उत्पन्न कर रहा है। सिविल सेवा की प्रारंभिक परीक्षा में 2011 से बदलाव किए जा चुके हैं। इसमें वैकल्पिक विषयों को खत्म किया जा चुका है। इस वर्ष भी सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे छात्रों की धड़कनें बढ़ी हुई हैं क्योंकि तय समय पर संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) ने इसका विज्ञापन नहीं निकाला है। इसलिए यह अटकलें लगाई जा रही हैं कि इस बार मुख्य परीक्षा में बदलाव का ऐलान हो सकता है।

ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों के प्रतियोगियों को परीक्षा का पैटर्न समझने में ही समय (उनका उम्र) निकल जाता है। जब तक वे परीक्षा के कायदे और बर्रेकियों को समझते हैं तब तक संघ लोक सेवा आयोग 'प्रतियोगिता के नियमों' को ही बदल देता है।(They change the rules of the game). इससे कम से कम ग्रामीण क्षेत्र के उम्मीदवारों का चयन हो पता है।

मौजूदा 26 वैकल्पिक विषयों को हटाकर सिर्फ दो प्रश्न पत्र रखे जाएं। ये दोनों प्रश्न पत्र कॉमन और वस्तुनिष्ठ होने चाहिए। पहला प्रश्न पत्र सामान्य अध्ययन एवं दूसरा उपरोक्त 26 विषयों का कॉमन प्रश्न पत्र होगा। इसके अलावा भाषा के प्रश्न पत्रों को पूर्ववत रखे जाने की संभावना है।

संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षा में अंग्रेजी के पर्चे को मेरिट में जोड़ने के खिलाफ राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी के सदस्यों ने लोकसभा में जमकर हंगामा किया।

इधर 9 दिसंबर, 2013 को दिल्ली में संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) के परीक्षा प्रारूप में बदलाव की मांग करते हुए सैकड़ों छात्रों ने संसद भवन के बाहर सोमवार को प्रदर्शन किया। इनका कहना था कि ''परीक्षा का प्रारूप भेदभावपूर्ण है। इसकी समीक्षा की जानी चाहिए।''

हम मांग करते हैं कि संघ लोक सेवा आयोग द्वारा परीक्षा प्रारूप में की गयी उलट फेर को तत्काल प्रभाव से निरस्त किया जाय और तब तक इससे प्रभावित अभियर्थियों को एक अतिरिक्त मौका दिया जाय। 2010 से किया गए परीक्षा पैटर्न में परिवर्तन कि जांच उच्च स्तरीय समिति द्वारा की जनि चाहिए जिसकी रिपोर्ट संसद के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
http://navbharattimes.indiatimes.com/photo/27165143.cms

Union Public Service Commission under scanner : Damaging prospects of Rural and Regional Candidates.



Union Public Service Commission damaging prospects of Rural and Regional Candidates.

Union Public Service Commission has been establishes by the Constitution of India, among other duties to hold Civil Services Examination for recruitment and appointment to highest posts including IAS, IPS, IRS etc.

However, during past 5 years the conduct of UPSC has been highly autocratic, partial and its decisions have been pointedly against candidates who come from rural areas, and have educational background in regional and Hindi mediums. The most important thing is that since 2010, UPSC has repeatedly changed the pattern of Examination without holding proper discussions, debate and with some hidden agenda which is obviously against the national interest and the common people, and ostensibly at the instance of the Coaching mafia.

It is a matter of concern that during this period there has been repeated protest by candidates on the authenticity, impartiality and transparency of results affecting the future of candidates as well as the nation`s administrative structure. There have been complaints on the functioning of Union Public Service Commission for past few years and the activities of one or two newly appointed members have been under scanner. The UPSC repeatedly takes refuge in the garb of 'Secrecy' to cover up its misdeeds, which has been summarily rejected by the highest Courts of the nation.
Then there was a furor in Lok Sabha on 15th March, 2013, after UPSC decided to make English compulsory and delete regional languages including Hindi as the medium of examination.

Now the candidates have protested on repeated change and demanded additional attempts. A hundred student activists and civil services aspirants were rounded up by police on Monday morning when they tried to march towards Parliament demanding changes in theUnion Public Services Commission examination pattern. Student organizations have demonstrated at Jantar Mantar demanding change in the UPSC examination format. The protestors were demanding three extra chances in the UPSC entrance examinations, a review of the examination pattern, and inclusion of certain subjects in the syllabus which were dropped this year.

The students demanded a three-year age limit relaxation be provided and that the government take steps to stop discrimination against candidates from regional and rural backgrounds.

We support the demand of the students and demand a high level Inquiry into the functioning of UPSC, basis of changes made and the role of controversial members of UPSC. Till the report is submitted UPSC should continue with the pre-2010 pattern and arrangements of Civil Service Examination.

Sunday, November 17, 2013

भारत रत्न :(Bharat Ratna)


भारत रत्न भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है। यह सम्मान राष्ट्रीय सेवा के लिए दिया जाता है। इन सेवाओं में कला, साहित्य, विज्ञान या सार्वजनिक सेवा शामिल है। 2011 से इसमें खेल भी जोड़ दिया गया। इस सम्मान की स्थापना २ जनवरी १९५४ में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री राजेंद्र प्रसाद द्वारा की गई थी। अन्य अलंकरणों के समान इस सम्मान को भी नाम के साथ पदवी के रूप में प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। प्रारम्भ में इस सम्मान को मरणोपरांत देने का प्रावधान नहीं था, यह प्रावधान १९५५ में बाद में जोड़ा गया। बाद में यह १० व्यक्तियों को मरणोपरांत प्रदान किया गया। एक वर्ष में अधिकतम तीन व्यक्तियों को ही भारत रत्न दिया जा सकता है।
अन्य प्रतिष्ठित पुरस्कारों में पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्मश्री,का नाम लिया जा सकता है ।

१९९२ में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को इस पुरस्कार से मरणोपरान्त सम्मानित किया गया था। लेकिन उनकी मृत्यु विवादित होने के कारण पुरस्कार के मरणोपरान्त स्वरूप को लेकर प्रश्न उठाया गया था। इसीलिए भारत सरकार ने यह पुरस्कार वापस ले लिया। यह पुरस्कार वापस लिये जाने का यह एकमेव उदाहरण है|

भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री श्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को जब भारत रत्न देने की बात आयी तो उन्होंने जोर देकर मना कर दिया, कारण कि जो लोग इसकी चयन समिति में रहे हों, उनको यह सम्मान नहीं दिया जाना चाहिये। बाद में १९९२ में उन्हें मरणोपरांत दिया गया।

मूल रूप में इस सम्मान के पदक का डिजाइन ३५ मिमि गोलाकार स्वर्ण मैडल था। जिसमें सामने सूर्य बना था, ऊपर हिन्दी में भारत रत्न लिखा था, और नीचे पुष्प हार था। और पीछे की तरफ़ राष्ट्रीय चिह्न और मोटो था। फिर इस पदक के डिज़ाइन को बदल कर तांबे के बने पीपल के पत्ते पर प्लेटिनम का चमकता सूर्य बना दिया गया। जिसके नीचे चाँदी में लिखा रहता है "भारत रत्न", और यह सफ़ेद फीते के साथ गले में पहना जाता है।



इन हस्तियों को मिला है भारत रत्न
क्रमांक नाम साल
1 चक्रवर्ती राजगोपालाचारी 1954
2 सी.वी. रमन 1954
3 सर्वपल्ली राधाकृष्णण 1954
4 भगवान दास 1955
5 एम. विसवेशरैय्या 1955
6 जवारहलाल नेहरू 1955
7 गोविंद वल्लभ पंत 1957
8 डी. केसव कर्वे 1958
9 बिधान चंद्र रॉय 1961
10 पुरुषोत्तम दास टंडन 1961
11 राजेंद्र प्रसाद 1962
12 जाकिर हुसैन 1963
13 पांडुरंग वामन काने 1963
14 लाल बहादुर शास्त्री 1966
15 इंदिरा गांधी 1971
16 वी.वी. गिरी 1975
17 के. कामराज 1976
18 मदर टेरेसा 1980
19 विनोवा भावे 1983
20 खान अब्दुल गफ्फार खान 1987
21 एम.जी. रामचंद्रन 1988
22 बी.आर. अंबेडकर 1990
23 नेल्सन मंडेला 1990
24 राजीव गांधी 1991
25 सरदार वल्लभभाई पटेल 1991
26 मोरारजी देसाई 1991
27 अब्दुल कलाम आजाद 1992
28 जे.आर.डी. टाटा 1992
29 सत्यजीत राय 1992
30 ए.पी.जे. अब्दुल कलाम 1997
31 गुलजारी लाल नंदा 1997
32 अरुणा आसफ अली 1997
33 एम.एस.सुबुलक्ष्मी 1998
34 चिदंबरम सुब्रमण्यम 1998
35 जयप्रकाश नारायण 1999
36 रवि शंकर 1999
37 अमर्त्य सेन 1999
38 गोपीनाथ बारदोलई 1999
39 लता मांगेशकर 2001
40 बिस्मिल्लाह खान 2001
41 भीमसेन जोशी 2008
42 प्रो. सी.एन.आर. राव 2013
43 सचिन तेंडुलकर 2013
44 पंडित मदन मोहन मालवीय 2014
45 अटल बिहारी वाजपेयी 2014.

Saturday, November 16, 2013

कांग्रेस लीला के शिकार लालू प्रसाद: (Laloo Prasad)


सियासी ज़िन्दगी में हाल के दिनों में रोज़ कांग्रेस-सोनिया का नाम जपने वाले लालू प्रसाद को सी बी आई कोर्ट ने सजा सुनायी और उन्हें राहत देने वाले अध्यादेश को राहुल बाबा ने नॉनसेंस कह कर उसकी हवा निकल दी। इधर कांग्रेस जद(यू) से ताल-मेल की बात का खंडन नहीं किया। इस बेवफाई के बावजूद रा ज द का कांग्रेस-प्रेम बरक़रार रहा।

इधर हुंकार रैली में जैसे ही नरेंद्र मोदी ने यदुवंशियों से उन्हें समर्थन देने की अपील की,कांग्रेस कि नींद उड़ गयी। राजनैतिक जोड़-घटाओ करते हुए उन्हें नज़र आया कि अगर यादवों का एक अंश भी नरेंद्र मोदी के साथ हो जाता है तो बिहार में चुनाव नतीजों को भा ज पा के पक्ष में एक तरफ़ा माना जा सकता है।

तब उन्हें लगा कि बिना लालू प्रसाद को जेल से बाहर निकले और रा ज द से ताल-मेल किये , बात नहीं बनेगी।

इसके लिए माहौल बनाने का भार कांग्रेस नीत पत्रिका तहलका को सौंपा गया जिसमें इसके संवाददाता अजित शाही लिखते हैं:
चारा घोटाले में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद को सजा दिए जाने का कोई विशेष आधार नहीं है और फैसला अस्पष्ट, हलके और विकृत सबूत पर आधारित है।

निचले अदालत से सजायाफ्ता आजीवन कारावास पाये हुए पप्पू यादव उच्च न्यायलय से बाइज्जत बरी हुए हैं। तो क्या लालू प्रसाद को बचाना कांग्रेस के लिए बड़ी बात थी?



पहले फंसाओ और फिर बचा कर अहसान के बोझ तले दबा कर काम निकालो, कांग्रेस की निति रही है। लालू प्रसाद यह समझे कि नहीं, उनके समर्थक तो ज़रूर समझ रहें होंगे।

भारत रत्न: आज ध्यानचंद भी याद आये। (Major Dhyan Chand)


भारत का राष्ट्रिय खेल हॉकी है और ध्यानचंद हॉकी के जादूगर थे।

मेजर ध्यानचंद सिंह (२९ अगस्त, १९०५ - ३ दिसंबर, १९७९) भारतीय फील्ड हॉकी के भूतपूर्व खिलाडी एवं कप्तान थे एवं उन्हें भारत एवं विश्व हॉकी के क्षेत्र में सबसे बेहतरीन खिलाडियों में शुमार किया जाता है। वे तीन बार ओलम्पिक के स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय हॉकी टीम के सदस्य रहे हैं जिनमें १९२८ का एम्सटर्डम ओलोम्पिक, १९३२ का लॉस एंजेल्स ओलोम्पिक एवं १९३६ का बर्लिन ओलम्पिक शामिल है। उनकी जन्म तिथि को भारत में "राष्ट्रीय खेल दिवस" के तौर पर मनाया जाता है |

ध्यानचंद को फुटबॉल में पेले और क्रिकेट में ब्रैडमैन के समतुल्य माना जाता है। गेंद इस कदर उनकी स्टिक से चिपकी रहती कि प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी को अक्सर आशंका होती कि वह जादुई स्टिक से खेल रहे हैं। यहाँ तक हॉलैंड में उनकी हॉकी स्टिक में चुंबक होने की आशंका में उनकी स्टिक तोड़ कर देखी गई। जापान में ध्यानचंद की हॉकी स्टिक से जिस तरह गेंद चिपकी रहती थी उसे देख कर उनकी हॉकी स्टिक में गोंद लगे होने की बात कही गई।

ध्यानचंद ओलिंपिक में भारत को सम्मान दिलाए। 1928 में एम्सटर्डम ओलम्पिक खेलों में पहली बार भारतीय टीम ने भाग लिया। एम्स्टर्डम में खेलने से पहले भारतीय टीम ने इंगलैंड में 11 मैच खेले और वहाँ ध्यानचंद को विशेष सफलता प्राप्त हुई। फाइनल मैच में हालैंड को 3-0 से हराकर विश्व भर में हॉकी के चैंपियन घोषित किए गए और 29 मई को उन्हें पदक प्रदान किया गया। फाइनल में दो गोल ध्यानचंद ने किए।

1932 में लास एंजिल्स में हुई ओलम्पिक प्रतियोगिताओं के निर्णायक मैच में भारत ने अमेरिका को 24-1 से हराया था। तब एक अमेरिका समाचार पत्र ने लिखा था कि भारतीय हॉकी टीम तो पूरव से आया तूफान थी। इस यात्रा में ध्यानचंद ने 262 में से 101 गोल स्वयं किए।

1936 के बर्लिन ओलपिक खेलों में ध्यानचंद को भारतीय टीम का कप्तान चुना गया। इस पर उन्होंने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा- "मुझे ज़रा भी आशा नहीं थी कि मैं कप्तान चुना जाऊँगा"। खैर, उन्होंने अपने इस दायित्व को बड़ी ईमानदारी के साथ निभाया। 15 अगस्त, 1936 को भारत और जर्मन की टीमों के बीच फाइनल मुकाबला था। इस मैच को देखने वाले स्टेडियम में 40 से 50 हज़ार दर्शक, जर्मनी के फ्यूहरर एडोल्फ हिटलर, शीर्ष नाज़ी अफसर हरमन गोएरिंग, जोसेफ गोएबल्स, जोआचिम रिबेनट्रोप आदि उपस्थित थे जिससे जर्मन टीम मैच जीतने के लिए प्रोत्साहित हो। मुकाबला 14 अगस्त को खेला जाने वाला था पर उस दिन इतनी बारिश हुई कि मैदान में पानी भर गया और खेल को एक दिन के लिए स्थगित कर दिया गया। गीले मैदान और प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण हमारे खिलाड़ी और भी निराश हो गए थे। तभी भारतीय टीम के मैनेजर पंकज गुप्ता को एक युक्ति सूझी।



उस समय कौन जानता था कि 15 अगस्त को ही भारत का स्वतन्त्रता दिवस बनेगा।
भारत द्वारा मैच जीतने के बाद स्टेडियम में एक अजीब चुप्पी छाई हुई थी। हिटलर को मेडल देने थे, लेकिन गुस्से और निराशा में वह स्टेडियम छोड़ चले गए।

अगले दिन हिटलर ने ध्यानचंद को मिलने के लिए बुलाये। जर्मन तानाशाह ने ध्यानचंद से पूछा कि आप क्या करते हैं? इसपर ध्यानचंद ने जवाब दिया “मैं सेना में सूबेदार हूं”। इस पर हिटलर ने कहा, “इतना बढ़िया खिलाड़ी अगर हमारी टीम में होता तो, वह सेना में किसी बड़े पद पर होता”।

ध्यानचंद ने अपनी करिश्माई हॉकी से जर्मन तानाशाह हिटलर ही नहीं बल्कि महान क्रिकेटर डॉन ब्रैडमैन को भी अपना कायल बना दिया था। उस समय सिर्फ हिटलर ही नहीं, जर्मनी के हॉकी प्रेमियों के दिलोदिमाग पर भी एक ही नाम छाया था और वह था ध्यानचंद।

उन्हें १९५६ में भारत के प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। ध्यान चंद को खेल के क्षेत्र में १९५६ में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। उनके जन्मदिन को भारत का राष्ट्रीय खेल दिवस घोषित किया गया है। इसी दिन खेल में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार अर्जुन और द्रोणाचार्य पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। भारतीय ओलम्पिक संघ ने ध्यानचंद को शताब्दी का खिलाड़ी घोषित किया था।

ध्यानचंद को भारत रत्न देने की मांग भी की जा रही है |

Saturday, November 9, 2013

मंडल कमीशन:


दरअसल कई साथी यह जानना चाहेंगे कि मंडल कमीशन क्या है?

देश की आज़ादी के बाद समाज के सबसे कमजोर तपके, जिन्हें अनुसूचित जाति और जनजाति कहा गया, के बारे में यह मानते हुए कि यह वर्ग समाज में वर्षों से कई बाधाओं और विकृतियों से जूझ रहा है और उनके उत्थान के लिए विशेष अवसरों कि आवश्यकता होगी, उन्हें आरक्षण और विशेष अवसरों का प्रावधान किया गया। लेकिन इसके पीछे एक इतिहास थी और यह इतना आसान भी नहीं था क्योंकि आज़ादी के संघर्ष के दौरान दलित नेता डा बी आर आंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच हुए समझौतों के कारण, खास तौर से हिन्दू समाज को एक रखने के लिए संविधान में यह आया।

परन्तु यह भी बात उठी कि इन वर्गों के अलावे कई और सामाजिक तपके हैं, जिन्हें भी विशेष अवसरों कि आवश्यकता होगी। सामाजिक और शैक्षणिक रूप से इन पिछड़े वर्गों का पता लगाने के लिए संविधान के धारा 340 के अनुसार एक आयोग बनाने का प्रावधान किया गया, जिसे पिछड़ा वर्ग आयोग कहा जाना था।

पंडित नेहरू पर इस बात का दबाब बढ़ने पर 29 जनवरी, 1953 को काका कालेलकर की अध्यक्षता में पहले पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया गया जिसने 30 मार्च 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंप दी।इस रिपोर्ट के अनुसार 2,399 जातियों को पिछड़ा वर्ग में शामिल किया गया, जिनमें 837 जातियों को अति-पिछड़ा घोषित किया गया। लेकिन इस आयोग के रिपोर्ट कि सबसे दिलचस्प पहलु यह थी कि आयोग के अध्यक्ष ने रिपोर्ट के साथ माननीय राष्ट्रपति को दिए गए अपने पत्र में अपनी ही रिपोर्ट को ख़ारिज कर दी।

इसी पत्र के आधार पर वर्षों तक पिछड़े वर्ग के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया। 1977 के लोक सभा चुनाव में नवगठित जनता पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र में पिछड़े वर्ग के लिए विशेष उपाय पूरे संजीदगी से उठाया गया और उस चुनाव में जनता पार्टी ने कांग्रेस को पहली और करारी हार दी।

जनता पार्टी के प्रमुख नेताओं में बिहार के पूर्व मुख्य मंत्री बी पी मंडल भी थे जो बिहार में जनता पार्टी के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष भी थे।(उन्होंने ने ही लालू प्रसाद को उस चुनाओ में टिकट दी थी)। बी पी मंडल मधेपुरा लोक सभा क्षेत्र से शानदार विजय प्राप्त किये और इस बात का कयास लगाया जा रहा था की जनता पार्टी कि पहली गैर-कांग्रेसी केंद की सरकार उन्हें कोई महत्वपूर्ण मंत्रालय दी जायेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

इसी बीच पैर टूटने के इलाज़ के दौरान मंडल जी बम्बई के जसलोक अस्पताल में भरती थे, जहाँ उनसे मिलने प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई पहुंचे। मोरारजी भाई ने बी पी मंडल से कहा की मैंने आपको मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया क्योंकि आपको एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देना चाहता हूँ। मंत्री तो कई लोग बनते हैं लेकिन यह जिम्मेदारो इतना विशेष है की मरने के बाद भी लोग आपको याद करेंगे।

राष्ट्रपति ने 1 जनवरी, 1979 को पिछड़ा वर्ग आयोग कि गठन कि अधिसूचना जारी की जिसके अध्यक्ष बिहार के पूर्व मुख्य-मंत्री बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल (बी पी मंडल) को बनाया गया। उन्हीं के नाम पर इस आय़ोग को मंडल आयोग के नाम से जाना गया। बी पी मंडल ने 31 दिसंबर,1980 को नई दिल्ली के विज्ञानं भवन में राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह को रिपोर्ट सौंप दी।

मंडल कमीशन रिपोर्ट तो पूरे विज्ञानिक आधार के बनायी गयी की वर्षों बाद सर्वोच्च न्यायलय के सम्पूर्ण बेंच द्वारा भी इसमें किसी तरह कि कमी नहीं निकाली जा सकी। रिपोर्ट में 1931 में हुए आखिरी जाति आधारित जनगणना के अनुसार भारत के 52% जनसंख्या जिसमें 3,743 अलग अलग जातियों को समाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा या ‘backward’ घोषित किया गया। परन्तु चुकी पहले से अनुसूचित जाति/जनजाति को 22.5% आरक्षण प्राप्त था अतः कई अन्य अनुशंसाओं के साथ साथ उनके लिए 27% आरक्षण का प्रावधान करने के लिए कहा गया, जिसे जोड़ने के बाद आरक्षण का कुल प्रतिशत 49.5 होता था जो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय सीलिंग 50% से कम था।

स्व बी पी मंडल की मृत्यु रिपोर्ट सौंपने के लगभग एक वर्ष बाद 13 अप्रैल, 1982 को हो गयी। इस तरह कांग्रेस के सरकार में रिपोर्ट को ढंडे बस्ते में डाल दिया गया।
1989 का लोकसभा चुनाव पूर्ण हुआ। कांग्रेस को भारी क्षति उठानी पड़ी। उसे मात्र 197 सीटें ही प्राप्त हुईं। विश्वनाथ प्रताप सिंह के राष्ट्रीय मोर्चे को 146 सीटें मिलीं। भाजपा के 86 सांसद थे और वामदलों के पास 52 सांसद के समर्थन से राष्ट्रीय मोर्चे को 248 सदस्यों का समर्थन प्राप्त हो गया और वी. पी.सिंह प्रधानमंत्री बने। दिसंबर 1980 से ठन्डे बस्ते में पड़ी मंडल आयोग के रिपोर्ट को 9 अगस्त, 1990 को आंशिक रूप से लागू कर इस देश के 52% से भी अधिक पिछड़े वर्ग को केंद्र सरकार की नौकरियों में 27% आरक्षण देकर समाजिक न्याय दिलाने का प्रयास किया, जिससे तमाम उच्च जातियां उनकी 'दुश्मन' बन बैठे, की उनकी मृत्यु पर भी उन्हें मिलने वाले सम्मान से वंचित किया गया।

और उधर 1991 में मंडल कमीशन का भीषण विरोध शुरू हो गया। परन्तु देश का बड़ा मौन प्रतिशत में भी इसकी प्रतिक्रिया हो रही थी और बिहार में लालू प्रसाद एवं उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव इसी मंडल आंदोलन के कारन मुख्य मंत्री बने और बने रहे। अतः वास्तव में मंडल कमीशन की सिफारिशों से भारतीय राजनीति और समाज में भूचाल आया।



आज भारतीय राजनीति में पिछड़े वर्ग की पहचान भी मंडल कमीशन से जुडी हुई है। यहाँ तक की राजनैतिक और ऐतिहासिक तौर पर आज़ाद भारत को मंडल पूर्व और मंडल पश्चात जाना जाने लगा है।

Sunday, November 3, 2013

दीपावली की मान्यताएं :


दीपावली का अर्थ है दीपों की पंक्ति। दीपावली शब्द ‘दीप’ एवं ‘आवली’ की संधिसे बना है। आवली अर्थात पंक्ति, इस प्रकार दीपावली शब्द का अर्थ है, दीपोंकी पंक्ति । भारतवर्षमें मनाए जानेवाले सभी त्यौहारों में दीपावलीका सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। इसे दीपोत्सव भी कहते हैं। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात् ‘अंधेरे से ज्योति अर्थात प्रकाश की ओर जाइए’ यह उपनिषदोंकी आज्ञा है। इसे सिख, बौद्ध तथा जैन धर्म के लोग भी मनाते हैं।

भारतीयों का विश्वास है कि सत्य की सदा जीत होती है झूठ का नाश होता है। दीवाली यही चरितार्थ करती है- असतो माऽ सद्गमय , तमसो माऽ ज्योतिर्गमय। दीपावली स्वच्छता व प्रकाश का पर्व है।

एक पौराणिक कथा के अनुसार विंष्णु ने नरसिंह रुप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था तथा इसी दिन समुद्रमंथन के पश्चात लक्ष्मी व धन्वंतरि प्रकट हुए। जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस भी दीपावली को ही है।

त्रेतायुग में भगवान राम जब रावण को हराकर अयोध्या वापस लौटे तब उनके आगमन पर दीप जलाकर उनका स्वागत किया गया और खुशियाँ मनाई गईं।

यह भी कथा प्रचलित है कि जब श्रीकृष्ण ने आतताई नरकासुर जैसे दुष्ट का वध किया तब ब्रजवासियों ने अपनी प्रसन्नता दीपों को जलाकर प्रकट की।

राक्षसों का वध करने के लिए माँ देवी ने महाकाली का रूप धारण किया। राक्षसों का वध करने के बाद भी जब महाकाली का क्रोध कम नहीं हुआ तब भगवान शिव स्वयं उनके चरणों में लेट गए। भगवान शिव के शरीर स्पर्श मात्र से ही देवी महाकाली का क्रोध समाप्त हो गया। इसी की याद में उनके शांत रूप लक्ष्मी की पूजा की शुरुआत हुई। इसी रात इनके रौद्ररूप काली की पूजा का भी विधान है।

महाप्रतापी तथा दानवीर राजा बलि ने अपने बाहुबल से तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली, तब बलि से भयभीत देवताओं की प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने वामन रूप धारण कर प्रतापी राजा बलि से तीन पग पृथ्वी दान के रूप में माँगी। महाप्रतापी राजा बलि ने भगवान विष्णु की चालाकी को समझते हुए भी याचक को निराश नहीं किया और तीन पग पृथ्वी दान में दे दी। विष्णु ने तीन पग में तीनों लोकों को नाप लिया। राजा बलि की दानशीलता से प्रभावित होकर भगवान विष्णु ने उन्हें पाताल लोक का राज्य दे दिया, साथ ही यह भी आश्वासन दिया कि उनकी याद में भू लोकवासी प्रत्येक वर्ष दीपावली मनाएँगे।

कार्तिक अमावस्या के दिन सिखों के छठे गुरु हरगोविन्दसिंहजी बादशाह जहाँगीर की कैद से मुक्त होकर अमृतसर वापस लौटे थे।

कृष्ण ने अत्याचारी नरकासुर का वध दीपावली के एक दिन पहले चतुर्दशी को किया था। इसी खुशी में अगले दिन अमावस्या को गोकुलवासियों ने दीप जलाकर खुशियाँ मनाई थीं।

मोहनजोदड़ो सभ्यता के प्राप्त अवशेषों में मिट्टी की एक मूर्ति के अनुसार उस समय भी दीपावली मनाई जाती थी। उस मूर्ति में मातृ-देवी के दोनों ओर दीप जलते दिखाई देते हैं।

बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध के समर्थकों एवं अनुयायियों ने गौतम बुद्ध के स्वागत में हजारों-लाखों दीप जलाकर दीपावली मनाई थी।

सम्राट विक्रमादित्य का राज्याभिषेक दीपावली के दिन हुआ था। इसलिए दीप जलाकर खुशियाँ मनाई गईं।

ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में रचित कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार कार्तिक अमावस्या के अवसर पर मंदिरों और घाटों (नदी के किनारे) पर बड़े पैमाने पर दीप जलाए जाते थे।

अमृतसर के स्वर्ण मंदिर का निर्माण भी दीपावली के ही दिन शुरू हुआ था।

जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर ने भी दीपावली के दिन ही बिहार के पावापुरी में अपना शरीर त्याग दिया। महावीर-निर्वाण संवत्‌ इसके दूसरे दिन से शुरू होता है। इसलिए अनेक प्रांतों में इसे वर्ष के आरंभ की शुरुआत मानते हैं। दीपोत्सव का वर्णन प्राचीन जैन ग्रंथों में मिलता है। कल्पसूत्र में कहा गया है कि महावीर-निर्वाण के साथ जो अन्तर्ज्योति सदा के लिए बुझ गई है, आओ हम उसकी क्षतिपूर्ति के लिए बहिर्ज्योति के प्रतीक दीप जलाएँ।

पंजाब में जन्मे स्वामी रामतीर्थ का जन्म व महाप्रयाण दोनों दीपावली के दिन ही हुआ। इन्होंने दीपावली के दिन गंगातट पर स्नान करते समय 'ओम' कहते हुए समाधि ले ली।

महर्षि दयानन्द ने भारतीय संस्कृति के महान जननायक बनकर दीपावली के दिन अजमेर के निकट अवसान लिया। इन्होंने आर्य समाज की स्थापना की।

दीन-ए-इलाही के प्रवर्तक मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में दौलतखाने के सामने 40 गज ऊँचे बाँस पर एक बड़ा आकाशदीप दीपावली के दिन लटकाया जाता था। बादशाह जहाँगीर भी दीपावली धूमधाम से मनाते थे।

मुगल वंश के अंतिम सम्राट बहादुर शाह जफर दीपावली को त्योहार के रूप में मनाते थे और इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रमों में भाग लेते थे।

शाह आलम द्वितीय के समय में समूचे शाही महल को दीपों से सजाया जाता था एवं लाल किले में आयोजित कार्यक्रमों में हिन्दू-मुसलमान दोनों भाग लेते थे।

शुभ दीपावली!

Saturday, October 5, 2013

बच्चों का कुपोषण - बिहार में देश में सबसे अधिक कुपोषित बच्चे।


यह स्वागतयोग्य है की देश में कैग CAG रिपोर्ट के आधार पर बच्चों के कुपोषण पर बहस हो रही है। वरना यही राजनैतिक दल कैग के भ्रष्टाचार पर दिए गए रिपोर्ट को सिरे से नकार देते हैं, और कैग के रिपोर्ट को सम्बंधित विधान सभा में सिर्फ पेश कर देते हैं और उसपर कार्यवाई की संविधानिक प्रक्रिया को अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता हैं। चुकी सम्बंधित सदन में सत्ता में जो दल है उसका बहुमत होता है, तो वह पाप वहीँ धुल जाता है और आज तक कैग के रिपोर्ट के आधार पर सदन द्वारा कार्यवाई नहीं हुई है। कैग के रिपोर्ट के आधार पर चारा घोटाले में कोर्ट की निगरानी में सी बी आई द्वारा दोषी को सजा दिलाने की घटना भी लालू प्रसाद एवं अन्य के मामले में शायद अकेला उधारण है।

जहाँ तक कैग के रिपोर्ट के में जो बच्चों के कुपोषण और अत्याधिक कुपोषण पर जो राज्यवाड़ आंकड़े उपलब्ध कराये हैं उस अनुसार 2005 के मुकाबले 2011 में गुजरात में स्थिति सुधारी है और दिल्ली जैसे राज्य में भी 2011 में स्थिति बदतर हुई है। लेकिन सबसे दिलचस्प मामला बिहार का है जिसके नेता पोशुआ हनुमान शिवानन्द तिवारी बढ़-चढ़ कर गुजरात सरकार पर हमले कर रहें है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार जबकि नितीश कुमार के शासन के शुरू 2005-06 में कुपोषित बच्चों का प्रतिशत 55.9 और अत्याधिक कुपोषित की संख्या 24.1 प्रतिशत था, वहीँ सुशासन बाबू के 4-5 वर्ष शासन में रहने के बाद मार्च 2007 में कुपोषित बच्चों की संख्या भारत में सबसे अधिक 82.12 और अत्याधिक कुपोषित 25.94 प्रतिशत है। आश्चर्य है की विकास पुरुष और उनकी पार्टी जद(यू) इस डरावनी स्थिति पर कुछ क्यों नहीं कहते हैं।

CAG - कुपोषण और अत्याधिक कुपोषित के आंकड़े
बिहार 2005-06 55.9 24.1 मार्च 2007 NA NA मार्च 2011 82.12 25.94
दिल्ली 2005-06 26.1 8.7 मार्च 2007 54.36 0.07 मार्च 2011 49.91 0.03
गुजरात 2005-06 44.6 16.3 मार्च 2007 70.69 0.85 मार्च 2011 38.77 4.56
अखिल भारत 2005-06 42.5 15.8 मार्च 2007 50.1 0.55 मार्च 2011 41.16 3.33.

वैसे, विश्व बैंक एक अनुमान के अनुसार भारत में कुपोषण से पीड़ित बच्चों की संख्या दुनिया में सर्वोच्च रैंकिंग वाले देशों में से एक है। भारत में कम वजन वाले बच्चों की व्यापकता दुनिया में सबसे ऊंची है, और लगभग दोगुना है। 2011 वैश्विक भूख सूचकांक (GHI) रिपोर्ट के अनुसार बच्चों में भूख की स्थिति में प्रमुख देशों के बीच, भारत 15 वें स्थान पर है।



Name of the state/UT
Data provided by the Ministry (status as on) (Status for 2005-06) 31-March-2007 31-March-2011
Malnourished Severely Malnourished Malnourished Severely Malnourished Malnourished Severely Malnourished
Andhra Pradesh 32.5 9.9 53.23 0.13 48.72 0.08
Arunachal Pradesh 32.5 11.1 9.13 0.01 2.00 0.00
Assam 36.4 11.4 40.12 1.4 31.32 0.46
Bihar 55.9 24.1 NA NA 82.12 25.94
Chhattisgarh 47.1 16.4 54.14 1.18 38.47 1.97
Goa 25.0 6.7 41.41 0.15 34.11 0.04
Gujarat 44.6 16.3 70.69 0.85 38.77 4.56
Haryana 39.6 14.2 45.34 0.11 42.95 0.05
Himachal Pradesh 36.5 11.4 38.86 0.15 34.24 0.06
Jammu & Kashmir 25.6 8.2 32.61 0.78 31.12 0.06
Jharkhand 56.5 26.1 47.36 1.74 40.00 0.7
Karnataka 37.6 12.8 53.39 0.31 39.5 2.84
Kerala 22.9 4.7 38.8 0.07 36.92 0.08
Madhya Pradesh 60.0 27.3 49.61 0.75 28.49 1.88
Maharashtra 37.0 11.9 45.47 0.21 23.32 2.61
Manipur 22.1 4.7 10.06 0.19 13.83 0.24
Meghalaya 48.8 27.7 36.74 0.14 29.13 0.18
Mizoram 19.9 5.4 22.67 0.48 23.26 0.20
Nagaland 25.2 7.1 13.79 0.31 8.36 0.07
Odisha 40.7 13.4 56.54 0.82 50.43 0.72
Punjab 24.9 8.0 35.36 0.37 33.63 0.05
Rajasthan 39.9 15.3 54.09 0.27 43.13 0.33
Sikkim 19.7 4.9 27.17 0.08 10.72 0.86
Tamil Nadu 29.8 6.4 39.1 0.04 35.22 0.02
Tripura 39.6 15.7 14.83 0.19 36.89 0.35
Uttar Pradesh 42.4 16.4 53.36 1.09 40.93 0.21
Uttarakhand 38.0 15.7 45.71 0.23 24.93 1.19
West Bengal 38.7 11.1 52.75 0.68 36.92 4.08
Delhi 26.1 8.7 54.36 0.07 49.91 0.03
All India 42.5 15.8 50.1 0.55 41.16 3.33
[percentage of malnourished children covers all malnourished children including severely malnourished]

Wednesday, October 2, 2013

गाँधी जी - मेरे कुछ विचार और कुछ रोचक तथ्य -

गाँधी जी - मेरे कुछ विचार और कुछ रोचक तथ्य -

पी एच डी के लिए अनेक विषयों में से मैं यह भी देखना चाहता था की क्या महात्मा गाँधी और माओ त्से तुंग का तुलनात्मक अध्यन किया जा सकता है?
दोनों सफल नेता थे, पर विपरीत सिद्धांतों को प्रतिपादित करते थे।

1921 में स्थापित चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता के रूप में माओ ने 1949 में चीन की सत्ता पर काबिज हो गए। उनका कहना था की सत्ता बन्दूक के नाल से निकलती है।
1924 में पहली और आखरी बार कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बनने वाले महात्मा गाँधी अपने 1948 में अपनी मृत्यु तक कांग्रेस के एकक्षत्र नेता बने रहे और 1947 में उन्ही के नेतृत्व में कांग्रेस को आजाद और विभाजित भारत की सत्ता मिली। गाँधी जी सत्य और अहिंसा को अपने आन्दोलन की सफलता के लिए आवश्यक मानते थे।

शायद उनके आन्दोलन की सफलता और विपरीत सिद्धांतों के लिए भारत और चीन की तात्कालिक राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियाँ जिम्मेदार थी।

1921 से गाँधी जी अपने भारत यात्रा के दौरान सुगमता के धोती और खडाऊँ पहनना शुरू कर दिए। अधिक ठण्ड होने पर एक चादर से शरीर ढकते थे। यही पहनावा उनकी आजीवन बनी रही। शायद आम जन इसी पहनावे से उन्हें अपना मानने लगे थे।

महात्मा कहकर उहें सबे पहले गुरु रविन्द्र नाथ टैगोर ने संबोधित किया।

वैसे मेरे वाम मित्र और अन्य साथी भी गाँधी जी के पहनावे, ट्रेन के निचले दर्जे में सफ़र करने के फैसले, दलित बस्तियों की सफाई आदि को गाँधी जी का नाटक मानते हुए जोरदार बहस करते रहते हैं। मैं उनसे यही कहता हूँ की ऐसा नाटक और नेता क्यों नहीं करते? इस तरह के पहनावे और कुछ सिद्धांतों पर चलना खेल नहीं है। नाटक के लिए ही सही अगर भारत में नेतागण गाँधी जी की राह पर चलेंगें तो बहुत कुछ सुधर सकता है।



गाँधी जी पर कुछ रोचक तथ्य -
*1931 में इंग्लैंड में रहते हुए, गांधी जी संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए अपनी पहली रेडियो प्रसारण के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका के लोगों को महात्मा कहते सुना कि " क्या मुझे इस चीज में बोलना है?"
*गांधी जी समय के बेहद पाबंद थे। उनकी कुछ संपत्ति में से एक, एक डॉलर की घड़ी थी। 30 जनवरी, 1948 को जिस दिन गाँधी जी की हत्या कर दी गई थी, वे बस इसलिए परेशान थे की एक नियमित प्रार्थना सभा के लिए वे दस मिनट देरी से आ रहे थे।
*टाइम पत्रिका, प्रसिद्ध अमेरिकी प्रकाशन, ने 1930 में महात्मा गाँधी को मैन ऑफ द ईयर नामित किया था।
*वे रूसी उपन्यासकार लियो टालस्टाय के साथ नियमित रूप से पत्राचार करते थे।
*1948 में गाँधी जी के अंतिम संस्कार के लिए इस्तेमाल किया गया केसून, या बंदूक गाड़ी, मदर टेरेसा के अंतिम संस्कार के लिए भी 1997 में इस्तेमाल किया गया था।
*यीशु मसीह को शुक्रवार को क्रूस पर चढ़ाया गया था। गांधी जी शुक्रवार को पैदा हुआ थे। भारत को भी शुक्रवार को ही अपनी स्वतंत्रता मिली। गांधी जी की हत्या भी शुक्रवार को हुई।
*गाँधी जी को फोटो लिया जाना अच्छा नहीं लगता था, फिर भी वे उस समय सबसे अधिक फोटो खिचाये हुए व्यक्ति थे।
*संयुक्त राष्ट्र ने 2 अक्तूबर को अन्तराष्ट्रीय अहिंसा के दिन में घोषणा की है।
*गाँधी और नोबेल पुरस्कार -
शांति सहित विभिन्न क्षेत्रों में मानवता के लिए उनके योगदान पर दिए जाने वाले नोबेल पुरस्कार के लिए 1937 और 1948 के बीच महात्मा गांधी को पांच बार नामांकित किया गया, लेकिन हर बार वे उन्हें पुरस्कृत करने में विफल रहे। आखिरकार, नोबल पुरस्कार चयन पैनल वास्तव में गांधी की पहुंच और दुनिया पर उनके प्रभाव को समझते हुए, अंत में गाँधी को पुरस्कार से सम्मानित किया था। दुर्भाग्य से, यह पुरस्कार 1948 में उनकी हत्या के कुछ ही हफ्तों के बाद आया और नोबेल पुरस्कार नियमों के अनुसार मरणोपरांत नोबेल पुरस्कार के लिए समिति ने रोक लगाई हुई थी। अतः यह निर्णय लिया गया की उस वर्ष किसी को भी नोबेल शांति पुरस्कार नहीं दिया जायेगा। पर 1961 में नोबेल पुरस्कार समिति ने नियमों को शिथिल करते हुए संयुक्त राष्ट्र के महासचिव डग हम्मार्स्क्जोल्ड को शांति पुरस्कार के लिए नामित किया जिनकी मृत्यु कुछ समय पहले हवाई दुर्घटना में हो गयी थी। इस फैसले पर जनता के बीच आक्रोश भी दिखा। नोबेल समिति ने अंत में अपनी गलती को स्वीकार करते हुए सन 2006 में सार्वजानिक रूप से व्यक्तव्य दिया कि "हमारे 106 साल के इतिहास में सबसे बड़ी चूक महात्मा गांधी को नोबेल शांति पुरस्कार नहीं दिया जाना है। गाँधी तो बिना नोबेल परुस्कार के रह सकते थे, पर बड़ा प्रश्न यह है की क्या नोबेल शांति पुरस्कार समिति गाँधी को बिना यह पुरस्कार प्रदान किये सहज है? " ("The greatest omission in our 106 year history is undoubtedly that Mahatma Gandhi never received the Nobel Peace prize. Gandhi could do without the Nobel Peace prize, whether Nobel committee can do without Gandhi is the question".)
अहिंसा और सविनय अवज्ञा का रास्ता लेने के लिए महात्मा गांधी ने दुनिया के लाखों लोगों को प्रेरित किया। कम से कम 5 नोबल शांति पुरस्कार विजेता - मार्टिन लूथर किंग जूनियर (यूएसए), दलाई लामा (तिब्बत), आंग सान सू क्यि (म्यांमार), नेल्सन मंडेला (दक्षिण अफ्रीका) और अडोल्फो पेरेस एस्क़ुइवेल (अर्जेंटीना) ने इस तथ्य को स्वीकार किया है कि वे गांधी के दर्शन से प्रभावित थे।
तो निश्चित तौर से गाँधी जी नोबेल पुरस्कार से ऊपर थे।

Monday, September 30, 2013

लालू प्रसाद को चारा घोटाले में सजा - भ्रष्टाचार की हार, सामाजिक न्याय को झटका:


लालू प्रसाद को चारा घोटाले में सजा - भ्रष्टाचार की हार, सामाजिक न्याय को झटका:

चारा घोटाले से जुड़े एक मामले में यहां सीबीआई की विशेष अदालत ने आज बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री एवं राजद नेता लालू प्रसाद तथा पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र समेत सभी 45 आरोपियों को दोषी करार दिया है।

वैसे यह राजनीती में अहंकार की पराजय भी है और सत्ता का मद में चूड़ नेताओं के लिए सबक भी है। लालू प्रसाद के विरुद्ध भी रहा हूँ और दो चुनावों में साथ भी दिया हूँ। इसलिए गीता सार को याद कर रहा हूँ - जो हुआ, वह अच्छा हुआ, जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है, जो होगा, वह भी अच्छा ही होगा। तुम भूत का पश्चाताप न करो। भविष्य की चिन्ता न करो। वर्तमान चल रहा है।

इसलिए अफ़सोस सिर्फ इस बात का है कि अक्सर सामाजिक न्याय को बुलंद करने की बात जो नेता करते हैं वे भटक जाते हैं और भ्रष्टाचार के दलदल में फंस जाते हैं। इससे सामाजिक न्याय का आन्दोलन कमजोर पड़ता है।

पर इसमें खेल कांग्रेस का है जिसके कसीदे रोज़ लालू प्रसाद पढ़ रहे थे। क्या लालू प्रसाद कांग्रेस की चाल नहीं समझ पाए, तब भी जब उन्हें बचाने के यू पी ए अध्यादेश ड्रामे को राहुल बाबा ने नॉनसेंस करार दिया? और उन घोटालों का क्या जिसमें कांग्रेसी नेता शीला दिक्षित, सुरेश कलमाड़ी, चिदंबरम, सलमान खुर्शीद, और स्वयं प्रधान मंत्री हैं और जिनकी आंच 10 जनपथ तक आती है?



अब कांग्रेस बिहार में नितीश कुमार को अपनाएगी, और नितीश भी जानते हैं की चारा घोटाले से बचाने के लिए फिलहाल उन्हें कांग्रेस की खवासी करनी होगी।
दरअसल, इस घोटाले के आरोपी एसबी सिन्हा के बयान के अनुसार चारा घोटाले का पैसा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी मिला था। एके झा ने सीबीआइ के विशेष न्यायाधीश आरआर त्रिपाठी की अदालत में बताया कि घोटाले के आरोपी एसबी सिन्हा से बयान लिया गया था। इसी बयान में इसकी पुष्टि हुई है। एसबी सिन्हा ने बताया था कि 1995 के लोकसभा चुनाव में चारा घोटाले के आरोपी विजय कुमार मल्लिक द्वारा एक करोड़ रुपये नीतीश कुमार को भिजवाया गया। यह पैसा उन्हें दिल्ली के एक होटल में दिया गया। नीतीश ने पैसे लेकर धन्यवाद भी कहा। कुछ दिनों बाद फिर घोटाले के आरोपी एसबी सिन्हा ने नौकर महेंद्र प्रसाद के हाथ 10 लाख रुपये पटना में विधायक सुधा श्रीवास्तव के घर पर नीतीश कुमार के लिए भेजे। घोटाले के आरोपी आरके दास ने भी कोर्ट में दिये बयान में बताया था कि उसने पांच लाख रुपये नीतीश कुमार को दिये हैं। नीतीश कुमार 1995 में समता पार्टी के नेता थे। वह एसबी सिन्हा को कहते थे कि पैसा नहीं देने पर मामला उजागर कर दिया जाएगा। तत्कालीन विधायक शिवानंद तिवारी, राधाकांत झा, रामदास एवं गुलशन अजमानी को भी पैसा देने की बात सामने आई।

Wednesday, August 28, 2013

श्री कृष्ण


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संक्षिप्त परिचय -
श्री कृष्ण
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अन्य नाम - द्वारिकाधीश, केशव, गोपाल, नंदलाल, बाँके बिहारी, कन्हैया, गिरधारी, मुरारी आदि
अवतार - सोलह कला युक्त पूर्णावतार (विष्णु)
वंश - गोत्र वृष्णि वंश (चंद्रवंश)
कुल - यदुकुल
पिता - वसुदेव
माता - देवकी
पालक पिता - नंदबाबा
पालक माता -यशोदा
जन्म विवरण - भादों कृष्णा अष्टमी
समय-काल - महाभारत काल
परिजन - रोहिणी बलराम (भाई), सुभद्रा (बहन), गद (भाई)
गुरु - संदीपन, आंगिरस
विवाह - रुक्मिणी, सत्यभामा, जांबवती, मित्रविंदा, भद्रा, सत्या, लक्ष्मणा, कालिंदी
संतान - प्रद्युम्न
विद्या पारंगत - सोलह कला, चक्र चलाना
रचनाएँ - गीता
शासन-राज्य - द्वारिका
संदर्भ ग्रंथ महाभारत, भागवत, छान्दोग्य उपनिषद
मृत्यु - पैर में तीर लगने से
यशकीर्ति - द्रौपदी के चीरहरण में रक्षा करना। कंस का वध करके उग्रसेन को राजा बनाना।
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मैं कोई धार्मिक विवेचन न करना जनता हूँ और न ही भगवान को मानने के लिए किसी को कहता हूँ। और न मैं कहता हूँ की मेरे हैं गिरिधर गोपाल, दूसरो न कोई। पर श्री कृष्ण मेरे अराध्य देवों में एक ज़रूर हैं।

और आज जन्माष्टमी पर मेरे कुछ फेसबुकिया साथी श्री कृष्ण पर टिप्पणी कर रहें हैं जो इस मुहावरे को चरितार्थ करता है कि अधजल गगरी छलकत जाये। कोई गीता के ज्ञान को अपूर्ण मानते हुए अपनी अलग व्यख्या दे रहें हैं। उनको यही कहना चाहूँगा कि थोडा ज्ञान रखने से अच्छा अज्ञानी ही रहना है।

श्री कृष्ण को जानने और समझने के लिए एक जन्म काफी नहीं है। सनातन धर्म के अनुसार भगवान विष्णु सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख देवता हैं। कृष्ण हिन्दू धर्म में विष्णु के अवतार माने जाते हैं ।
ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग 1500 ई.पू. माना जाता है, जो कि अनुचित है। हिंदू काल गणना अनुसार आज से लगभग 5235 वर्ष पूर्व कृष्ण का जन्म हुआ था।

श्रीकृष्ण साधारण व्यक्ति न होकर युग पुरुष थे। उनके व्यक्तित्व में भारत को एक प्रतिभासम्पन्न राजनीतिवेत्ता ही नही, एक महान कर्मयोगी और दार्शनिक प्राप्त हुआ, जिसका गीता- ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है। कृष्ण की स्तुति लगभग सारे भारत में किसी न किसी रूप में की जाती है।
कृष्ण पूर्ण योगी और योद्धा थे। यमुना के तट पर और यमुना के ही जंगलों में गाय और गोपियों के संग-साथ रहकर बाल्यकाल में कृष्ण ने पूतना, शकटासुर, यमलार्जुन, कलिय-दमन, प्रलंब, अरिष्ट आदि का संहार किया तो किशोरावस्था में बड़े भाई बलदेव के साथ कंस का वध किया और फिर नरकासुर वध ।

यहाँ बताना चाहूँगा की माना जाता है की भगवान कृष्ण को १६,१०८ पत्नियाँ थीं. दरअसल राजकन्याओं से विवाहोपरांत उनकी सिर्फ ८ पत्नियाँ थी। १६,१०० वे थीं जिन्हें नरकासुर का वध करके भगवान कृष्ण ने आज़ाद किया था। उन्हें कहीं जाने को नहीं था, और समाज में प्रतिष्ठता से रह सकें, तो उनके आग्रह पर कृष्ण ने अपने महल में उन्हें पनाह दिए, परन्तु कोई शारीरिक संपर्क नहीं रहा।

देवता के रूप में कृष्ण की पूजा, बाल कृष्ण गोपाल या वासुदेव के रूप में 4 शताब्दी ई.पू. से देखा जा सकता है। 10 वीं सदी ई. से, कृष्ण कला और क्षेत्रीय परंपराओं के प्रदर्शन में एक पसंदीदा विषय बन गए और फिर ओडिशा में भगवान जगन्नाथ, राजस्थान में श्रीनाथजी, महाराष्ट्र में विठोबा के रूप में कृष्ण के रूपों के लिए भक्ति का विकास हुआ। International Society for Krishna Consciousness के कारण1960 के दशक के बाद से कृष्ण की पूजा भी पश्चिम में फैल गया है।

कृष्ण युग पुरुष भी थे और योगी भी इसलिए योगेश्वर कहलाये। वास्तव में कृष्ण जी दो प्रकार के योग में पारंगत थे। पहला तो वहीँ महान पवित्र योग और द्वितीय भृष्ट योग। प्रथम योग के द्वारा जो कि पूर्ण सत्य पर आधारित होता है, भगवान कृष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन को विराट रूप दिखाया था। यह रूप कोई भी महान योगी दिखा सकता है. जिसमें वह अपने शरीर में ही पूरे ब्रह्माण्ड के दर्शन करा देता है। द्रोपदी को दुर्वासा क्र श्राप से बचने के लिए जब कृष्ण ने पतीले से एक शेष चावल का दाना ढूंढ़ कर निकाला और उसे खा लिया. और डकार लेते हुए बोले कि अब मेरी भूख शांत होने वाली है। तब भृष्ट योग के द्वारा उन्होंने उस चावल का प्रभाव उन आगंतुकों पर डाला और उनका पेट भी भर गया।

योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने योग की शिक्षा और दिक्षा उज्जैन स्थित महर्षि सांदिपनी के आश्रम में रह कर हासिल की थी। वह योग में पारगत थे तथा योग द्वारा जो भी सिद्धियाँ स्वत: की प्राप्य थी उन सबसे वह मुक्त थे। सिद्धियों से पार भी जगत है वह उस जगत की चर्चा गीता में करते है। गीता मानती है कि चमत्कार धर्म नहीं है। बहुत से योगी योग बल द्वारा जो चमत्कार बताते है योग में वह सभी वर्जित है। सिद्धियों का उपयोग प्रदर्शन के लिए नहीं अपितु समाधि के मार्ग में आ रही बाधा को हटाने के लिए है। गीता में कर्म योग का बहुत महत्व है। गीता में कर्म बंधन से मुक्ति के साधन बताएँ हैं। कर्मों से मुक्ति नहीं, कर्मों के जो बंधन है उससे मुक्ति। कर्म बंधन अर्थात हम जो भी कर्म करते हैं उससे जो शरीर और मन पर प्रभाव पड़ता है उस प्रभाव के बंधन से मुक्ति आवश्यक है।

कृष्ण को ईश्वर मानना अनुचित है, किंतु इस धरती पर उनसे बड़ा कोई ईश्वर तुल्य नहीं है, इसीलिए उन्हें पूर्ण अवतार कहा गया है। कृष्ण ही गुरु और सखा हैं। कृष्ण ही भगवान है अन्य कोई भगवान नहीं। कृष्ण हैं राजनीति, धर्म, दर्शन और योग का पूर्ण वक्तव्य। कृष्ण को जानना और उन्हीं की भक्ति करना ही हिंदुत्व का भक्ति मार्ग है। अन्य की भक्ति सिर्फ भ्रम, भटकाव और निर्णयहीनता के मार्ग पर ले जाती है। भजगोविंदम मूढ़मते।

कालिया नाग :
कदंब वन के समीप एक नाग जाति का व्यक्ति रहता था, जिसे पुराणों ने नाग ही घोषित कर दिया। उक्त व्यक्ति बालक कृष्ण के द्वार पर आ धमका था। जबकि घर में कोई नहीं था, लेकिन बलशाली कृष्ण ने उक्त व्यक्ति को तंग कर वहाँ से भगा दिया। इसी प्रकार वहीं ताल वन में दैत्य जाति का धनुक नाम का अत्याचारी व्यक्ति रहता था जिसे बलदेव ने मार डाला था। उक्त दोनों घटना के कारण दोनों भाइयों की ख्‍याति फैल गई थी।

गोवर्धन पूजा -
गोकुल के गोप प्राचीन-रीति के अनुसार वर्षा काल बीतने और शरद के आगमन के अवसर पर इन्द्र देवता की पूजा किया करते थे। इनका विश्वास था कि इन्द्र की कृपा के कारण वर्षा होती है, जिसके परिणामस्वरूप पानी पड़ता है। कृष्ण और बलराम ने इन्द्र की पूजा का विरोध किया तथा गोवर्धन (धरती माँ, जो अन्न और जल देती है) की पूजा का अवलोकन किया। इस प्रकार एक ओर कृष्ण ने इन्द्र के काल्पनिक महत्त्व को बढ़ाने का कार्य किया, दूसरी और बलदेव ने हल लेकर खेती में वृद्धि के साधनों को खोज निकाला। पुराणों में कथा है कि इस पर इन्द्र क्रुद्ध हो गया और उसने इतनी अत्यधिक वर्षा की कि हाहाकार मच गया। किन्तु कृष्ण ने बुद्धि-कौशल के गिरि द्वारा गोप-गोपिकाओं, गौओं आदि की रक्षा की। इस प्रकार इन्द्र-पूजा के स्थान पर अब गोवर्धन पूजा की स्थापना की गई।

कंस-वध
कृष्ण-बलराम का नाम मथुरा में पहले से ही प्रसिद्ध हो चुका था। उनके द्वारा नगर में प्रवेश करते ही एक विचित्र कोलाहल पैदा हो गया। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे इन बालकों द्वारा दंडित किये गये। ऐसे मथुरावासियों की संख्या कम न थी जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृष्ण के प्रति सहानुभूति रखते थे। इनमें कंस के अनेक भृत्य भी थे, जैसे सुदाभ या गुणक नामक माली, कुब्जा दासी आदि।
कंस के शस्त्रागार में भी कृष्ण पहुंच गये और वहाँ के रक्षक को समाप्त कर दिया। इतना करने के बाद कृष्ण-बलराम ने रात में संभवत: अक्रूर के घर विश्राम किया। अन्य पुराणों में यह बात निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हो पाती कि दोनों भाइयों ने रात कहाँ बिताई। कंस ने ये उपद्रवपूर्ण बातें सुनी। उसने चाणूर और मुष्टिक नामक अपने पहलवानों को कृष्ण-बलराम के वध के लिए सिखा-पढ़ा दिया। शायद कंस ने यह भी सोचा कि उन्हें रंग भवन में घुसने से पूर्व ही क्यों न हाथी द्वारा कुचलवा दिया जाय, क्योंकि भीतर घुसने पर वे न जाने कैसा वातावरण उपस्थित कर दें। प्रात: होते ही दोनों भाई धनुर्याग का दृश्य देखने राजभवन में घुसे। ठीक उसी समय पूर्व योजनानुसार कुवलय नामक राज्य के एक भयंकर हाथी ने उन पर प्रहार किया। दोनों भाइयों ने इस संकट को दूर किया। भीतर जाकर कृष्ण चाणूर से और बलराम मुष्टिक से भिड़ गये। इन दोनों पहलवानों को समाप्त कर कृष्ण ने तोसलक नामक एक अन्य योद्धा को भी मारा। कंस के शेष योद्धाओं में आतंक छा जाने और भगदड़ मचने के लिए इतना कृत्य यथेष्ट था। इसी कोलाहल में कृष्ण ऊपर बैठे हुए कंस पर झपटे और उसको भी कुछ समय बाद परलोक पहुँचा दिया। इस भीषण कांड के समय कंस के सुनाम नामक भृत्य ने कंस को बचाने की चेष्टा की। किन्तु बलराम ने उसे बीच में ही रोक उसका वध कर डाला।
अपना कार्य पूरा करने के उपरांत दोनो भाई सर्वप्रथम अपने माता-पिता से मिले। वसुदेव और देवकी इतने समय बाद अपने प्यारे बच्चों से मिल कर हर्ष-गदगद हो गये। इस प्रकार माता-पिता का कष्ट दूर करने के बाद कृष्ण ने कंस के पिता उग्रसेन को, जो अंधकों के नेता थे, पुन: अपने पद पर प्रतिष्ठित किया। समस्त संघ चाहता था कि कृष्ण नेता हों, किन्तु कृष्ण ने उग्रसेन से कहा:- "मैनें कंस को सिंहासन के लिए नहीं मारा है। आप यादवों के नेता हैं । अत: सिंहासन पर बैठें।"

जरासंध वध -
पुराणों के अनुसार जरासंध ने अठारह बार मथुरा पर चढ़ाई की। सत्रह बार यह असफल रहा। अंतिम चढ़ाई में उसने एक विदेशी शक्तिशाली शासक कालयवन को भी मथुरा पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। कृष्ण बलराम को जब यह ज्ञात हुआ कि जरासंध और कालयवन विशाल फ़ौज लेकर आ रहे हैं तब उन्होंने मथुरा छोड़कर कहीं अन्यत्र चले जाना ही बेहतर समझा।
अब समस्या थी कि कहाँ जाया जाय? यादवों ने इस पर विचार कर निश्चय किया कि सौराष्ट्र की द्वारकापुरी में जाना चाहिए। यह स्थान पहले से ही यादवों का प्राचीन केन्द्र था और इसके आस-पास के भूभाग में यादव बड़ी संख्या में निवास करते थे। ब्रजवासी अपने प्यारे कृष्ण को न जाने देना चाहते थे और कृष्ण स्वयं भी ब्रज को क्यों छोड़ते? पर आपत्तिकाल में क्या नहीं किया जाता? कृष्ण ने मातृभूमि के वियोग में सहानुभूति प्रकट करते हुए ब्रजवासियों को कर्त्तव्य का ध्यान दिलाया और कहा-
'जरासंध के साथ हमारा विग्रह हो गया है दु:ख की बात है। उसके साधन प्रभूत है। उसके पास वाहन, पदाति और मित्र भी अनेक है। यह मथुरा छोटी जगह है और प्रबल शत्रु इसके दुर्ग को नष्ट करना चाहता है। हम लोग यहाँ संख्या में भी बहुत बढ़ गये हैं, इस कारण भी हमारा इधर-उधर फैलना आवश्यक है।'
इस प्रकार पूर्व निश्चय के अनुसार उग्रसेन, कृष्ण, बलराम आदि के नेतृत्व में यादवों ने बहुत बड़ी संख्या में मथुरा से प्रयाण किया और सौराष्ट्र की नगरी द्वारावती में जाकर बस गये। द्वारावती का जीर्णोद्वार किया गया और उससे बड़ी संख्या में नये मकानों का निर्माण हुआ। मथुरा के इतिहास में महाभिनिष्क्रमण की यह घटना बड़े महत्त्व की है। यद्यपि इसके पूर्व भी यह नगरी कम-से-कम दो बार ख़ाली की गई थी-पहली बार शत्रुध्न-विजय के उपरांत लवण के अनुयायिओं द्वारा और दूसरी बार कंस के अत्याचारों से ऊबे हुए यादवों द्वारा, पर जिस बड़े रूप में मथुरा इस तीसरे अवसर पर ख़ाली हुई वैसे वह पहले कभी नहीं हुई थी। इस निष्क्रमण के उपरांत मथुरा की आबादी बहुत कम रह गई होगी। कालयवन और जरासंध की सम्मिलित सेना ने नगरी को कितनी क्षति पहुँचाई, इसका सम्यक पता नहीं चलता। यह भी नहीं ज्ञात होता कि जरासंध ने अंतिम आक्रमण के फलस्वरूप मथुरा पर अपना अधिकार कर लेने के बाद शूरसेन जनपद के शासनार्थ अपनी ओर से किसी यादव को नियुक्त किया अथवा किसी अन्य को। परंतु जैसा कि महाभारत एवं पुराणों से पता चलता है, कुछ समय बाद ही श्री कृष्ण ने बड़ी युक्ति के साथ पांडवों की सहायता से जरासंध का वध करा दिया। अत: मथुरा पर जरासंध का आधिपत्य अधिक काल तक न रह सका।
कुछ समय बाद युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ की तैयारियाँ आरंभ कर दी। और आवश्यक परामर्श के लिए कृष्णा को बुलाया। कृष्ण इन्द्रप्रस्थ आये और उन्होंने राजसूय यज्ञ के विचार की पुष्टि की। उन्होंने यह सुझाव दिया कि पहले अत्याचारी शासकों को नष्ट कर दिया जाय और उसके बाद यज्ञ का आयोजन किया जाय। कृष्ण ने युधिष्ठिर को सबसे पहले जरासंध पर चढ़ाई करने की मन्त्रणा दी। तद्नुसार भीम और अर्जुन के साथ कृष्ण रवाना हुए और कुछ समय बाद मगध की राजधानी गिरिब्रज पहुँच गये। कृष्ण की नीति सफल हुई और उन्होंने भीम के द्वारा मल्लयुद्ध में जरासंध को मरवा डाला। जरासंध की मृत्यु के बाद कृष्ण ने उसके पुत्र सहदेव को मगध का राजा बनाया। फिर उन्होंने गिरिब्रज के कारागार में बन्द बहुत से राजाओं को मुक्त किया। इस प्रकार कृष्ण ने जरासंध-जैसे महापराक्रमी और क्रूर शासक का अन्त कर बड़ा यश पाया। जरासंध के पश्चात पांडवों ने भारत के अन्य कितने ही राजाओं को जीता।

शिशुपाल वध -
अब पांडवों का राजसूय यज्ञ बड़ी धूमधाम से आरम्भ हुआ। ब्रह्मचारी भीष्म ने कृष्ण की प्रशंसा की तथा उनकी `अग्रपूजा` करने का प्रस्ताव किया। सहदेव ने सर्वप्रथम कृष्णको अर्ध्यदान दिया। चेदि-नरेश शिशुपाल कृष्ण के इस सम्मान को सहन न कर सका और उलटी-सीधी बातें करने लगा। उसने युधिष्ठिर से कहा कि 'कृष्ण न तो ऋत्विक् है, न राजा और न आचार्य। केवल चापलूसी के कारण तुमने उसकी पूजा की है। शिशुपाल दो कारणों से कृष्ण से विशेष द्वेष मानता था-प्रथम तो विदर्भ कन्या रुक्मिणी के कारण, जिसको कृष्ण हर लाये थे और शिशुपाल का मनोरथ अपूर्ण रह गया था। दूसरे जरासंध के वध के कारण, जो शिशुपाल का घनिष्ठ मित्र था। जब शिशुपाल यज्ञ में कृष्ण के अतिरिक्त भीष्म और पांडवों की भी निंदा करने लगा तब कृष्ण से न सहा गया और उन्होंने उसे मुख बंद करने की चेतावनी दी। किंतु वह चुप नहीं रह सका। कृष्ण ने अन्त में शिशुपाल को यज्ञ में ही समाप्त कर दिया। अब पांडवों का राजसूर्य यज्ञ पूरा हुआ। पर इस यज्ञ तथा पांडवों की बढ़ती हुई साख को देख उनके प्रतिद्वंद्वी कौरवों के मन में विद्वेश की अग्नि प्रज्वलित हो उठी और वे पांडवों को नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे।

महाभारत में यादव -
इस प्रकार कृष्ण भी संधि कराने में असफल हुए। अब युद्ध अनिवार्य हो गया। दोनों पक्ष अपनी-अपनी सेनाएँ तैयार करने लगे। इस भंयकर युद्धग्नि में इच्छा या अनिच्छा से आहुति देने को प्राय: सारे भारत के शासक शामिल हुए। पांडवों की ओर मध्स्य, पंचाल, चेदि, कारूश, पश्चिमी मगध, काशी और कंशल के राजा हुए। सौराष्ट्र-गुजरात के वृष्णि यादव भी पांडवो के पक्ष में रहे। कृष्ण, युयंधान और सात्यकि इन यादवों के प्रमुख नेता थे। ब्रजराम अद्यपि कौरवों के पक्षपाती थे, तो भी उन्होंने कौरव-पांडव युद्ध में भाग लेना उचित न समझा और वे तीर्थ-पर्यटन के लिए चले गये। कौरवों की और शूरसेन प्रदेश के यादव तथा महिष्मती, अवंति, विदर्भ और निषद देश के यादव हुए। इनके अतिरिक्त पूर्व में बंगाल, आसाम, उड़ीसा तथा उत्तर-पश्चिम एवं पश्चिम भारत के बारे राजा और वत्स देश के शासक कौरवों की ओर रहे। इस प्रकार मध्यदेश का अधिकांश, गुजरात और सौराष्ट्र का बड़ा भाग पांडवों की ओर था और प्राय: सारा पूर्व, उत्तर-पश्चिम और पश्चिमी विंध्य कौरवों की तरफ। पांडवों की कुल सेना सात अक्षौहिणी तथा कौरवों की ग्यारह अक्षौहिणी थी।

लेकिन क्या कृष्ण की पूजा सिर्फ हिन्दू करते हैं?

जैन धर्म - जैन धर्म में सबसे ऊंचा स्थान चौबीस तीर्थंकरों हैं। जब कृष्ण को जैन वीरों की सूची में शामिल किया गया तो यह एक समस्या थी क्योंकि वे शांतिवादी नहीं थे। इसे हल करने के लिए बलदेव, वासुदेव और प्रति-वासुदेव की अवधारणा का इस्तेमाल किया गया। जैन महापुरुष की सूची में तिरेसठ शलाकापुरुष थे जिनमें चौबीस तीर्थंकरों और इस त्रय के नौ सेट शामिल थे। इस त्रय में से एक में वासुदेव के रूप में कृष्ण, बलदेव के रूप में बलराम और प्रति-वासुदेव के रूप में जरासंध हैं। वे 22 वें तीर्थंकर नेमिनाथ के चचेरे भाई थे। कृष्ण इनके पास बैठकर इनके प्रवचन सुना करते थे। जैन धर्म ने कृष्ण को उनके त्रैषठ शलाका पुरुषों में शामिल किया है, जो बारह नारायणों में से एक है। ऐसी मान्यता है कि अगली चौबीसी में कृष्ण जैनियों के प्रथम तीर्थंकर होंगे।
''उन-उन भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, वे लोग अपने स्वभाव से प्रेरित होकर उस-उस नियम को धारण करके अन्य देवताओं को भजते हैं अर्थात पूजते हैं। परन्तु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल नाशवान है तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजें, अन्त में वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।''-कृष्ण

बौध धर्म - कृष्ण की कहानी बौद्ध धर्म में जातक कथाओं में, वैभव जातक में है, जहाँ कृष्ण को भारत के राजा के रूप में तथा एक राजकुमार और महान विजेता कहा गया है। बौद्ध संस्करण में, कृष्ण को वासुदेव, कान्हा और केशव कहा जाता है, और बड़े भाई बलराम बलदेव है। ये विवरण भागवत पुराण में दी गई कहानी के जैसे लगते हैं।

बहाई धर्म - बहाई कृष्णा को एक "इश्वर की अभिव्यक्ति" मानते हैं जो धीरे - धीरे परिपक्व होते मानवता के लिए पैगम्बर के श्रेणी में एक के रूप में विश्वास करते हैं।
अहमदिया इस्लाम - अहमदिया समुदाय के मानने वाले उनके संस्थापक मिर्जा गुलाम अहमद द्वारा वर्णित इश्वर के महान पैगम्बर के रूप में होने का विश्वास करते है।

कृष्ण का अंत -
आर्यभट्‍ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ई.पू. में हुआ। नवीनतम शोधानुसार यह युद्ध 3067 ई. पूर्व हुआ था। इस युद्ध के 35 वर्ष पश्चात भगवान कृष्ण ने देह छोड़ दी थी। तभी से कलियुग का आरम्भ माना जाता है।
कृष्ण जन्म और मृत्यु के समय ग्रह-नक्षत्रों की जो स्थिति थी उस आधार पर ज्योतिषियों अनुसार कृष्ण की आयु 119-33 वर्ष आँकी गई है। उनकी मृत्यु एक बहेलिए के तीर के लगने से हुई थी।
ऐसा माना जाता है की जब महाभारत (३१३८ ईसा पूर्व) के ३६ वर्षों बाद जंगल में व्याध जारा के बाण से कृष्ण घायल हुए तो उन्होंने मृत्युलोक छोड़ कर वैकुण्ठ की ओर प्रस्थान किया। वन में श्रीकृष्ण भूमि पर लेटे थे। उस समय एक व्याघ मृगों को मारने की इच्छा से उधर आ निकला। व्याघ ने दूर से श्रीकृष्ण को मृग समझकर उन पर बाण चला दिया। जब वह पास आया तो पीताम्बरधारी कृष्ण को वहाँ देख भयभीत हो खड़ा रह गया।
तब अर्जुन द्वारका आकर कृष्ण के पौत्रों एवं उनके पत्नियों को हस्तिनापुर ले गए। जब अर्जुन द्वारका छोड़े तब यह भव्य शहर समुद्र में समा गया. महाभारत में अर्जुन ने इसका वर्णन इस प्रकार किया है -
......प्रकृति द्वारा यह लाया गया था. समुद्र शहर की ओर तेजी से बढ़ा. समुद्र पूरे शहर को निगल गया। मैंने देखा की ख़ूबसूरत भवन एक एक करके जलमग्न हो रहे थे। कुछ ही क्षण में वह स्थल एक शांत झील में परिवर्तित हो गया। शहर का की निशान नहीं था। द्वारका का सिर्फ नाम रह गया, बस उसकी स्मृति रह गयी।
विष्णु पुराण भी द्वारका के समुद्र द्वारा निगले जाने का जिक्र है - जिस दिन श्री कृष्ण संसार छोड़े उसी दिन कलि-युग का आगमन हुआ। समुद्र मेंवृद्धि हुई और सम्पूर्ण द्वारका जलमग्न हो गया।

अंतत: कृष्ण के जीवन के कई उलझे हुए पहलू हैं जिन्हें समझना आसान नहीं है किंतु फिर भी गहन अध्ययन किया जाए तो उनके जीवन की सच्चाई को जाना जा सकता है। परन्तु सबसे है इस युग पुरुष के धार्मिक, अध्यात्मिक और ऐतिहासिक अस्तित्व को अलग अलग करके देखना।



एक राजनैतिक दल आम आदमी पार्टी की अपील मैं देख रहा था जिसमें दिल्ली के कंस कोंग्रेस को चुनाव में वध करने के लिए इस तरह से आह्वान किया गया है -
भ्रष्टाचार और शोषण की राजनीति के खिलाफ धर्मयुद्ध के महानायक 'श्रीकृष्ण' के जन्मदिवस पर शुभकामनाएं. श्री कृष्ण, एक ऐसे आन्दोलनकारी थे जो पूरा जीवन आम आदमी का शोषण करने वाली सत्ता के खिलाफ लडते रहे. उन्होंने कंस की सत्ता को उखाड़ फेंका था, दिल्ली विधानसभा चुनाव राजनीति में बैठे कंस को खत्म करने का एक मौका होगा. इस जन्माष्टमी पर, अपने अंदर बैठे श्रीकृष्ण को जिंदा कीजिए और आम आदमी पार्टी को वोट देने का संकल्प लीजिए दीजिए.
हरे कृष्ण।

Monday, August 19, 2013

बदला - धमहरा स्टेशन हादसा : हमारे लोगों की दुखद मौत -



मधेपुरा - सहरसा के लोगों के लिए यह अत्यंत दुःख का समय है। एक दो नहीं, कम-से-कम 37 श्रद्धालुओं की मौत हुई है।

सोमवार की सुबह राज्यरानी एक्सप्रेस ट्रेन (ट्रेन नंबर 12567) सहरसा से पटना जा रही थी। यह घटना धमहरा स्टेशन के पास हुई। यहां मां कात्यायिनी का एक मंदिर है, जहां पूजा के लिए लोग जमा थे। वैसे आज़ादी के 67 वर्ष बाद भी इस क्षेत्र में सड़क मार्ग नहीं है। मंदिर जाने के लिए भी रेलवे ट्रैक पर चलना पड़ता है। यहां स्टेशन पर किसी को भी ट्रेन के आने की जानकारी नहीं दी गई। अचानक ट्रेन के आ जाने से पटरी पर खड़े लोग इसकी चपेट में आ गए।

इसके लिए कौन जिम्मेदार है?

हादसे के बाद रेल राज्य मंत्री अधीर रंजन चौधरी ने कहा कि स्थानीय प्रशासन की लापरवाही के कारण यह हादसा हुआ है। बीजेपी - आरजेडी भी नीतीश सरकार पर निशाना साध रही है।

यह तो जाहिर है की इतने बड़े पूजा होने के बावजूद यहाँ स्थानीय प्रशासन के तरफ से कोई इंतजाम नहीं था। और रेलवे भी यह देखते हुए की इतनी भीड़ है, आने वाले ट्रेन ड्राईवर को अथवा ट्रेक पर लोगों को कोई चेतावनी नहीं दिए। गलती जिसकी भी हो, जान तो बेगुनाह लोगों की ही गयी। अब मुआवजा देने से भी उनके परिवार को इस नुकसान की भरपाई हो पायेगी क्या?

क्या करें, समय बीत जायेगा और जिम्मेदारी तय नहीं हो पायेगी। जैसे कोसी आपदा के 5 वर्ष बाद भी नितीश सरकार द्वारा इस त्रासदी की जिम्मेदारी तय करने के लिए बिठाया गया राजेश बलिया आयोग, जिसे तीन महीने में रिपोर्ट देनी थी, आयोग पर 5 करोड़ रुपये खर्च होने के बाद भी जिम्मेदारी पर रिपोर्ट नहीं दी है। आयोग और जाँच जिम्मेदारी तय करने के लिए नहीं, बल्कि जिम्मेदार को बचाने के लिए बनाये जाते हैं।

6 जून, 1981, को इसी स्टेशन के पास मानसी और सहरसा के बीच.अब तक की सबसे भीषण रेल दुर्घटना हुई थी जब एक यात्री ट्रेन पुल पार करते वक़्त पटरी से उतर गई और बागमती नदी में बह गई। इस दुर्घटना के पांच दिनों के बाद भी 200 से अधिक शव नदी में बह रहे थे कि सैकड़ों से अधिक लापता हो गए थे। अनुमान था की 500 से 800 लोग इस दुर्घटना में मरे थे। बाद में कहा गया की एक बैल या भैंस के पुल पर आ जाने पर ब्रेक मारते हुए फेल होने से यह दुर्घटना हुई।
एक तो इस इलाके में सड़क नहीं और कोई अच्छा ट्रेन भी नहीं है। बहुत दिनों के बाद यह राज्य-रानी एक्सप्रेस चली थी जो ठीक-ठाक समय में सहरसा से पटना पहुंचा देती है। परन्तु एक महीने पहले ही इस ट्रेन को पकड़ने के लिए मधेपुरा से चलने वाली ट्रेन बंद कर दी गयी। गौरतलब है की मधेपुरा से कई वर्षों से यहाँ से बहार के राष्ट्रिय नेता शरद यादव सांसद है।

आज मरने वाले शोक संतप्त परिवार को ढाढस देने का समय है।



लेकिन मैं इतना ही उम्मीद करता हूँ की दुर्घटना के कारण जो भी रेल सुविधा क्षेत्र को उपलब्ध है उसे बेहतर करें और सड़क मार्ग से जल्द जोड़ने का प्रयास हो। ऐसा नहीं की जो भी उपलब्ध था उसे भी छीन लिया जाय।

Sunday, August 18, 2013

पत्रकारों की छटनी - Mass sacking of Journalists.


पत्रकारों की छटनी -
जिस `मेरिट` की धार से अक्सर सामाजिक न्याय के सिद्धांत को काटा जाता है, और जिसे आम तौर पर पत्रकारों का भरपूर समर्थन भी मिलता रहा है, उसी तलवार से लगभग 300 पत्रकारों को नौकरी से निकालने का अन्याय किया गया है और नेता- जनता, पक्ष-विपक्ष चुप है। चिढाने के लिए अजय माकन जैसे कांग्रेस के नेता घरियाली आंसू बहते हुए ट्वीट करते हैं - Regular mtng with journos in my room at AICC.Sad not to see many regular faces.They were frm TV18.Good hardworking journos.Feel bad for them; और दिखाते हैं कि सरकार में रहते हुए भी वे कॉर्पोरेट के आगे कितने बेबस हैं।

दरअसल एक-दो दिन पूर्व टीवी 18 ब्रॉडकास्ट, सीएनएन-आईबीएन, आईबीएन 7 से करीब 300 स्टाफ-कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया गया है। नौकरी से निकाले गए में कुछ वरिष्ट पत्रकार और एंकर भी शामिल हैं। खबर है की और छटनी होने की आशंका है। टीवी 18 NBC Universal और मुंबई में आधारित नेटवर्क 18 समूह के बीच भारत में 50/50 के आधार पर संयुक्त उद्यम आपरेशन है।

तो जब यह समाचार चल रहा था ... ''ब्‍लडबॉथ इन दलाल स्‍ट्रीट... ब्‍लैक फ्राइडे...'' तो उससे भी बुरा हाल हो था सीएनबीसी आवाज टीवी चैनल में काम करने वाले कर्मचारियों का।

ध्यान देने की बात है कि हर अन्याय का विरोध करने वाले प्रेस में काम करने वाले पत्रकारों की ओर से कोई खास विरोध नहीं हुआ है। कारण स्पष्ट है की अधिकांश मीडिया कॉर्पोरेट के हाथों में है। और भारत में कानून कॉर्पोरेट पर लागू नहीं होता, बल्कि कॉर्पोरेट के लिए कानून बनते हैं। उदाहरण के रूप में जो सरकार मानती है की मार्केट फोर्सेज (बाजारी ताक़तों) पर देश को छोड़ देना चाहिए, वह सरकार गैरकानूनी और असंवैधानिक तरीके से मीडिया की भरपूर कमाई और लोगों के पॉकेट से जबरन रुपये निकालने के लिए अनिवार्य सेट टॉप बॉक्स का कानून बना कर लागू कर दिया और पक्ष-विपक्ष मेज थप-थपाते रह गए। तो क्या पत्रकारों के हक के लिए कोई कानून नहीं बन सकता है? खास तौर से जब एक कांग्रेसी कॉर्पोरेट सांसद नवीन जिन्दल के कोयला घोटाले में भूमिका के उजागर को रोकने के लिए जी ग्रुप के चेयरमैन सहित अन्य पत्रकारों पर मुक़दमा ठोक दिया गया और जलील किया गया।

और रेगुलेटर के दौर में, क्या मीडिया रेगुलेटर को पत्रकारों के हित की रक्षा का भार सौंपा नहीं जा सकता है। इस सरकार ने, या यूं कहें की NDA सरकार के समय से, शासन का भर रेगुलेटर को दिया जा रहा है। तो फोन का रेट टेलिकॉम रेगुलेटर तय करेगा, रेल भाडा और बाद में रेलकर्मियों का वेतन आदि रेगुलेटर तय करेंगे। तो मंत्री और मंत्रालयों का क्या काम? जनता का धन दो सत्ता के केन्द्रों पर क्यों खर्च हो? क्यों नहीं PM और रेगुलेटर सभी कुछ तय करें और कॉर्पोरेट संसद की सदस्यता को नीलामी से प्राप्त कर लें। खैर यह अलग मुद्दा है।

पत्रकारों का असल शोषण और दोहन तो छोटे स्तर पर होता है। हिंदुस्तान जैसे अख़बार का एक संवाददाता को 4-5 हज़ार रुपये और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार के समाचार पर सौ-दो सौ रुपये देकर उन्हें मजबूर किया जाता है की वे अपने व्यवसाय के साथ धोखा करे या उसकी बोली लगवाएं। क्या वरिष्ठ पत्रकारों का इनके लिए कोई कर्त्यव्य नहीं है?

इतने पत्रकारों के साथ हुए अन्याय पर हर बात पर बोलने वाले प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया के अध्यक्ष जस्टिस काटजू कहा चुप हैं? जिस सिद्दत से वे नरेन्द्र मोदी की कमियां गिनातें हैं, इस विषय पर वे उसी सिद्दत से क्यों नहीं सरकार पर दवाब बनाते हैं?

तो दिक्कत निजीकरण की निति में ही है और सरकार के अप्रभावी और कॉर्पोरेट के रखैल बनने में ही है। मैं आव्हान करता हूँ अपने पत्रकार साथियों से जहाँ भी मुझ जैसे छोटे कार्यकर्त्ता भी अगर कॉर्पोरेट के दखलंदाज़ी का विरोध करें, तो ज़रूर साथ दें।



और मैं अपने पत्रकार साथियों से यह भी कहना चाहूँगा की इस अन्याय का विरोध ज़रूर करें और हम जैसे कार्यकर्ता आपके साथ हैं। हम विपक्ष से, और खास तौर से श्री नरेन्द्र मोदी से, अपील करते हैं की इस अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठायें।
जय हिन्द।

Saturday, August 17, 2013

गलत आर्थिक विश्लेषण -


मीडिया/टेलीविजन पर बहस में पढ़े लिखे अज्ञानी अनजान बनते हुए देश को बतलाना चाहते है की देश में आर्थिक दुर्दशा की वजह आर्थिक सुधार में कमी और गरीबों के लिए खर्च की जा रही राशी है।

अब और कितना बिकेगा देश सुधारों के नाम पर? देश में उत्पादन ठप है और चीन जैसे देशों के बेकार चीजों को देश में डंप कर बेरोजगारों से रोजगार छीन लिया गया है। जहाँ अमरीका रोज़गार बचाने के नाम पर भारत जैसे देशों में कॉल सेंटर व्यवस्था को गैर कानूनी बना चुकी है, हम तथाकथित वैश्वीकरण के नाम पर देश को विदेशी कंपनियों को नोचने के लिए छोड़ दिए हैं।

पर सबसे महत्वपूर्ण देश की आर्थिक नीतियों से रिलायंस जैसे कोर्पोरेट मालामाल हो रहें हैं, और आम जनता तंगहाल कंगाल, उसे बदलने की जगह उसे जारी रखने की कसमें खाई जा रही है।

और देश के अरबों-खरबों की संपत्ति लूट कर काले धन के रूप में आज भी रोज विदेश जा रही है, उसे रोके बिना कैसे अर्थव्यवस्था पटरी पर आएगी। वर्षों पहले कांग्रेस के वयोवृद्ध नेता और अध्यक्ष दादाभाई नैरोजी ने अपने किताब Poverty and Un-British Rule in India में ड्रेन ऑफ़ वेल्थ यानि की धन के पलायन के सिद्धांत को समझाए थे। आज उससे भी विषम स्थिति है। उसे रोके बिना, देश की आर्थिक स्थिति में सुधार संभव नहीं है।

दादाभाई नैरोजी ने 1870 में अपने तथ्यों और आँकड़ों से यह सिद्ध कर दिया कि भारतीय के दरिद्रता में आकंठ डूबे रहने का कारण अंग्रेजों द्वारा शासन पर खर्च और विदेश भेजे गए धन था। उस समय भारत की प्रशासकीय सेवा दुनियाँ में सबसे महँगी थी। भारतीयों की आर्थिक स्थिति के संबंध में प्रारंभिक सर्वेक्षण के बाद यही निष्कर्ष निकला कि देश में एक व्यक्ति की औसत वार्षिक आय कुल बीस रुपए थी।

आज 160 वर्ष बाद भी शासन पर खर्च, भ्रष्टाचार और विदेशों के बैंकों में जमा काला धन से देश के बाहर जाने से आर्थिक स्थिति ख़राब है।

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मनमोहन के अर्थ अव्यवस्था ?

एक वरिष्ठ नेता मुझे बता रहे थे की सोनिया गाँधी शुरू से ही पी वी नरसिम्ह राव से इर्ष्या करती थीं और उनके कार्यकाल में हो रहे आर्थिक सफलताओं के श्रेय सार्वजनिक रूप से तात्कालिक वित्त मंत्री मनमोहन सिंह को देती थी। कांग्रेस अध्यक्षा चिदंबरम के तमाम अक्षमताओं के बावजूद उन्हें भी तरजी देती हैं।
आज मनमोहन और चिदंबरम के अर्थव्यवस्था संचालन की हवा निकल रही है।
दरअसल आर्थिक सुधार के नाम पर देश को बेच रहें हैं और ऊपर से घोटालो की लूट से बंटाधार तो तय है। लेकिन ये देश का सत्यानाश करके ही दम लेंगे। अर्थव्यस्था पर मंडराते खतरे के बीच पीएम ने कहा कि दुनिया के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था के दरवाजे अब बंद नहीं कर सकते। समझिये लूट जारी रहेगी। पीएम ने यह भी कहा है कि अब 1991 जैसे हालात नहीं होंगे। क्योंकि हालात तो उससे भी ख़राब होने वाले हैं।

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रुपए में रिकॉर्ड गिरावट, सोना भी हुआ तीस हजारी - रूपया का डॉलर के मुकाबले कीमत निरंतर गिरने की वजह और परिणाम दोनों रिलायंस के फायदे के लिया पेट्रोल डीजल का दाम बार बार बढ़ाना है। रिलायंस के चुंगल से सरकार और तेल के निकलते ही रुपये की कीमत स्थिर हो जाएगी।


UPA Government - Reliance – the cause of crash of the Rupee value vis-a vis Dollar.
16 August 2013 at 18:48

The rupee is on record low ever. This is a matter of worry or the economy, companies as well asconsumers. A study of the latest annual earnings data of top BSE 500 companiesby the ET Intelligence Group reveals the impact of the weak rupee on IndiaInc's import and exports bill.

On the net level, asignificantly weakened rupee is bound to adversely impact the country'scommerce. India Inc earns 20% of its standalone revenues from exports.

However,it spends over 36% of its revenues on imports. A 8.9% depreciation in the rupeeagainst the dollar and similar movement against other major currencies of theworld since the beginning of the current quarter is likely to impact thecompanies' net forex bill.

Reliance Industries leads the pack in our study - being the the highest import spending. InFY12, its imports bill stood at Rs 2.64 lakh crore, eating up 77.7% of totalrevenues. Incidentally, oil companies dominate the list of companies' withhighest forex spends, and Reliance is the top Private sector Oil company.

Government has decontrolled Oil and Gas price for the benefit of Reliance alone.

Sunday, August 11, 2013

खुदीराम बोस को सलाम -


खुदीराम बोस को सलाम -

खुदीराम बोस ( जन्म: १८८९ - मृत्यु : १९०८) मात्र १९ साल की उम्र में हिन्दुस्तान की आजादी के लिये फाँसी पर चढ़ गये। खुदीराम का जन्म ३ दिसंबर १८८९ को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के बहुवैनी नामक गाँव में बाबू त्रैलोक्यनाथ बोस के यहाँ हुआ था। उसकी माता का नाम लक्ष्मीप्रिया देवी था। बालक खुदीराम के मन में देश को आजाद कराने की ऐसी लगन लगी कि नौवीं कक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी और स्वदेशी आन्दोलन में कूद पड़ा। स्कूल छोडने के बाद खुदीराम रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वन्दे मातरम् पैफलेट वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। १९०५ में बंगाल के विभाजन (बंग - भंग) के विरोध में चलाये गये आन्दोलन में उन्होंने भी बढ़-चढ़कर भाग लिया।

मिदनापुर में ‘युगांतर’ नाम की क्रांतिकारियों की गुप्त संस्था के माध्यम से खुदीराम क्रांतिकार्य पहले ही में जुट चुके थे। १९०५ में लॉर्ड कर्जन ने जब बंगाल का विभाजन किया तो उसके विरोध में सडकों पर उतरे अनेकों भारतीयों को उस समय के कलकत्ता के मॅजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड ने क्रूर दण्ड दिया। अन्य मामलों में भी उसने क्रान्तिकारियों को बहुत कष्ट दिया था । इसके परिणामस्वरूप किंग्जफोर्ड को पदोन्नति देकर मुजफ्फरपुर में सत्र न्यायाधीश के पद पर भेजा । ‘युगान्तर’ समिति कि एक गुप्त बैठक में किंग्जफोर्ड को ही मारने का निश्चय हुआ। इस कार्य हेतु खुदीराम तथा प्रफुल्लकुमार चाकी का चयन किया गया । खुदीरामको एक बम और पिस्तौल दी गयी। प्रफुल्लकुमार को भी एक पिस्तौल दी गयी । मुजफ्फरपुर में आने पर इन दोनों ने सबसे पहले किंग्जफोर्ड के बँगले की निगरानी की । उन्होंने उसकी बग्घी तथा उसके घोडे का रंग देख लिया । खुदीराम तो किंग्जफोर्ड को उसके कार्यालय में जाकर ठीक से देख भी आया ।

३० अप्रैल १९०८ को ये दोनों नियोजित काम के लिये बाहर निकले और किंग्जफोर्ड के बँगले के बाहर घोडागाडी से उसके आने की राह देखने लगे। खुदीराम ने किंग्जफोर्ड की गाडी समझकर बम फेंका था परन्तु उस दिन किंग्जफोर्ड थोडी देर से क्लब से बाहर आने के कारण बच गया । दैवयोग से गाडियाँ एक जैसी होने के कारण दो यूरोपियन स्त्रियों को अपने प्राण गँवाने पडे। खुदीराम तथा प्रफुल्लकुमार दोनों ही रातों - रात नंगे पैर भागते हुए गये और २४ मील दूर स्थित वैनी रेलवे स्टेशन पर जाकर ही विश्राम किया।
अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लग गयी और वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया। अपने को पुलिस से घिरा देख प्रफुल्लकुमार चाकी ने खुद को गोली मारकर अपनी शहादत दे दी जबकि खुदीराम पकड़े गये। ११ अगस्त १९०८ को उन्हें मुजफ्फरपुर जेल में फाँसी दे दी गयी। उस समय उनकी उम्र मात्र १९ साल की थी।



जय हिन्द।

Thursday, August 8, 2013

जिला के लिए संघर्ष - मधेपुरा बनाम सहरसा 1947 -


हालाँकि सहरसा 1 अप्रैल 1954 में भागलपुर जिला से बांटकर जिला घोषित हुआ। लेकिन 1947 से ही मधेपुरा को सहरसा की जगह जिला घोषित किये जाने की मुहीम चल रही थी।
इसी उद्देश्य को लेकर मधेपुरा के कांग्रेस आफिस में दिनांक 8-8-1947 को शाम 7 बजे एक सार्वजानिक सभा हुई थी जिसका ब्यौरा इस प्रकार से है -
प्रस्ताव संख्या 1 - श्री भूपेंद्र नारायण मंडल को सभा का सभापति बनाने का प्रस्ताव हुआ।
प्रस्तावक - श्री उमादास गांगुली।
समर्थक - श्री शीतल प्रसाद मंडल।
प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकृत हुआ।

प्रस्ताव संख्या 2 - यह प्रस्ताव किया जाता है की मधेपुरा में निम्नलिखित कारणों से जिले सदर मुकाम हो -
(1) मधेपुरा उत्तर भागलपुर के मध्य में पड़ता है, लेकिन सहरसा जिले के दक्षिण-पश्चिम किनारें पर है।
(2) मधेपुरा 80 वर्ष पुराना सबडिविजन है। सुपौल और मधेपुरा में सिविल कोर्ट, क्रिमिनल कोर्ट, जेल, अस्पताल तथा प्रायः सभी प्रकार के सरकारी महकमें मौजूद हैं। जनसाधारण को मधेपुरा आने-जाने और रहने की काफी सुविधा है। लेकिन सहरसा एक नयी जगह है और वहां सभी बातों का आभाव है। इस तरह मधेपुरा में जिले की सदर मुकाम होने से सरकारी रुप्पियों की भी काफी बचत होगी।
(3) मधेपुरा कोशी से दूर है और इसकी सतह सहरसा की सतह से 5 (पांच) फुट ऊँची है। लेकिन सहरसा अभी भी कोशी, तिलाबे तथा धीमरा की प्रखर धाराओं से प्रभावित है।
(4) जलवायु की दृष्टि से भी मधेपुरा स्वस्थ्य-कर है। सहरसा भयंकर महामारियों (प्लेग,मलेरिया,कालाज्वर, हैजा, चेचक वगैरह) से प्रतिवर्ष पीड़ित रहता है।
(5) यातायात के ख्याल से जिला महकमें तथा जन-सुविधाओं के लिए मधेपुरा ही विशेष सुगम है। मुरलीगंज तक रेल सम्बन्ध, फुलौत तक बढ़िया सड़क आदि है।
(6) सुपौल के सात थानों के अन्दर सिर्फ सुपौल और थरबिट्टा के सिवाय शेष पांच थानें (भीमनगर, प्रतापगंज, डगमारा, त्रिवेणीगंज, छातापुर) के लोगों को मधेपुरा होकर ही सहरसा जाना पड़ता है। इसी तरह लोधरहारा को छोड़कर बांकीये सात थाने (मधेपुरा, सिंघेश्वर स्थान, सौर बाज़ार, सोनबर्षा, किशुनगंज, आलमनगर, मुरलीगंज) के लोगों को मधेपुरा आना ही सुविधाजनक है।
(7) यह सभा सरकार से मांग करती है कि वस्तुस्थिति की जांच के लिए एक निष्पक्ष कमीशन नियुक्त कर आवश्यक कार्यवाई करें।
(8) निशचय हुआ कि निम्नलिखित पाँच सज्जनों का एक डेलेगेशन अतिशीघ्र ही आवश्यक अधिकारीयों से मिलकर उक्त मांगों को पेश करें -
(क) बाबू भुवनेश्वरी प्रसाद मण्डल
(ख) बाबू सागर मल
(ग) मौलवी हलीम
(घ) बाबू कार्तिक प्रसाद सिंह
(ङ्) प्रेजिडेंट, थाना कांग्रेस कमिटी
(9) इस आन्दोलन को बराबर चालू रखने के लिए निम्नलिखित सज्जनों की एक कमिटी बनायी गयी -
(1) बाबू बिन्ध्येश्वरी प्रसाद मण्डल (सेक्रेटरी)
(2) बाबू महावीर प्रसाद सिंह
(3) बाबू सुधीन्द्र नाथ दास
(4) बाबू कमलेश्वरी प्रसाद मण्डल
(5) काजी अबू ज़फर
(6) बाबू गजेन्द्र नारायण महतो
(7) बाबू शीतल प्रसाद मण्डल
(8) बाबू हलधर चौधरी
(9) बाबू कमलेश चन्द्र भाधुरी
(10) बाबू सुरेन्द्र नारायण सिंह
(11) बाबू कैलाशपति मण्डल

(10) यह प्रस्तावित हुआ है कि निम्न-लिखित अधिकारीयों को ये प्रस्ताव भेजें जाएँ -
1. Home Member, Government of India.
2. President, Constituent Assembly.
3. H. E. Governor of Bihar.
4. Prime Minister, Government of Bihar.
5. President, Bihar Provincial Congress Committee.
6. Hon`ble Health Minister, Government of Bihar.
7. Parliamentary Secretary
Babu Shiv Nandan Prasad Mandal & Babu Bir Chand Patel

Sd/-
(Bhuvneshwari Prasad Mandal)
President.
8/8/47.


आन्दोलन हेतु चंदा देने वाले सदस्य -
(1) बाबू बिन्ध्येश्वरी प्रसाद मण्डल - 10 रु/-
(2) बाबू सागर मल - 10 रु/-
(3) बाबू मदन राम - 10 रु/-
(4) बाबू रघुनन्दन प्रसाद मण्डल - 15 रु/-
(5) बाबू शीतल प्रसाद मण्डल - 5 रु/-
(6) बाबू नंदन प्रसाद सिंह - 5 रु/-
(7) बाबू भुवनेश्वरी प्रसाद मण्डल - शेष खर्च।

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मधेपुरा को जिला बनाये जाने की मुहीम के समय पूरे प्रकरण के अभिभावक और संरक्षक मधेपुरा के महान सपूत स्व रासबिहारी लाल मण्डल के बड़े पुत्र स्व भुवनेश्वरी प्रसाद मण्डल थे जो उस समय भागलपुर जिला कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष थे। वे तात्कालिक भागलपुर लोकल बोर्ड (जिला परिषद्) के भी अध्यक्ष थे। परन्तु इसी मुहीम के दौरान 1948 में उनकी मृत्यु हो गयी। बाद में उनके फुफेरे भाई स्व भूपेंद्र नारायण मण्डल (रानीपट्टी) और उनके अपने छोटे भाई स्व बी पी मण्डल इस मांग के लिए संघर्ष करते रहे। लेकिन ऐसा माना जाता है की सहरसा को जिला बनाने के फैसले के समय मधेपुरा के अन्य बड़े नेता स्व शिवनंदन प्रसाद मण्डल (रानीपट्टी), जो बिहार सरकार में तात्कालिक कबिनेट मंत्री थे, से चूक हुई थी।
9 मई, 1981 को मधेपुरा जिला बनाये जाने की औपचारिक घोषणा रासबिहारी विद्यालय में आयोजित एक समारोह में की गयी थी। उदघाटनकर्ता बिहार के तात्कालिक मुख्यमंत्री डा जगनाथ मिश्र थे और सभा की अध्यक्षता पूर्व मुख्यमंत्री और मधेपुरा के पहले विधायक और कई बार रहे सांसद स्व बी पी मण्डल कर रहे थे। अपने भाषण की शुरुआत करते हुए स्व बी पी मण्डल ने कहा था की मैं इश्वर को धन्यवाद देता हूँ की यह दिन देखने के लिए जीवित हूँ।
मधेपुरा को जिला घोषित किये जाने के लम्बे पृष्ठभूमि में स्व बी पी मण्डल के इस उदगार को समझा जा सकता है।
ध्यान देने की बात है कि 1935 के गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट के तहत कुछ प्रान्तों में जो चुनाव हुए, वहाँ के सदर को प्राइम मिनिस्टर या प्रीमियर कहा जाता था। अतः जिला बनाने के लिए बिहार के प्राइम मिनिस्टर को ज्ञापन देने की बात हुई थी जो उस समय डॉ श्रीकृष्ण सिंह थे।

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प्रस्तुति -
सूरज यादव।
प्राध्यापक, दिल्ली विश्वविद्यालय।
8/8/2013

Sunday, July 28, 2013

आरक्षण पर भ्रम -


आरक्षण के लागू किये जाने में कई तरह के भ्रम पैदा किये जाते रहें हैं और कई बार ऐसा जान-बूझ कर किया जाता है, जिससे उल्टा आरक्षण लागू होता है। उधारण के लिए 100 पदों पर अगर नियुक्ति होनी है तो पहले 50 पर प्रतियोगिता में सफल कोई भी उम्मीदवार भले वह सामान्य, अनुसूचित जाति / जनजाति, पिछड़े वर्ग से हो शामिल होंगे। उसके बाद के 50 पदों पर 27% पर पिछड़े वर्ग और फिर 22.5 % पर अनुसूचित जाति। जनजाति नियुक्त होंगे।

परन्तु अक्सर पहले सभी आवेदकों में से अनुसूचित जाति/ जनजाति के 22.5 % और पिछड़े वर्ग के 27% छाँट दिए जाते हैं और बचे 50.5 % के लिए उन्हें अलग रखा जाता है जिससे सामान्य वर्ग के लगभग 15% उच्च जातियों के लिए यह 50.5 % एक तरह से अरक्षित हो जाता है।

मंडल कमीशन के रिपोर्ट दिए जाने के समय बिहार में कर्पूरी ठाकुर द्वारा पिछड़े वर्ग के आरक्षण के लिए लगभग इसी तरह व्याख्या की गयी थी, और उधर कर्पूरी ठाकुर के उच्च जाति के पक्ष में किये गए क्रियान्वन के बावजूद उनके विरुद्ध इस पर राजनैतिक घमाशन शुरू हो गया था। इसी दौरान कर्पूरी फार्मूला के तहत मंडल कमीशन के अनुशंसाओं से अलग हटकर एनेक्सचर 1 और 2 लागू किया गया। परन्तु उनके बाद जब रामसुंदर दास बिहार के मुख्यमंत्री बने तो बी पी मंडल के सलाह पर उन्होंने इस गलती की सुधार की।

इस विषय पर मंडल कमीशन के रिपोर्ट में भी स्पष्टीकरण देते हुए महत्वपूर्ण अनुशंसा की गयी है और उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न फैसलों और भारत सरकार के कार्मिक विभाग के आदेश पर स्थिति स्पष्ट है।

मंडल कमीशन की रिपोर्ट इस पर एक महत्वपूर्ण अनुशंसा करते हुए कहता है कि ^ अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित अभ्यर्थियों को एक खुली प्रतियोगिता में योग्यता के आधार पर भर्ती 27 प्रतिशत से उनके आरक्षण कोटे में समायोजित नहीं किया जाना चाहिए।^
(Candidates belonging to OBC recruited based on merit in an open competition should not be adjusted against their reservation quota of 27 per cent.)

इधर भारत सरकार के कार्मिक विभाग के 13 अगस्त, 1990 के आदेश संख्या "No. 36012/31/90-Estt. (SCT) के अनुसार ^ (iii) SEBC से संबंधित अभ्यर्थियों को सामान्य उम्मीदवारों के लिए निर्धारित एक ही मानकों पर एक खुली प्रतियोगिता में योग्यता के आधार पर भर्ती होने पर 27 प्रतिशत के आरक्षण कोटे में समायोजित नहीं किया जाएगा।
(iii ) Candidates belonging to SEBC recruited on the basis of merit in an open competition on the same standards prescribed for the general candidates shall not be adjusted against the reservation quota of 27 percent .


उम्मीद है इन मापदंडों पर ही आरक्षण नीति को क्रियान्वित किया जायेगा।

भारत रत्न अमर्त्य सेन और पंडित रविशंकर की शादियाँ -


वैसे तो निजी ज़िन्दगी अलग होती है, लेकिन जो भारत रत्न हों उनके बारे में जानकारी हमेशा कौतुहल का विषय रहता है। संयोग से पंडित रविशंकर और अमर्त्य सेन को माननीय अटल बिहारी वाजपेयी ने भारत रत्न दिया, जो खुद शादी नहीं किये थे।

इसलिए जानकारी हेतु -

भारत रत्न अमर्त्य सेन की शादियाँ -

3 नवम्बर, 1933 शान्तिनिकेतन, पश्चिम बंगाल में जन्में अमर्त्य सेन एक स्वयंभू नास्तिक है। उनकी पहली शादी नाबनीता देव सेन से है, जो एक लेखिका और विद्वान हैं। इस शादी से उन्हें दो बेटियां हैं - अंतरा, एक पत्रकार और प्रकाशक, और नंदना, एक बॉलीवुड अभिनेत्री। सेन 1971 में लंदन चले गए कुछ ही समय बाद उन्होंने शादी को तोड़ दिया।

1973 में सेन ने ईवा कोलोर्नी से दूसरी शादी की जिनकी 1985 में कैंसर से मृत्यु हो गई। इस शादी से भी उन्हें दो बच्चे हैं - इंद्राणी, जो न्यू यॉर्क में एक पत्रकार हैं और कबीर, जो छायादार हिल स्कूल में संगीत सिखाता है।

अमर्त्य सेन ने 1991 में एम्मा जिओर्जिना रोथ्सचाइल्ड से तीसरी शादी कर ली। वे और एम्मा कैम्ब्रिज, मैसाचुसेट्स, में अपने घर पर रहते हैं।




भारत रत्न पंडित रविशंकर की शादियाँ -

1999 में ही, जिस अमर्त्य सेन को भारतं रत्न मिला, उसी वर्ष 1920 में जन्में पंडित रविशंकर को भी रत्न गया था।

रविशंकर 1941 में अलाउद्दीन खान की बेटी अन्नपूर्णा देवी से शादी की जिनसे 1942 में शुभेन्द्रशंकर का जन्म हुआ। 1940 के दशक के दौरान रविशंकर अन्नपूर्णा देवी से अलग होकर कमला शास्त्री नामकी एक नर्तकी के साथ रिश्ता बनाया।

इसके बाद सूए जोन्स से प्रेम प्रसंग हुआ जिससे 1979 में नोरा जोन्स का जन्म हुआ जो न्यू यॉर्क में कॉन्सर्ट निर्मात्री हैं।

1981 में कमला शास्त्री से अलग होने के बाद, सुकन्या राजन से अनुष्का शंकर का जन्म हुआ। हालाँकि 1986 तक वे सूए जोन्स के साथ ही रहते थे। 1989 में 1970 के दशक से सम्बन्ध में रहने वाली सुकन्या राजन से रविशंकर ने शादी की।

Saturday, July 27, 2013

सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर के विवादास्पद फैसले -


सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर के विवादास्पद फैसले -

जज और खास तौर से सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को विवाद से परे होना चाहिए। इसके पहले 22 सितम्बर, 2012 के अपने Facebook पोस्ट में अल्तमस कबीर साहब के ऍफ़ डी आई पर सरकार समर्थक खुले विचारों पर मैंने टिप्पणी की थी।

अब भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर अपने कार्यालय demit करने से कुछ घंटे पहले दिए गए शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश और आरक्षण पर दो महत्वपूर्ण फैसले के कारण ताजा विवाद में फंस गए हैं।

पहले फैसले में अल्तमस कबीर ने कहा है की अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में सुपर स्पेशियलिटी स्तर पर आरक्षण की कोई छूट नहीं किया जा सकता है। मेरिट केवल मापदंड होना चाहिए। कार्यकर्ता वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि कबीर साहब के फैसले में संभवतः हितों का टकराव था क्योंकि मुख्य न्यायाधीश महोदय उसी समय अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान सुपर स्पेशियलिटी पदों में आरक्षण के मुद्दे से प्रभावित होने वाले डाक्टरों के इलाज़ में थे। वैसे भी पद छोड़ने से कुछ घंटे पहले ऐसे महत्वपूर्ण फैसले को टाला जा सकता था।

दूसरा फैसला भारतीय चिकित्सा परिषद द्वारा देश के सभी मेडिकल और बीडीएस पाठ्यक्रमों के लिए एक एकल राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा को रद्द करने को लेकर है। इस फैसले से सरकारी मेडिकल कालेजों के प्रवेश प्रक्रिया में फेर बदल से सरकार और आम लोगों का नुकसान हुआ, वहीं निजी मेडिकल कालेजों की चंडी हो गयी है।
पर विवाद इस बात पर था की यह फैसला निजी मेडिकल कालेजों को लीक कर दिया गया था जिससे कपिटेशन फीस में वे भरी रकम कमा लिए। एक कानूनी वेबसाइट ने तो यह भी पहले ही कह दिया था की तीन न्यायाधीशों में एक कौन इस फैसले के खिलाफ जायेगा।

सरकार को चाहिये की इन विवादास्पद फैसलों पर पुनर्विचार याचिका दाखिल करें। लेकिन क्या भ्रष्टाचार और सामाजिक न्याय विरोधी यू पी ए सरकार और उसके कानून मंत्री कपिल सिब्बल ऐसा करेंगे? शायद नहीं।

http://economictimes.indiatimes.com/photo/21155845.cms

My Facebook Post of 22nd September, 2012 -

Justices are freely praising 'reforms'. So will they not be prejudiced in their dealing cases on these issues? Is it not against judicial propriety?
Former Chief Jusitice Y K Sabharwal had observed in ' Canons of Judicial Ethics
- Speech as part of MC Setalvad Memorial Lectures Series' -
" Almost every public servant is governed by certain basic Code of Conduct
which includes expectation that he shall.... not take part in party politics; not be
associated with activities that are pre-judicial to the interests of the sovereignty
and integrity of India or public order; ...A just and humane Judge will always be non-partisan...... He would be above narrow considerations and not prone to external influences......Regard for the public welfare is the highest law (SALUS
POPULI EST SUPREMA LEX)....."
Hoping that Justice is seen to be done.

CJI S.H. Kapadia and CJI-designate Altamas Kabir praise Prime ...
indiatoday.intoday.in › India › North‎

Thursday, July 25, 2013

24 जुलाई, 1987, मौरिस नगर चौक, दिल्ली विश्वविद्यालय, कार्यक्रम - भ्रष्टाचार के विरूद्ध विश्वनाथ प्रताप सिंह की सिंहगर्जना।



1 अप्रैल, 1987 को राजीव गाँधी की सरकार से भ्रष्टाचार के गंभीर मुद्दे पर विवाद के बाद वित्त-मंत्री के पद से विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इस्तीफा दे दिया था। एक दो दिन बाद दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्र नेता होने के नाते मैं और दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के महासचिव नरेन्द्र टंडन विश्वनाथ प्रताप सिंह से मिल कर भ्रष्टाचार के विरुद्ध दिल्ली विश्वविद्यालय में एक सभा संबोधित करने का निवेदन किया। उस समय परीक्षाएं चल रही थी, इसलिए राजा साहब(मैं इसी तरह उन्हें संबोधित करता था) ने छुट्टियों के बाद विश्वविद्यालय खुलने पर 24 जुलाई को आने को राजी हुए। वर्तमान सांसद जगत प्रकाश नड्डा जी, जो उस समय विद्यार्थी परिषद् से संबधित थे, मुझे कार्यक्रम करने को प्रोतसाहित करते किया। परन्तु 23 जुलाई की देर शाम सेंट स्टीफेंस कॉलेज में आते वक़्त NSUI के कर्यकर्ताओं द्वारा विश्वनाथ प्रताप सिंह पर पेट्रोल बम से जानलेवा हमला किया गया। राजा साहब बाल-बाल बचे।

अगली सुबह सभी अख़बारों के सुर्ख़ियों में यह हमला था। मुझे लगा की 24 जुलाई का कार्यक्रम फ्लॉप हो जायेगा और रद्द करना पड़ेगा। किसी तरह मैंने श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह जी को कार्यक्रम में आने के लिए राजी कर लिया। और दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों, कर्मचारियों और प्रोफेसरों ने जो समर्थन दिया, और जो भीड़ हुई वह अभूतपूर्व था।

समापन भाषण में मैंने कहा, : ऐसा नहीं है की दिल्ली विश्वविद्यालय में किसी सम्मानीय व्यक्ति को सुनने के लिए पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। हमारे पास ऑडिटोरियम है, लेक्चर हाल हैं, ग्राउंड है। लेकिन कांग्रेस के इशारे पर कुलपति ने हमें कोई भी सुविधा देने से इनकार कर दिया और इस सभा पर पाबन्दी लगा दी। मजबूर होकर हमें यह सभा वहिंकरनी पद रही है जहाँ श्रीमति इंदिरा गाँधी के विरुद्ध पहली बार जयप्रकाश नारायण ने सभा की थी जिसके परिणामस्वरूप श्रीमति गाँधी सत्ता से हटी थी। आज की सभा का अपरिणाम फिर वही होगा। कांग्रेस सत्ता से हटेगी और भावी प्रधानमंत्री राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह का मैं स्वागत करता हूँ। जय हिन्द .: